Friday, 27 November 2015

'देखि सखी उत है वह गाउँ।

'देखि सखी उत है वह गाउँ।
जहाँ बसत नन्दलाल हमारे, मोहन मथुरा नाउँ।
कालिंदी कैं कूल रहत हैं, परम मनोहर ठाउँ।।
जौ तन पंख होइँ सुनि सजनी, अबहिं उहाँ उडि़ जाउँ।
चिन्ता- मधुकर ये नैना पै हारे।
निरखि निरखि मग कमल नैन के, प्रेम मगन भए भारे।।
ता दिन तैं नींदो पुनि बासी, चौंकि परत अधिकारे।
सुपन तुरी जागत पुनि वेर्इ, बसत जु âदय हमारे।
स्मरण- मेरे मन इतनी सूल रही।
वे बतियाँ छतियाँ लिखि राखीं, जे नन्दलाल कही।।
एक धौस मेरे गृह आए, हौं ही मथत दही।
रति माँगत मैं मान कियौ सखि, सो हरि गुसा गही।।
गुण-कथन- एक धौस कुँजनि मैं मार्इ।
नाना कुसम लेर्इ अपनै कर, दिए मोहिं सो सुरति न जार्इ।।
इतने मैं घनि गरजि वृषिट करी, तनु भिज्यौ मो भर्इ जुड़ार्इ।
कंपत देखि उढ़ार्इ पीत पट, लै करुनामय कंठ लगार्इ।।
कहँ वह प्रीति रीति मोहन की, कहँ अबधौं एती निठुरार्इ।
अब बलवीर सूर-प्रभु सखी री, मधुबन बसि सब रति बिसरार्इ।
(उद्वेग) व्याकुलता-तुम्हारी प्रीति, किधौं तरवारि।
दुषिट धारि धरि हतीजु पहिलैं, घायल सब ब्रजनारि।
गिरीं सुमार खेत ब्रंदावन, रन मानी नहिं हारि।
विàल बिकल सँभारति छिनु-छिनु, बदन सुधानिधि वारि।।

No comments:

Post a Comment