एक संन्यासीकी कुटीके सामने ही एक बहनका मकान था । वह बहुत
रूपवती थी, पर रास्ता भूली हुई थी । सहरके धनी-मानी घरोंके व्यक्ति उसके
यहाँ आते रहते थे । जब कोई व्यक्ति उस बहनके पास आता,
नारायण नारायण
*संन्यासी
उसके नामका एक पत्थर अपनी कुटीके सामने रख देता । धीरे-धीरे पत्थरोंका ढेर
जमा हो गया । एक दिन जब वह पथ भूली हुई बहन घरसे बाहर निकली, तब अचानक
उसने अपने घरके सामने पत्थरोंका ढेर देखा । इस सम्बन्धमें उसने संन्यासीसे
पूछा । संन्यासीने कहा – ‘यह तुम्हारे दुष्कर्मोंका ढेर है ! एक दिन ये ही
पत्थर तुम्हारे गलेमें बँधकर तुमेह नरकमें ले जायँगे ।‘ पथ भूली हुई बहनको
संन्यासीकी बात सुनकर और सामने पत्थरोंके बड़े ढेरको देखकर अपने कृत्योंपर
बड़ी ग्लानि हुई और तत्काल वह वहीं गिरकर मर गयी । थोड़े दिनोंके बाद
संन्यासीकी भी मृत्यु हो गयी । मरनेके बाद वह बहन स्वर्गमें गयी और
संन्यासी नरकमें ।
*संन्यासीने
यमराजसे पूछा – ‘मैं नित्य धर्म-भजनमें अपना दिन बिताया करता था, जिसके
बदलेमें मुझे नरक मिला और वह बहन, जो दिन रात पापकर्ममें लगी रहती थी, उसे
स्वर्ग मिला, इसका कारण क्या है ?
*यमराजने
उत्तर दिया – ‘आप रोज दूसरोंके पापोंकी गणनामें लगे रहते
थे, इसलिये आपको नरक दिया गया और उस बहनने अपने पापोंका इतना बड़ा
प्रायश्चित किया कि उसने अपने आपको भी दे दिया. इसलिये उसे स्वर्ग मिला ।
*दूसरोंके पाप-पुण्यका निर्णय करनेवाले आप कौन होते हैं ? आपको केवल इतना अधिकार है कि अपने पापोंकी आलोचना करें, दूसरोंकी नहीं ।
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