हम
सभी मनुष्य एक कर्मशील प्राणी हैं , हम बिना कर्म किए एक छण
भी नहीं रह सकते , यहाँ कर्म से मतलब काम से नहीं , वल्कि
क्रिया से है । जैसे कि स्वाँस लेना सहज क्रिया है , पलकें
झपकाना सहज क्रिया है । इन दोनों क्रियाओं को करने के लिए हमें
अपने स्तर पर कुछ प्रयास नहीं करना होता । वे स्वभावतः होती
रहती हैं ।
हमें सावधानी की जरूरत तो अपने सामाजिक - सांसारिक - पारिवारिक व व्यापारिक कर्मो को करने में है । क्योंकि इन कर्मों से ही आगे जाकर हमारा प्रारब्ध यानी भाग्य बनना है । जिन मनुष्यों से ये कर्म बुरे बन जाते हैं , वे चौरासी लाख योनियों में भटकते हैं , रोगी होते हैं और दुखी होते हैं , और जिन मनुष्यों से ये कर्म अच्छे बन जाते हैं , वे मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं और सुखी - स्वस्थ और वैभव सम्पन्न ।
हममें से ज्यादातर लोग विधि के इस विधान से परिचित हैं , लेकिन हमसे भूल यह हो जाती है कि , प्रारब्ध से जो सुखी और सम्पन्न हो जाते हैं , वे अभिमान में इस कदर डूब जाते हैं , कि भगवान को ही भुला बैठते हैं , और प्रारब्धावश जो दुखी - दीन - हीन - रोगी होते हैं , वे अपने पूर्व कर्मों को भुला बैठते हैं , जिसका कि परिणाम यह होता है कि , वे भगवान को ही भला बुरा कह कर दोषी ठहराने लगते हैं कि , मैंने उसका क्या ? बिगाडा है , जो मेरे ही पीछे पडा हुआ है ।
जबकि जरूरत इस बात की है कि , सुखी व्यक्ति अपने पुण्यों को याद रखें कि , हमारी यह स्थिति हमारे पूर्व पुण्यों के कारण है , सो इन पुण्यों से अर्जित इस अनुकूलता को इस तरह जाया नहीं करें , और जो व्यक्ति दुःखी और रोगी हैं , वे अपनी भूल मानकर इन्हें तो भोग लें , और आगे के लिए सावधान हो जाएं ।
कर्मों के सात्विक होते ही व्यक्ति अपनी तरफ से बिना भगवान से जुडे ही , स्वतः ही भगवान से जुड जाते हैं , क्योंकि आखिर में हम हैं तो भगवान के अंश ही , और सत भगवान का स्वरूप है । इसके बाद अगर कोई प्रतिकूलता आती भी है , तो वह व्यक्ति अब शिकायत नहीं करेगा, क्योंकि अब उसकी बुद्धि , बृह्म बुद्धि हो चुकी होती है । बृह्म बुद्धि को ही तो सच्ची शरणागति कहा जाता है ।
अपनी इच्छा दो मिला , इच्छा में भगवान।
फिर देखो क्या? मौज है ,तनिक न शक कल्यान।।
होगा वह, जो है लिखा , कुछ नहीं अपने हाथ।
फिर काहे को पीटना , फोकट में सिर - माथ।।
हरि से भी कह दो यही , जो मर्जी प्रभु आप।
जहाँ और जैसे रखो , रह लूँगा चुपचाप।।
चलनी ही नहीं जब मेरी , ना मनमाफिक काम।
तो क्यों ? हो - हल्ला करूँ, मुफ्त में " रोटीराम "।।
हमें सावधानी की जरूरत तो अपने सामाजिक - सांसारिक - पारिवारिक व व्यापारिक कर्मो को करने में है । क्योंकि इन कर्मों से ही आगे जाकर हमारा प्रारब्ध यानी भाग्य बनना है । जिन मनुष्यों से ये कर्म बुरे बन जाते हैं , वे चौरासी लाख योनियों में भटकते हैं , रोगी होते हैं और दुखी होते हैं , और जिन मनुष्यों से ये कर्म अच्छे बन जाते हैं , वे मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं और सुखी - स्वस्थ और वैभव सम्पन्न ।
हममें से ज्यादातर लोग विधि के इस विधान से परिचित हैं , लेकिन हमसे भूल यह हो जाती है कि , प्रारब्ध से जो सुखी और सम्पन्न हो जाते हैं , वे अभिमान में इस कदर डूब जाते हैं , कि भगवान को ही भुला बैठते हैं , और प्रारब्धावश जो दुखी - दीन - हीन - रोगी होते हैं , वे अपने पूर्व कर्मों को भुला बैठते हैं , जिसका कि परिणाम यह होता है कि , वे भगवान को ही भला बुरा कह कर दोषी ठहराने लगते हैं कि , मैंने उसका क्या ? बिगाडा है , जो मेरे ही पीछे पडा हुआ है ।
जबकि जरूरत इस बात की है कि , सुखी व्यक्ति अपने पुण्यों को याद रखें कि , हमारी यह स्थिति हमारे पूर्व पुण्यों के कारण है , सो इन पुण्यों से अर्जित इस अनुकूलता को इस तरह जाया नहीं करें , और जो व्यक्ति दुःखी और रोगी हैं , वे अपनी भूल मानकर इन्हें तो भोग लें , और आगे के लिए सावधान हो जाएं ।
कर्मों के सात्विक होते ही व्यक्ति अपनी तरफ से बिना भगवान से जुडे ही , स्वतः ही भगवान से जुड जाते हैं , क्योंकि आखिर में हम हैं तो भगवान के अंश ही , और सत भगवान का स्वरूप है । इसके बाद अगर कोई प्रतिकूलता आती भी है , तो वह व्यक्ति अब शिकायत नहीं करेगा, क्योंकि अब उसकी बुद्धि , बृह्म बुद्धि हो चुकी होती है । बृह्म बुद्धि को ही तो सच्ची शरणागति कहा जाता है ।
अपनी इच्छा दो मिला , इच्छा में भगवान।
फिर देखो क्या? मौज है ,तनिक न शक कल्यान।।
होगा वह, जो है लिखा , कुछ नहीं अपने हाथ।
फिर काहे को पीटना , फोकट में सिर - माथ।।
हरि से भी कह दो यही , जो मर्जी प्रभु आप।
जहाँ और जैसे रखो , रह लूँगा चुपचाप।।
चलनी ही नहीं जब मेरी , ना मनमाफिक काम।
तो क्यों ? हो - हल्ला करूँ, मुफ्त में " रोटीराम "।।
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