Saturday 4 November 2017

बेटी या बहू

🔷 सुजाता को लड़का हुआ, नॉर्मल डिलीवरी होने के कारण उसी दिन हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई, घर में सभी बहुत खुश थे क्योंकी पहले एक तीन साल की लड़की थी, सासू जी बहू के आराम के लिए हाल के पास वाले कमरे में बिस्तर लगा रही थी।

🔶 बहू शाम को घर आ गई, बच्चे को देखने और सुजाता की खबर पूछने रिश्तेदार व पड़ोसी आने लगे, सासु माँ घर का सारा काम भी करती, सुजाता व बच्चे का ध्यान रखती और आनेवालों का स्वागत भी करती।

🔷 कहते हैं सभी एक जैसे नहीं होते, सभी अपनी अपनी सलाह सुजाता की सास को देकर जाते, सुजाता को सब अंदर सुनाई देता था, उसी समय एक पड़ोसी की पत्नी आई और कहने लगी, देखो वैसे तो हम डिलीवरी में पूरा मेवा "काजु,बदाम,पिस्ता सब डालकर लड्डू बनाते हैं पर अपनी बेटियों के लिए, अब बहु है तो थोड़ा कम ज्यादा भी चल जाता है, बादाम बहुत मंहंगी है इसलिए 500 ग्राम के बदले 150 ग्राम ले लेना और वैसे ही सभी मेवा थोड़ा थोड़ा कम कर देना और लड्डू कम न बने इसके लिए गेहूं का आटा ज्यादा ले लेना, सुजाता की सास सब सुनती रही अंदर सुजाता भी सब सुन रही थी, पड़ोसन चली गई, ससुर जी बोले " देखो में बाजार जा रहा हूँ तूम मुझे क्या लाना है लिखवा दो?

🔶 कोई चीज बाकी ना रहे, तभी सुजाता की सास ने सामान लिखवाया, हर चीज बेटी की डिलीवरी के समय से ज्यादा ही थी ससुर जी ने पूछा इस बार सभी सामान ज्यादा है क्या तूम भी लड्डू खाने वाली हो? तब सुजाता की सास बोली "सुनों जब बेटी को डिलिवरी आई थी तब हमारी परिस्थिति अच्छी नहीं थी और आवक भी कम थी तब आप अकेले कमाते थे अब बेटा भी कमाता है इसलिए मैं चाहती हूँ की बहू के समय, में वो सब चीजें बनाऊँ जो बेटी के समय नहीं कर पाई, क्या बहू हमारी बेटी नहीं है।

🔷 और सबसे बड़ी बात यह की बच्चा होते समय तकलीफ तो दोनों को एक सी ही होती है इसलिए मैंने बादाम ज्यादा लिखे हैं लड्डू में तो डालूंगी पर बाद में भी हलवा बनाकर खिलाउंगी, जिससे बहू को कमजोरी नहीं आये और बहू -पोता, हमेंशा स्वस्थ रहें!

🔶 सुजाता अंदर सबकुछ सुन रही थी और सोच रही थी में कितनी खुशकिस्मत हूँ। और थोड़ी देर बाद जब सासुजी रूम में आई तो सुजाता बोली "क्या मैं आपको मम्मीजी की जगह मम्मी कहूँ?

🔷 बस फिर क्या? दोनों की आँखों में आँसू थे।

Monday 30 October 2017

रोते क्यों हो?

🔸 तुम उदास क्यों हो? इसलिए कि तुम गरीब हो। तुम्हारे पास रुपया नहीं है।
🔹 इसलिए कि तुम्हारी ख्वाहिशें दिल ही दिल में घुटकर रह जाती हैं।
🔸 इसलिए कि दिली हसरतों को पूरा करने के लिए तुम्हारे पास दौलत नहीं है।
🔹 मगर क्या तुम नहीं देखते कि गुलाब का फूल कैसा मुस्करा रहा है।
  
🔶 हालाँकि उसके पास भी धन नहीं है। वह भी तुम्हारी तरह गरीब है। क्या तुम नहीं देखते कि बाग में बुलबुल कैसी चहचहा रही है। हालाँकि उसके पास भी तुम्हारी तरह एक कौड़ी भी नहीं है।

