Friday 9 October 2015

कबहुँक कर करुणा नर देही , देत ईश बिन हेतु सनेही ।

सारी सृष्टि में एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है ,
जो कि रोता हुआ आता है ,
शिकायतें करता हुआ जीता है ,
और हर समय भगवान . को ही दोष देता रहता है ,
केवल इसको ही भगवान के द्वारा रचित ,
इस सृष्टि में खोट नजर आता है ,
भले ही उसके जीवन में कितनी ही ,
अनुकूलताऐं क्यों न हों , कभी सन्तुष्ट ही नहीं होता ,
यह हमेशा कभी अपने आप से ,
तो कभी दूसरों से नाराज सा ही दिखाई देता है ,
यह चाहे पच्चास साल जिए , या सौ साल ,
जाता है , असन्तुष्ट सा ही ,
यह प्रभु प्रदत्त बुद्धि और विवेक रूपी ,
उन दो अमोघ वाणों का , जो कि सकल सृष्टि में ,
केवल इसी के पास हैं ,
उनका किसी भी उम्र में ,
अपने हित के लिए इस्तेमाल ही नहीं करता,
अगर कभी करता भी है , तो केवल संग्रह के लिए ,
जिसे कि औरों के लिए छोड जाता है ,
और संग ले जाता है , पापों की एक मोटी सी पोटली ,
और फिर चौरासी लाख योनियों में भटकाता फिरता है ,
यह सिलसिला जन्म - जन्मान्तरों से चला आ रहा है ,
कृपा करके भगवान फिर नरयोनि देते हैं ,
कि शायद इस बार मेरा भजन करके मुझे पाले ,
( गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि )
कबहुँक कर करुणा नर देही ,
देत ईश बिन हेतु सनेही ।
( मानस - उत्तर ' 44/3 )
मगर इन्सान है कि , जगता ही नहीं ,
अब तो ऐसा लगने लगा है कि,
इसे रोने पीटने में ही रस आने लग गया है ,
इसे गर्भों में लटकने की आदत सी हो गई है,
शायद इसीलिए न तो शास्त्रों को मान दे रहा है ,
और न सन्तों को ।

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