Monday 23 January 2017

गृहस्थ धर्म >>

 पति पत्नी सावधानीपूर्वक पवित्र जीवन जिएँ तो सन्यासाश्रम जैसा आनन्द गृहस्थाश्रम मेँ भी मिल सकता है । पवित्र जीवन जीने वाले दम्पत्ति साधु सन्तोँ की सेवा करके परमात्मा को पुत्र रुप मेँ पाकर अपनी गोद मेँ उनका लालन पालन करेँगे । जबकि सन्यासी मात्र ब्रह्मचिँतन मेँ ही लीन रहेगा ।
गृहस्थावस्था मेँ ध्यान रखना चाहिए कि पत्नी कामभोग का नहीँ , धर्म का साधन है । पत्नी तो गृहस्थाश्रम की सहायिका है । पत्नी संग सत्संग बने तभी गृहस्थाश्रम मे दिव्यता आती है । गृहस्थ धर्म को बनाये रखता है इसीलिए सन्यासी भी गृहस्थ के आँगन मेँ आता है । अतः गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ है । पति और पत्नी दोनो सुपात्र होँ तो धर्म पालन हो सकेगा । गृहस्थ को सावधान रहना चाहिए कि कहीँ उससे पापाचार न हो जाय । उसे अन्दर से अनासक्त रहकर बाहर से सभी से प्रेम करना चाहिए । जो पात्र मेँ थाली मे है वह सभी कुछ अपना नहीँ है किन्तु जितना पेट मे समा सकता है , उतना ही अपना है , पेट मे जो गया है उसमेँ जितना पच सकता है उतना ही अपना है ।
गृहस्थाश्रमी को न तो अधिक कठोर होना चाहिए और न अधिक सरल ।