🔷 तुम क्यों रोते हो?
इसलिए कि तुम दुनिया में अकेले हो, मगर क्या तुम नहीं देखते कि घास का सर सब्ज तिनका मैदान में अकेला खड़ा है लेकिन वह कभी सर्द आहें नहीं भरता-किसी से शिकायत नहीं करता, बल्कि जिस उद्देश्य को पूरा करने के लिए परमात्मा ने उसे पैदा किया है। वह उसी को पूरा करने में लगा है।

🔶 क्या तुम इसलिए रोते हो कि तुम्हारा अजीज बेटा या प्यारी बीबी तुमसे जुदा हो गयी? मगर क्या तुमने इस बात पर भी कभी गौर किया है कि तुम्हारी जिन्दगी का सुतहला हिस्सा वह था जब कि तुम ‘बच्चे’ थे। न तुम्हारे कोई चाँद सा बेटा था और न अप्सराओं को मात करने वाली कोई बीबी ही थी, उस वक्त तुम स्वयं बादशाह थे।

🔷 क्या तुमने नहीं पढ़ा कि बुद्ध देव के जब पुत्र हुआ, तो उन्होंने एक ठंडी साँस ली और कहा- ‘आज एक बंधन और बढ़ गया।’ वे उसी रात अपनी बीबी और बच्चे को छोड़कर जंगल की ओर चल दिये।

🔶 याद रखो जिस चीज के आने पर खुशी होती है, उस चीज के जाने पर तुम्हें जरूर रंज होगा। अगर तुम अपनी ऐसी जिन्दगी बना लो कि न तुमको किसी के आने पर खुशी हो, तो तुमको किसी के जाने पर रंज भी न होगा। यही खुशी हासिल करने की कुँजी है। विद्वानों का कथन है-

🔷 जो मनुष्य अपने आपको सब में और सबको अपने आप में देखता है, उसको न आने की खुशी, न जाने का रंज होता है।

🔶 अगर तुम घास के तिनके की तरह केवल अपना कर्त्तव्य पूरा करते रहो- माने तूफान में हवा के साथ मिलकर झोंके खाओ, माने वक्त मुसीबत भी खुशी से झूमते रहो।

🔷 बरसात के वक्त अपने बाजू फैलाकर आसमान को दुआएं दो। गरीब घसियारे के लिए अपने नाजुक बदन को कलम कराने के लिए तैयार रहो।

🔶 बेजुबान जानवरों को- भूख से तड़पते हुए गरीब पशुओं को अपनी जात से खाना पहुँचाओ तो मैं यकीन दिलाता हूँ कि तुम्हें कभी रंज न होगा कभी तकलीफ न होगी। सुबह उठने पर शबनम (ओंस) तुम्हारा मुँह धुलायेगी। जमीन तुम्हारे लिए खाने का प्रबन्ध कर देगी। तुम हमेशा हरे-भरे रहोगे। जमाना तुम्हें देखकर खुश होगा, बल्कि तुम्हारे न रहने पर या मुरझा जाने पर दुनिया तुम्हारे लिए मातम करेगी।

🔷 वह बेवकूफ है। जो दुनिया और दुनिया की चीजों के लिए रोता है हालाँकि वह जानता है कि इन दोनों में से न मैं किसी चीज को अपने साथ लाया था और न किसी चीज को अपने साथ ले जाऊँगा।

Tuesday 26 September 2017

साधना कब प्रारंभ करें

🔴  एक अवधूत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठा  था,  एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे है अवधूत ने कहा, "इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर  रहा हूँ."
                 
