Sunday 27 December 2015

प्रार्थना

एक शब्द है प्रार्थना , जिसमें कि इतनी गहराई है कि जो उसमें डूबा वह फिर उबर नहीं सका , वह उस गहराई में ही गोते लगाता रहा , उस शब्द को , हम स्वनामधन्य भक्तों ने इतना थोथा कर दिया है कि आज उसमें  वजन नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है ,
जिसे देखो , और जिस जगह देखो, चाहे सफर में हो या मंदिर में चोरी करने निकला हो या बेईमानी सब प्रार्थना करने में लगे हुए हैं ,
जैसे कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि , _ _आदि
अथवा कि मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि - - - - - आदि
अथवा सरकार से या आफीसर से आदि _ _ _ _

जबकि सन्त और शास्त्र प्रार्थना शब्द की , जब व्याख्या करते हैं तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है , 

वे कहते हैं कि , प्रार्थना की नहीं जाती, वल्कि प्रार्थना तो स्वतः हो जाती है ,
यह जो आजकल प्रार्थना करने का रिवाज सा चल पडा है  वह तो स्कूली बच्चों की सुबह होने वाली रोजमर्रा की रटी - रटाई प्रार्थना जैसी है ।

अध्यात्म में और भक्ति में तो प्रार्थना शब्द का अर्थ एक दुखी हृदय की ईश्वर से दृवित आर्तपुकार से है ,
एक ऐसी आर्तपुकार , जो कि सृष्टि को हिलाने तक की क्षमता रखती है , जो कि  इन्सान की सारी शक्ति और सामर्थ्य चुक जाने , व अन्य कोई आश्रय न रह जाने पर तथा उसके कर्तापन के अभिमान के मिट जाने पर, जीव की जिव्हा से ही नहीं , वल्कि आँखों व नथुनों से अविरल बह निकलती है और जब कभी भी ऐसा होता है ,
तो वह पुकार सीधे ईश्वर के कानों से ही टकराती है  बीच में नहीं रुकती ।
जैसे कि , सतयुग में भक्त प्रह्लाद की व श्रीमद्भागवत में गजराज की तथा द्वापर में कृष्णावतार के समय द्रोपदी की ।

( प्रमाण एक भजन के माध्यम से )

तर्ज - हरे कृष्ण गोविंद हरे मुरारे ।
यही नाम मुख में , हो हरदम हमारे ।।

लिया हाथ में , दैत्य ने जब ही खंजर ,
कहा पुत्र से , है कहाँ तेरा ईश्वर ।
तो प्रह्लाद ने , याद की आह भरकर ,
दिखाई पडा , उसको खम्भे के अंदर ।
प्रकट हो गए , रूप नृसिंह धारे ।।
हरे कृष्ण गोविंद , मोहन मुरारे _ _ _ _

 सरोवर में गज ग्राह , की थी लडाई ,
न गजराज की शक्ति , कुछ काम आई ।
कहीं से मदद उसने , जब कुछ न पाई ,
दुःखी होके आवाज , हरि को लगाई ।
गरुड छोड नंगे , ही पावों पधारे ।।
हरे कृष्ण गोविंद मोहन मुरारे _ _ _ _ _

( अथवा )
 कहाँ ? जा छुपे हो , ओ प्यारे कन्हैया ।
यहाँ लाज मेरी , लुटी जा रही है ।।
दुसासन के हाथों , तेरी द्रोपदी की ।
सभा बीच साडी , खींची जा रही है ।।
शौहरत थी जिनकी , सारे जहां में ।
झुकता था सारा जहां जिनके आगे ।।
निहारो समय आज बदला है कैसा ? ।
उन वीरों की गर्दन , झुकी जा रही है।।
कहाँ जा छुपे हो , ओ प्यारे कन्हैया।।

दोहा - पंकज ले गजराज ने , कीन्हीं आर्तपुकार ।

गरुड त्याग धाए प्रभु , तुरत किया उद्धार।।

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