।।श्री हरिः शरणम्।।
आने-जानेवाली चीजों से अपने में फर्क पड़ जाय‒यह महान् मूर्खता है । ये चीजें तो आने-जानेवाली हैं । कुटुम्ब भी आने-जानेवाला है, धन भी आने-जानेवाला है । अधिकार, पद आदि भी आने-जानेवाले हैं । मिनिस्टर बन गये तो फूँक भर गयी कि हम बड़े हो गये । क्या हो गये तुम ? मूर्खता है सांगोपांग, एक केश-जितनी भी इसमें सत्यता नहीं है । आप बताओ, क्या हुआ ? आज हम हिन्दुस्तान के बादशाह बन जायँ और कल तिरस्कारपूर्वक उतार दे तो क्या इज्जत है इसकी ? और मरना पड़ेगा ही, सब छूटेगा ही उस दिन क्या साथ में रहेगा ? इन नाशवान् चीजों को लेकर आप अपने में बड़ापन और ऊँचापन देखते हैं, यह वास्तव में कोई इज्जत है ? यह कोई मनुष्यता है ? परमात्मा के आप साक्षात् अंश हो, उसकी प्राप्ति करो तब तो अपनी जगह आ गये, ठिकानेपर आ गये । नहीं तो ठिकाने से चूक गये और आने-जानेवाली चीजों में बँध गये । खयाल में आता है कि नहीं ? शंका हो तो खूब खुलकर करो । हो नहीं सकती शंका ! ठहर नहीं सकती ! टिक नहीं सकती !
आने-जानेवाली चीजों से अपने में फर्क पड़ जाय‒यह महान् मूर्खता है । ये चीजें तो आने-जानेवाली हैं । कुटुम्ब भी आने-जानेवाला है, धन भी आने-जानेवाला है । अधिकार, पद आदि भी आने-जानेवाले हैं । मिनिस्टर बन गये तो फूँक भर गयी कि हम बड़े हो गये । क्या हो गये तुम ? मूर्खता है सांगोपांग, एक केश-जितनी भी इसमें सत्यता नहीं है । आप बताओ, क्या हुआ ? आज हम हिन्दुस्तान के बादशाह बन जायँ और कल तिरस्कारपूर्वक उतार दे तो क्या इज्जत है इसकी ? और मरना पड़ेगा ही, सब छूटेगा ही उस दिन क्या साथ में रहेगा ? इन नाशवान् चीजों को लेकर आप अपने में बड़ापन और ऊँचापन देखते हैं, यह वास्तव में कोई इज्जत है ? यह कोई मनुष्यता है ? परमात्मा के आप साक्षात् अंश हो, उसकी प्राप्ति करो तब तो अपनी जगह आ गये, ठिकानेपर आ गये । नहीं तो ठिकाने से चूक गये और आने-जानेवाली चीजों में बँध गये । खयाल में आता है कि नहीं ? शंका हो तो खूब खुलकर करो । हो नहीं सकती शंका ! ठहर नहीं सकती ! टिक नहीं सकती !
अविनाशी के सामने विनाशी चीज क्या मूल्य रखती है ? उन
चीजों से राजी और नाराज होते हो । महान् दुष्टता है यह । यह बड़ी भारी
दुष्टता है । इस वास्ते इन आने-जानेवाली चीजों से अपनी इज्जत-बेइज्जत मत
मानो । निन्दा से, प्रशंसा से दुःखी और सुखी मत होवो । आपकी इज्जत है नहीं
यह । निन्दा से नाराज होना भी बेइज्जती है और प्रशंसा से राजी होना भी
बेइज्जती है । महान् फजीती है आपकी । इसके समान फजीती और कोई है ही नहीं ।
कौन हो आप ? परमात्मा के साक्षात् अंश हो । दो-चार आदमियों ने ठीक कह दिया
तो क्या हो गया और दुनियामात्र बुरा कह दे तो क्या हो गया ? क्या है यह ?
यह कोई मूल्य है क्या ? यह कोई स्थायी चीज है ? आपके साथ रहनेवाली है ? ऐसे
जानेवाली को लेकर राजी और नाराज होते हो, सुखी-दुःखी होते हो । यह महान्
मूर्खता है । छोटी-मोटी मूर्खता नहीं है, बड़ी भारी मूर्खता है ।
‘समदुःखसुखः स्वस्थः’‒जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित
दुःख-सुख को समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाववाला
ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी
समान भाववाला है । जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में
भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष
गुणातीत कहा जाता है । (गीता १४ । २४- २५) वह गुणातीत आप हो ! गुणातीत
बनते नहीं हो ! बनी हुई गुणातीत अवस्था टिकेगी नहीं । अगर अभ्यास के द्वारा
गुणातीत बनोगे तो वह गुणातीत होना कोई काम का नहीं है । आप स्वयं गुणातीत
हो ! साक्षात् परमात्मा के अंश हो ! आप अपने को भूल गये । कितनी अवस्थाएँ
बदली हैं ! बालक, जवान, वृद्ध-अवस्था, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-अवस्था,
मान-अपमान की अवस्था, निन्दा-स्तुति की अवस्था, घाटे-नफे की अवस्था सब बीती
है, पर आप वे-के-वे ही रहे । फिर भी आने-जानेवाली चीजों के साथ
हाँ-में-हाँ मिलाकर हँसने और रोने लग जाते हो ।
जय श्री कृष्ण
जय श्री कृष्ण
‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तक से, पुस्तक कोड- 406, विषय- मनुष्यकी मूर्खता, पृष्ठ-संख्या- ५९-६१, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज
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