🔵 व्यक्ति ने कहा यह कैसे हो सकता है. नदी तो बहती हीं रहती हैं सारा पानी अगर बह भी जाए तो आपको क्या करना है।

🔴  अवधूत ने कहा मुझे दुसरे पार जाना है. सारा जल बह जाए  तो मै चल कर उस पार जाऊगा।

🔵 उस व्यक्ति ने गुस्से में कहा, आप पागलों और नासमझों जैसी बात कर रहे है, ऐसा तो हो ही नही सकता।

🔴  तव अवधूत ने मुस्कराते हुए कहा यह काम तुम लोगों को देख कर ही  सीखा  है. तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाये, कुछ शांति मिले, फलाना काम खत्म हो जाए, तो सेवा, साधन -भजन, सत्कार्य करेगें. जीवन भी तो नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करू।

🔵 सारः जो करना है आज ही अभी करो बढते जाओ चलते जाओ।

Tuesday 5 September 2017

क्रोध पर नियंत्रण

एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता, प्यास से उसका गला सुखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।

🔵 वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।

🔴 राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है। काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिरा के वापस सामने बैठ गया ।

🔵 अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा अब ये जब वापस आएगा तो में इसे खत्म कर दूंगा। इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है।

🔴 काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।

🔵 तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द-बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।

🔴 क्योकि उस डाली पर एक भयानक अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।

🔵 राजा के मन में पश्चॉत्ताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु ! यह मैंने क्या कर दिया, जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया। काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता, अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती।

🔴 हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया?? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है। मित्रो इसीलिये कहा गया हैं कि क्षमा औऱ दया धारण करने वाला ही सच्चा वीर होता है क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ-साथ अपने खुद का ही अधिक नुकसान कर देता है।

🔵 क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पाश्चाताप से होता है। इसलिए हमें हमेशा अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिये।

जीवन के उतार-चढावों पर उद्विग्न न हों।

यों तो जरा−जरा सी बात पर दुःखी होना बहुत से लोगों का स्वभाव होता है। यह स्वभाव किसी प्रकार भी वाँछनीय नहीं माना जा सकता। मनुष्य आनन्दस्वरूप है, उसका दुःखी होना क्या? उसे तो हर समय प्रसन्न, आनन्दित तथा उत्साहित ही रहना चाहिए। यही उसके लिए वाँछनीय है और यही जीवन की विशेषता। इस स्वभाव के अतिरिक्त लोग तब तो अवश्य ही दुःखी रहने लगते हैं, जब वे किसी उच्च स्थिति से नीचे उतर जाते हैं। इस दशा में वे अपने दुःखावेग पर नियन्त्रण नहीं कर पाते और फूल जैसे जीवन में ज्वाला का समावेश कर लेते हैं। जब कि उस उतार की स्थिति में भी दुःख−शोक की उपासना करना अनुचित है।
 

 उतार की स्थिति में दुःखी होना तभी ठीक है। जब वह उतार पतन के रूप में घटित हुआ हो। और यदि उसका घटना नियति में नियम ‘परिवर्तन’, ईश्वर की इच्छा, प्रारब्ध अथवा दुष्टों की दुरभिसंधियों के कारण हुआ हो तो कदापि दुःखी न होना चाहिए। तब तो दुःख के स्थान पर सावधानी को ही आश्रित करना चाहिए। पतन के रूप में उतार का घटित होना अवश्य खेद और दुःख की बात है। उदाहरण के लिए किसी परीक्षा को ले लीजिए, यदि परीक्षार्थी ने अपने अध्ययन, अध्यवसाय और परिश्रम में कोताही रखी है। समय पर नहीं जागा, आवश्यक पाठ आत्मसात नहीं किये, गुरुओं के निर्देश और परामर्शों पर ध्यान नहीं दिया। अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं किया और असावधानी तथा लापरवाही बरती है तो उसका फेल हो जाना खेद, दुःख व आत्महीनता का विषय है। उसे अपने इस किए का दुःख रूपी दण्ड मिलना ही चाहिए। वह इसी योग्य था। उसके साथ न किसी को सहानुभूति होनी चाहिए और न उसे सान्त्वना और आश्वासन का सहयोग ही मिलना चाहिए।
 

