भागवत
पुराण के महात्मय में एक चर्चा है । जब परीक्षित को शुकदेव जी कथा सुना
रहे थे, तो उसी समय भागवत पुराण के श्लोक को सुनकर स्वर्ग के देवता नीचे
उतर आए । देवता शुकदेव जी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले
जाएं, ये तो देवताओं की सम्पत्ति है । यह तो स्वर्ग में जानी चाहिए । अतः
आप इसे हमें दे दें ।
शुकदेव
जी बोले- मैं तो वक्ता हूँ । यजमान हैं राजा परीक्षित । आप परीक्षित से
पूछ लीजिए, अगर ये देते हैं, तो आप ले जाइये कथा को स्वर्ग में ।
देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया- आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में ?
देवताओं
ने कहा- इस कथा के बदले में हम आपको अमृत दे सकते हैं। सात दिन बाद आपको
तक्षक डसने वाला है, आपकी मृत्यु होने वाली है । हम आपको स्वर्ग का अमृत दे
देते हैं । आप अमृत ले लो और कथा हमको दे दो ।
राजा
परीक्षित ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया- आप मुझे अमृत तो दे दोंगे और हो सकता
है कि मैं अमर भी हो जाऊं, परन्तु इससे मैं निर्भय नहीँ हो पाऊंगा ।
बड़ा
फर्क है- अमर होने और निर्भय ( बिना भय के ) होने में । देवताओं आप तो रोज
डरते हो, जब कोई दैत्य आपके पीछे लग जाएं । आप भागे फिरते हो, आप अमर हो
लेकिन निर्भय नहीं हो । भागवत की ये कथा मुझे निर्भय कर देगी, मुझे अमर
नहीं होना ।
कथासार-
मनुष्य इस संसार में भौतिक सुख प्राप्त करके भी चाहे कितना सुखी दिखे,
लेकिन फिर भी वह निर्भय नहीं है, उसे कोई न कोई चिन्ता रहती ही है । भगवान
की कथा ही हमें इस संसार में निर्भयता प्रदान करती है । तब भक्त को अपने
भगवान का ही आश्रय रहता है । उसको कोई संसारिक वस्तु का मोह नहीं रह जाता,
यहां तक कि अपने जीवन का भी नहीं । वो सोचने लगता है कि मिल जाय तो ठीक,
नहीं मिले तो नहीं सही ।
यह
" नहीं सही " बहुत बढ़िया मन्त्र है । परीक्षित की तरह कोई इच्छा नहीं
रहे, जीये तो भी मौज, मरें तो भी मौज । अगर हम भी यही धारणा अपना लें, तो
मरने से पहले हमें भी तत्त्वज्ञान हो जाये ।
।। राम राम ।।
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