Tuesday, 26 September 2017

साधना कब प्रारंभ करें

🔴  एक अवधूत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठा  था,  एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे है अवधूत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर  रहा हूँ."
                 
🔵 व्यक्ति ने कहा यह कैसे हो सकता है. नदी तो बहती हीं रहती हैं सारा पानी अगर बह भी जाए तो आपको क्या करना है।

🔴  अवधूत ने कहा मुझे दुसरे पार जाना है. सारा जल बह जाए  तो मै चल कर उस पार जाऊगा।

🔵 उस व्यक्ति ने गुस्से में कहा, आप पागलों और नासमझों जैसी बात कर रहे है, ऐसा तो हो ही नही सकता।

🔴  तव अवधूत ने मुस्कराते हुए कहा यह काम तुम लोगों को देख कर ही  सीखा  है. तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाये, कुछ शांति मिले, फलाना काम खत्म हो जाए, तो सेवा, साधन -भजन, सत्कार्य करेगें. जीवन भी तो नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करू।

🔵 सारः जो करना है आज ही अभी करो बढते जाओ चलते जाओ।

Tuesday, 5 September 2017

क्रोध पर नियंत्रण

एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता, प्यास से उसका गला सुखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

🔵 वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

🔴 राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है। काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिरा के वापस सामने बैठ गया ।

🔵 अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो में इसे खत्म कर दूंगा। इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है।

🔴 काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

🔵 तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द-बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

🔴 क्योकि उस डाली पर एक भयानक अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

🔵 राजा के मन में पश्चॉत्ताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु ! यह मैंने क्या कर दिया, जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया। काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता, अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती।

🔴 हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया?? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है। मित्रो इसीलिये कहा गया हैं कि क्षमा औऱ दया धारण करने वाला ही सच्चा वीर होता है क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ-साथ अपने खुद का ही अधिक नुकसान कर देता है।

🔵 क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पाश्चाताप से होता है। इसलिए हमें हमेशा अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिये।

जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों।

यों तो जरा−जरा सी बात पर दुःखी होना बहुत से लोगों का स्वभाव होता है। यह स्वभाव किसी प्रकार भी वाँछनीय नहीं माना जा सकता। मनुष्य आनन्दस्वरूप है, उसका दुःखी होना क्या? उसे तो हर समय प्रसन्न, आनन्दित तथा उत्साहित ही रहना चाहिए। यही उसके लिए वाँछनीय है और यही जीवन की विशेषता। इस स्वभाव के अतिरिक्त लोग तब तो अवश्य ही दुःखी रहने लगते हैं, जब वे किसी उच्च स्थिति से नीचे उतर जाते हैं। इस दशा में वे अपने दुःखावेग पर नियन्त्रण नहीं कर पाते और फूल जैसे जीवन में ज्वाला का समावेश कर लेते हैं। जब कि उस उतार की स्थिति में भी दुःख−शोक की उपासना करना अनुचित है।
 

 उतार की स्थिति में दुःखी होना तभी ठीक है। जब वह उतार पतन के रूप में घटित हुआ हो। और यदि उसका घटना नियति में नियम ‘परिवर्तन’, ईश्वर की इच्छा, प्रारब्ध अथवा दुष्टों की दुरभिसंधियों के कारण हुआ हो तो कदापि दुःखी न होना चाहिए। तब तो दुःख के स्थान पर सावधानी को ही आश्रित करना चाहिए। पतन के रूप में उतार का घटित होना अवश्य खेद और दुःख की बात है। उदाहरण के लिए किसी परीक्षा को ले लीजिए, यदि परीक्षार्थी ने अपने अध्ययन, अध्यवसाय और परिश्रम में कोताही रखी है। समय पर नहीं जागा, आवश्यक पाठ आत्मसात नहीं किये, गुरुओं के निर्देश और परामर्शों पर ध्यान नहीं दिया। अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं किया और असावधानी तथा लापरवाही बरती है तो उसका फेल हो जाना खेद, दुःख व आत्महीनता का विषय है। उसे अपने इस किए का दुःख रूपी दण्ड मिलना ही चाहिए। वह इसी योग्य था। उसके साथ न किसी को सहानुभूति होनी चाहिए और न उसे सान्त्वना और आश्वासन का सहयोग ही मिलना चाहिए।
 

 किन्तु उस पुरुषार्थी विद्यार्थी को दुःख से अभिभूत होना उचित नहीं, जिसने पूरी मेहनत की है और पास होने की सारी शर्तों का निर्वाह किया है। बात अवश्य कुछ उल्टी लगती है कि जिसने परिश्रम नहीं किया, वह तो अनुत्तीर्ण होने पर दुःखी हो और जिसने खून−पसीना एक करके तैयारी की वह असफल हो जाने पर दुःखी न हो। किन्तु हितकर नीति यही है कि योग्य विद्यार्थी को असफलता पर दुःखी नहीं होना चाहिए। इसलिए कि उसके सामने उसका उज्ज्वल भविष्य होता है। दुःख और शोक से अभिभूत हो जाने पर वह निराशा के परदे में छिप सकता है।