 किन्तु उस पुरुषार्थी विद्यार्थी को दुःख से अभिभूत होना उचित नहीं, जिसने पूरी मेहनत की है और पास होने की सारी शर्तों का निर्वाह किया है। बात अवश्य कुछ उल्टी लगती है कि जिसने परिश्रम नहीं किया, वह तो अनुत्तीर्ण होने पर दुःखी हो और जिसने खून−पसीना एक करके तैयारी की वह असफल हो जाने पर दुःखी न हो। किन्तु हितकर नीति यही है कि योग्य विद्यार्थी को असफलता पर दुःखी नहीं होना चाहिए। इसलिए कि उसके सामने उसका उज्ज्वल भविष्य होता है। दुःख और शोक से अभिभूत हो जाने पर वह निराशा के परदे में छिप सकता है।

Friday 18 August 2017

यह भी तो नही रहेगा

🔵 एक फकीर अरब मे हज के लिए पैदल निकला। रात हो जाने पर एक गांव मे शाकिर नामक व्यक्ति के दरवाजे पर रूका। शाकिर ने फकीर की खूब सेवा किया। दूसरे दिन शाकिर ने बहुत सारे उपहार दे कर बिदा किया। फकीर ने दुआ किया -"खुदा करे तू दिनो दिन बढता ही रहे।"

🔴 सुन कर शाकिर हंस पड़ा और कहा -"अरे फकीर! जो है यह भी नही रहने वाला है"। यह सुनकर फकीर चला गया ।

🔵 दो वर्ष बाद फकीर फिर शाकिर के घर गया और देखा कि शाकिर का सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि शाकिर अब बगल के गांव मे एक जमींदार के वहा नौकरी करता है। फकीर शाकिर से मिलने गया। शाकिर ने अभाव मे भी फकीर का स्वागत किया। झोपड़ी मे फटी चटाई पर बिठाया ।खाने के लिए सूखी रोटी दिया।

🔴 दूसरे दिन जाते समय फकीर की आखो मे आसू थे। फकीर कहने लगा अल्लाह ये तूने क्या क्रिया?

🔵 शाकिर पुनः हस पड़ा  और बोला -"फकीर तू क्यो दुखी हो रहा है? महापुरुषो ने कहा है -"खुदा  इन्सान को जिस हाल मे रखे  खुदा को धन्यावाद दे कर खुश रहना चाहिए।समय सदा बदलता रहता है और सुनो यह भी नही रहने वाला है"।

🔴 फकीर सोचने लगा -"मै तो केवल भेस से फकीर हू सच्चा फकीर तो शाकिर तू ही है।"

🔵 दो वर्ष बाद फकीर फिर यात्रा पर निकला और शाकिर से मिला तो देख कर हैरान रह गया कि शाकिर तो अब जमींदारो का जमींदार बन गया है। मालूम हुआ कि हमदाद जिसके वहा शाकिर नौकरी करता था वह संतान विहीन था मरते समय अपनी सारी जायदाद शाकिर को दे गया।

🔴 फकीर ने शाकिर से कहा - "अच्छा हुआ वो जमाना गुजर गया। अल्लाह करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

🔵 यह सुनकर शाकिर फिर हंस पड़ा  और कहने लगा - "फकीर!  अभी भी तेरी नादानी बनी हुई है"।

🔴 फकीर ने पूछा क्या यह भी नही रहने वाला है? शाकिर ने उत्तर दिया -"या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नही है। और अगर शाश्वत कुछ है तो वह हैं परमात्मा और इसका अंश आत्मा। "फकीर चला गया ।

🔵 डेढ साल बाद लौटता है तो देखता है कि शाकिर का महल तो है किन्तु कबूतर उसमे गुटरगू कर रहे है। शाकिर कब्रिस्तान मे सो रहा है। बेटियां अपने-अपने घर चली गई है।बूढी पत्नी कोने मे पड़ी है ।

"कह रहा है आसमा यह समा कुछ भी नही।
रो रही है शबनमे नौरंगे जहाँ कुछ भी नही।
जिनके महतो मे हजारो रंग के जलते थे फानूस।
झाड उनके कब्र पर बाकी निशा कुछ भी नही।"

🔵 फकीर सोचता है -" अरे इन्सान ! तू किस बात का  अभिमान करता है? क्यो इतराता है? यहा कुछ भी टिकने वाला नही है दुख या सुख कुछ भी सदा नही रहता।

