दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है।
पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी
आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो
ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है.........बहुत ही
ज्ञानवर्धक कथा जरूर पढें!
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"मुठ्ठियों में क़ैद हैं जो खुशियाँ
सब में बांट दो;;;
आपकी हो या मेरी हो
हथेलियां एक दिन तो खाली ही जानी हैं।"
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एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है !
आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार मिल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"
वह
रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने
कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा
हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"
सेठ जीः "एक तो हार
चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए ? नहीं। जो हुआ अच्छा
हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा
छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में
एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि
छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की
प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो
शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है।
छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें
अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा ?"
सेठ
जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे
लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ?
वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं
तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।।
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"
हृदय
का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी
और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं।
जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान
आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं,
दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है,
और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी
है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार
में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी
हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा
ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट
हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।
नारायण नारायण
लक्ष्मीनारायण भगवान की जय
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