सारी सृष्टि में एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है ,
जो कि रोता हुआ आता है ,
शिकायतें करता हुआ जीता है ,
हर समय भगवान को ही दोष देता रहता है ,
केवल इसको ही भगवान के द्वारा रचित ,
इस सृष्टि में खोट नजर आता है ,
और एक यही जीव कभी सन्तुष्ट नहीं होता ,
यह हमेशा कभी अपने आप से ,
तो कभी दूसरों से नाराज सा ही दिखाई देता है ,
यह चाहे पच्चास साल जिए या सौ साल ,
जाता है असन्तुष्ट सा ही ,
यह प्रभु प्रदत्त बुद्धि और विवेक रूपी ,
उन दो अमोघ वाणों का ,
किसी भी उम्र में इस्तेमाल ही नहीं करता,
जो कि इसको मिली हुई ,
प्रभु की अद्भुत सौगातें हैं ,
जिनके उपयोग से लोक और परलोक सुधरते हैं ,
जो कि इसे अपने अंशी से मिलाने में समर्थ हैं,
जिनके कि उपयोग से , आए भले ही रोता हुआ ,
लेकिन जाएगा हंसता हुआ ही ।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि,
यह जीव रोने - पीटने का आदी ही हो गया है ,
इसे गर्भों में लटकने की आदत सी हो गई है,
शायद इसीलिए न तो शास्त्रों की मान रहा है ,
और न सन्तों की ,
एक दूसरे को समझा सब रहे हैं ,
लेकिन समझ कोई भी नहीं रहा ,
हर ओर अनिश्चितता ही अनिश्चितता है ।
जो कि रोता हुआ आता है ,
शिकायतें करता हुआ जीता है ,
हर समय भगवान को ही दोष देता रहता है ,
केवल इसको ही भगवान के द्वारा रचित ,
इस सृष्टि में खोट नजर आता है ,
और एक यही जीव कभी सन्तुष्ट नहीं होता ,
यह हमेशा कभी अपने आप से ,
तो कभी दूसरों से नाराज सा ही दिखाई देता है ,
यह चाहे पच्चास साल जिए या सौ साल ,
जाता है असन्तुष्ट सा ही ,
यह प्रभु प्रदत्त बुद्धि और विवेक रूपी ,
उन दो अमोघ वाणों का ,
किसी भी उम्र में इस्तेमाल ही नहीं करता,
जो कि इसको मिली हुई ,
प्रभु की अद्भुत सौगातें हैं ,
जिनके उपयोग से लोक और परलोक सुधरते हैं ,
जो कि इसे अपने अंशी से मिलाने में समर्थ हैं,
जिनके कि उपयोग से , आए भले ही रोता हुआ ,
लेकिन जाएगा हंसता हुआ ही ।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि,
यह जीव रोने - पीटने का आदी ही हो गया है ,
इसे गर्भों में लटकने की आदत सी हो गई है,
शायद इसीलिए न तो शास्त्रों की मान रहा है ,
और न सन्तों की ,
एक दूसरे को समझा सब रहे हैं ,
लेकिन समझ कोई भी नहीं रहा ,
हर ओर अनिश्चितता ही अनिश्चितता है ।
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