🔴 तू सोचता है - "पडोसी मुसीबत मे है और मै मौज मे हू। लेकिन सुन न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा।

"सच्चे इन्सान है वे जो हर हाल मे खुश रहते है।
मिल गया माल तो उस माल मे खुश रहते है।
हो गये बेहाल तो उस हाल मे खुश रहते है।"

🔵 धन्य है शाकिर तेरा सत्संग  और धन्य है तुम्हारे सद्गुरु। मै तो झूठा फकीर हू। असली फकीर तो तेरी जिन्दगी है।

🔴 अब मै तेरी कब्र देखना चाहता हू। कुछ फूल चढा कर दुआ तो माग लू।

🔵 फकीर कब्र पर जाता है तो देखता है कि शाकिर ने अपनी कब्र पर लिखवा रखा है-

🌹 "आखिर यह भी तो नही रहेगा"

दया और सौम्यता

🔵 एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था।उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था।

🔴 एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?

🔵 उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे ?

🔴 जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।

🔵 तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे?

🔴 जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये।

🔵 लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा ?जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया।
अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ?

🔴 जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।

🔵 अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ।

🔴 संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ?

🔵 लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि ,मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।

🔴 संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।

🔵 लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।

🔴 जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा -
बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ?तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

🔵 सीख - संत की उँची सोच-समझ ने लडके का जीवन बदल दिया

Wednesday 16 August 2017

जीवन के लिए खर्च

पत्नी ने कहा - आज धोने के लिए ज्यादा कपड़े मत निकालना…

🔴 पति- क्यों ??

🔵 उसने कहा -अपनी काम वाली बाई दो दिन नहीं आएगी…

🔴 पति- क्यों??

🔵 पत्नी- गणपति के लिए अपने नाती से मिलने बेटी के यहाँ जा रही है, बोली थी…

🔴 पति- ठीक है, अधिक कपड़े नहीं निकालता…

🔵 पत्नी- और हाँ गणपति के लिए पाँच सौ रुपए दे दूँ उसे ? त्यौहार का बोनस..

🔴 पति- क्यों? अभी दिवाली आ ही रही है, तब दे देंगे…

🔵 पत्नी- अरे नहीं बाबा!! गरीब है बेचारी, बेटी-नाती के यहाँ जा रही है, तो उसे भी अच्छा लगेगा… और इस महँगाई के दौर में उसकी पगार से त्यौहार कैसे मनाएगी बेचारी!!

🔴 पति- तुम भी ना… जरूरत से ज्यादा ही भावुक हो जाती हो…

🔵 पत्नी- अरे नहीं… चिंता मत करो… मैं आज का पिज्जा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ… खामख्वाह पाँच सौ रूपए उड़ जाएँगे, बासी पाव के उन आठ टुकड़ों के पीछे…

🔴 पति- वा, वा… क्या कहने!! हमारे मुँह से पिज्जा छीनकर बाई की थाली में??

🔵 तीन दिन बाद… पोंछा लगाती हुई कामवाली बाई से पति ने पूछा...

🔴 पति- क्या बाई?, कैसी रही छुट्टी?

🔵 बाई- बहुत बढ़िया हुई साहब… दीदी ने पाँच सौ रूपए दिए थे ना.. त्यौहार का बोनस..

🔴 पति- तो जा आई बेटी के यहाँ…मिल ली अपने नाती से…?

🔵 बाई- हाँ साब… मजा आया, दो दिन में 500 रूपए खर्च कर दिए…

🔴 पति- अच्छा ! मतलब क्या किया 500 रूपए का??

🔵 बाई- नाती के लिए 150 रूपए का शर्ट, 40 रूपए की गुड़िया, बेटी को 50 रूपए के पेढे लिए, 50 रूपए के पेढे मंदिर में प्रसाद चढ़ाया, 60 रूपए किराए के लग गए.. 25 रूपए की चूड़ियाँ बेटी के लिए और जमाई के लिए 50 रूपए का बेल्ट लिया अच्छा सा… बचे हुए 75 रूपए नाती को दे दिए कॉपी-पेन्सिल खरीदने के लिए… झाड़ू-पोंछा करते हुए पूरा हिसाब उसकी ज़बान पर रटा हुआ था…

🔴 पति- 500 रूपए में इतना कुछ???

