अति प्राचीन बात है। दक्षिण भारत में वीरसेन नामक राजा राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य में विष्णुदेव नामक एक ब्राह्मण था। एक बार अकाल की वजह से भिक्षा मिलनी बंद हो गई। ( पूर्व काल में ब्राह्मण का मूल धर्म होता था साधना करना और समाज को धर्मशिक्षण देते हुए भिक्षाटन कर जीवन यापन करना )
एक दिन बच्चों के पेट में अन्न गए तीन दिन बीत गए थे। पत्नी रोते हुई बोली, “अब मुझसे सहा नहीं जाता। कोई मां अपने बच्चों को इस तरह मरते हुए नहीं देख सकती। तुम्हें कुछ-न-कुछ करना ही होगा।”
पंडितजी ने झल्लाकर कहा “क्या करना होगा? क्या चोरी करूं?”
पत्नी ने कहा, “हां, चोरी करो। अब और कोई चारा नहीं बचा है।”
पंडितजी ने पत्नी को मनाने का अत्यधिक प्रयास किया, पर वह उसकी हठ के आगे नतमस्तक हो गए। रात को वह राजमहल के भंडार गृह में पहुंचे। उस समय सारे पहरेदार सो रहे थे। वह अंदर घुसे तो सोने-चांदी के मोहरों तथा अनाज के ऊंचे-ऊंचे ढेरों को देखकर आंखें चौंधिया गई। उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और उसमें अनाज रखकर गटर बांधा और तेजी से बाहर आ गए।
लौट कर आने के बाद उन्हें नींद नहीं आई। सुबह होते ही वे सीधे राजदरबार जा पहुंचे। अपना अपराध बताने के बाद राजा से अनुरोध किया कि वह उन्हें चोरी का दंड दें।
राजा कुछ देर सोचते रहे। कुछ क्षण पश्चात लंबी सांस खींचते हुए वे बोले, “दंड तो मैं अवश्य दूंगा, पंडित महाराज! परंतु आपको नहीं, बल्कि अपने आपको। आज से मैं घूम-घूमकर प्रजा के सुख-दुख की जानकारी लूंगा, जिससे फिर किसी प्रजा जन को चोरी करने की जरूरत ही न पड़े।”
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