Tuesday, 3 November 2015

सत्संग की कुछ सार बातें


*  मनुष्य-जीवन के समय को अमूल्य समझकर उत्तम-से-उत्तम काम में  व्यतीत करना चाहिए। एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये ।

*    यदि किसी कारणवश कभी कोई क्षण भगवत-चिंतन के बिना बीत जाय तो उसके लिए पुत्र शोक से भी बढ़कर घोर पश्चाताप करना चाहिये, जिससे फिर कभी ऐसी भूल न हो ।

*    जिसका समय व्यर्थ होता है, उसने समय का मूल्य समझा ही नहीं ।

*   मनुष्य को कभी निकम्मा नहीं रहना चाहिये ; अपितु सदा-सर्वदा उत्तम-से-उत्तम कार्य करते रहना चाहिये ।
* मन से भगवान् का चिंतन, वाणी से भगवान् के नाम का जप, सबको नारायण समझकर शरीर से जगज्जनार्दन की नि:स्वार्थ सेवा यही उत्तम-से-उत्तम कर्म है ।

*  बोलने के समय सत्य, प्रिय, मिट और हितभरे शास्त्रानुकूल वचन बोलने चाहिये ।

*    अपने दोषों को सुनकर चित्त में प्रसन्नता होनी चाहिये ।

*    यदि कोई हमारा दोष सिद्ध करे तो उसके लिए जहाँ तक हो , सफाई नहीं देनी चाहिये; क्योंकि सफाई देने से दोषों की जड़ जमती है तथा दोष बतलानेवाले के चित्त में भविष्य के लिए रूकावट होती है । इससे हम निर्दोष नहीं हो पाते ।

* यदि हम निर्दोष हैं तो दोष सुनकर हमें मौन हो जाना चहिये, इससे हमारी कोई हानि नहीं है और सदोष हैं तो अपना सुधार करना चहिये ।

*  दोष बताने वाले का गुरुतुल्य आदर करना चाहिये, जिससे भविष्य में उसे दोष बताने में उत्साह हो ।
जय श्री कृष्ण
परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

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