🔵 वह आश्चर्य से मन ही मन विचार करने लगा...उसकी आँखों के सामने आठ टुकड़े किया हुआ बड़ा सा पिज्ज़ा घूमने लगा, एक-एक टुकड़ा उसके दिमाग में हथौड़ा मारने लगा… अपने एक पिज्जा के खर्च की तुलना वह कामवाली बाई के त्यौहारी खर्च से करने लगा… पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का, दूसरा टुकड़ा पेढे का, तीसरा टुकड़ा मंदिर का प्रसाद, चौथा किराए का, पाँचवाँ गुड़िया का, छठवां टुकड़ा चूडियों का, सातवाँ जमाई के बेल्ट का और आठवाँ टुकड़ा बच्चे की कॉपी-पेन्सिल का..आज तक उसने हमेशा पिज्जा की एक ही बाजू देखी थी, कभी पलटकर नहीं देखा था कि पिज्जा पीछे से कैसा दिखता है… लेकिन आज कामवाली बाई ने उसे पिज्जा की दूसरी बाजू दिखा दी थी… पिज्जा के आठ टुकड़े उसे जीवन का अर्थ समझा गए थे…

🔴 “जीवन के लिए खर्च” या “खर्च के लिए जीवन” का नवीन अर्थ एक झटके में उसे समझ आ गया…l

Wednesday 9 August 2017

कर्म योग द्वारा सर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं


🔵 यदि तुम व्यापारी या दुकानदार हो तो यह समझो कि मेरा यह व्यापार धन कमाने के लिये नहीं है श्री भगवान की पूजा करने के लिये है। लोभवृत्ति से जिन जिन के साथ तुम्हारा व्यवहार हो इन्हें लाभ पहुंचाते हुये अपनी आजीविका चलाने मात्र के लिये व्यापार करो। याद रखो- व्यापार में पाप लोभ से ही होता है। लोभ छोड़ दोगे तो किसी प्रकार से भी दूसरे का हक मारने की चेष्टा नहीं होगी।

🔴 वस्तुओं का तोल-नाप या गिनती कभी ज्यादा लेना और कम देना बढ़िया के बदले घटिया देना और घटिया के बदले बढ़िया लेना आढ़ती दलाली वगैरह हमें शर्त से ज्यादा लेना आदि व्यापारिक चोरियाँ लोभ से ही होती हैं। परन्तु केवल लोभ ही नहीं छोड़ना है, दूसरों के हित की भी चेष्टा करनी है। जैसे लोभी मनुष्य अपनी दुकान पर किसी ग्राहक के आने पर उसका बनावटी आदर सत्कार करके उससे ठगने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही तुम्हें कपट छोड़कर ग्राहक को प्रेम के साथ सरल भाषा में सच्ची बात समझा कर उसका हित देखना चाहिए।

🔵 यह समझना चाहिये कि इस ग्राहक के रूप में साक्षात् परमात्मा ही आ गये हैं। इनकी जो कुछ सेवा मुझसे बन पड़े वही थोड़ी है। यों समझ कर व्यापार करोगे तो तुम श्री भगवान के कृपा पात्र बन जाओगे और यह व्यापार ही तुम्हारे लिए भगवन् प्राप्ति का साधन बन जायेगा।

🔴 यदि तुम दलाल हो तो व्यापारियों को झूँठी सच्ची बातें समझाकर अपनी दलाली के लोभ से किसी को ठगाओ मत। दोनों के रूप में ईश्वर के दर्शन कर सत्य और सरल वाणी से दोनों की सेवा करने की चेष्टा करो। याद रखो! अभी नहीं तो आगे चलकर तुम्हारी इस वृत्ति का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ेगा यदि न भी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है, तुम्हारी मुक्ति का साधन तो हो ही जायेगा।

