Saturday, 30 January 2016

वैराग्य-सत्य घटना है


  एक सज्जन के चित् में वैराग्य उदय हुआ । उनकी अवस्था अभी छोटी थी । वें घर बार छोड़ कर निकल पड़े और भाग कर अयोध्या पहुँचे । उन्होंने वहाँ जाकर एक प्रसिद्ध विद्वान् महात्मा से प्रार्थना की कि आप मुझे वैराग्य दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिये ।
महात्मा ने पूछा -- " तुम्हारा घर कच्चा है या पक्का ? घर पर कितने प्राणी है ? वहाँ क्या भोजन मिलता है ?
उन्होंने कहा - महाराज मेरा घर कच्चा है , तीन-चार प्राणी है , साधारण भोजन मिलता है ।
महात्मा जी ने कहा - मेरा मठ पक्का है , यहाँ सैंकड़ो साधु रहते हैं , उत्तम भोजन मिलता है । यदि कथा घर छोड़कर पक्के में रहना , तीन-चार प्राणी छोड़कर सैकड़ों प्राणियों में रहना और साधारण भोजन छोड़कर उत्तम उत्तम भोजन करना वैराग्य हो तो तुम आओ , मैं तुम्हें वैराग्य की दीक्षा दे दूँ । परन्तु यदि तुम्हें अपने विचार से ऐसा दीखता हो कि वहाँ की अपेक्षा यहाँ कुछ अधिक वैराग्य नहीँ है तो तुम्हें घर पर रहकर ही भजन करना चाहिए । भजन होना चाहिए चाहे घर हो या वन , गृहस्थ हो या विरक्त । वैराग्य अंतर की वस्तु है, बाहर की नहीँ । उसका अर्थ इतना ही है कि प्रियतम् प्रभु के अतिरिक्त वस्तु है , बाहर की नहीँ । उसका अर्थ इतना ही है कि प्रियतम् प्रभु के अतिरिक्त और किसी को भी मन में स्थान न मिलें , उनके अतिरिक्त और किसी से राग ना हो । तुम केवल उन्ही से राग करो , उन्ही का भजन करो, उन्हीं में रम् जाओ। बाह्य परिस्थितियों को तुम जितना अनुकूल बनाना चाहोंगे उतना उनमें फंस जाओगे । चाहे जैसी भी परिस्थिति हो , तुम जहाँ भी हो वहीँ भगवान का भजन करो। महात्मा जी का उपदेश मान कर वें लौट गये और वें बहुत समय तक गृहस्थ रहे और उनका भजन बड़े बड़े विरक्तों से भी उत्तम रहा । -- सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।।

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