Thursday 3 August 2017

सत्य केवल एक है

🔴सत्य केवल एक है, अनेक नहीं। हाँ, उस तक पहुँचने के द्वार जरूर अनेक हो सकते हैं। लेकिन जो द्वार के आकर्षण में उलझकर उसी के मोह में पड़ जाता है, वह द्वार पर ही ठहर जाता है। ऐसे में सत्य की समीपता उसके लिए कभी भी सुलभ नहीं होती है।

  🔵हालाँकि सत्य हर कहीं है। जो कुछ भी है सभी कुछ सत्य है। उसकी अभिव्यक्तियाँ अनंत हैं। वह तो सौंदर्य की ही भाँति है। सौंदर्य अगणित रूपों में प्रकट होता है, पर इससे क्या वह भिन्न-भिन्न हो जाता है। जो रात्रि में तारों में झलकता है, जो सूर्य में प्रकाश बन चमकता है, जो फूलों में सुगंध बनकर महकता है, जो हरे-भरे पहाड़ों से झरनों के रूप में झरता है, जो हृदय में भाव बन उमगता है और जो आँखों में प्रेम बनकर प्रकट होता है, वह भला क्या अलग-अलग है? हाँ, इनके रूप अलग-अलग हो सकते हैं। पर इन सभी में जो एकता स्थापित है, जो सबका सार है, वह तो एक ही है।

  🔴किंतु जो रूप पर मोहित हो जाता है, जो गंध और दृश्य की मादकता में स्वयं को भुला देता है वह तो बस रूप पर ही ठहर जाता है। वह उसके सारतत्त्व, उसकी आत्मा को नहीं जान पाता। ठीक भी है, भला जो सुंदर पर रुक गया हो, वह सौंदर्य तक पहुँचेगा भी कैसे?

  🔵ऐसे ही, जो शब्दों से बँध जाते हैं, उन्हें तो सत्य से वंचित रहना ही पड़ेगा। अब ये शब्द संस्कृत के हों या फिर अरबी के, हिब्रू के हों या फिर लैटिन के, शब्द तो शब्द ही हैं। सत्य उनकी लिखावट में नहीं, उनमें निहित भावों में है। जो भावों में पैठते हैं और गहराई से पैठते हैं, वे सत्य पा ही लेते हैं। वे जान लेते हैं कि अपने साररूप में हर कहीं एक ही सत्य विद्यमान है। जो इस सचाई को जानते हैं, वे राह के अवरोधों को भी सीढ़ियाँ बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए सीढ़ियाँ भी अवरोध बन जाती हैं।

Tuesday 1 August 2017

स्वतंत्रता का अर्जन

  🔴 परतंत्रता जन्मजात है। वह तो प्रकृतिप्रदत्त है। हममें से किसी को उसे अर्जित नहीं करना होता। होश सँभालते ही मनुष्य पाता है कि वह परतंत्र है। वासना की जंजीरों के साथ ही उसका इस जगत् में आना हुआ है। अगणित सूक्ष्म बंधन उसे बाँधे हुए हैं, इन बंधनों की पीड़ा हर पल उसे सताती है। परतंत्रता में भला कोई सुखी भी कैसे हो सकता है।

  🔵 सुखी होने के लिए तो स्वतंत्रता चाहिए। यह स्वतंत्रता किसी को भी जन्म के साथ नहीं मिलती। इसे तो अर्जित करना होता है और यह उसे ही उपलब्ध होती है,जो उसके लिए श्रम एवं संघर्ष करता है। स्वतंत्रता के लिए मूल्य देना होता है। हो भी क्यों नहीं? जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह निर्मूल्य नहीं मिल सकता।

  🔴 ध्यान रहे, प्रकृति से मिली स्वतंत्रता दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो है स्वतंत्रता को अर्जित न कर पाना। दासता में जन्म लेना बुरा नहीं है, पर दासता ढोते हुए, दास स्थिति में ही मर जाना अवश्य बुरा है। अंतस् की स्वतंत्रता को पाए बिना जीवन में कुछ भी सार्थकता और कृतार्थता तक नहीं पहुँचता है।

  🔵 वासनाओं की अँधेरी काल-कोठरियों की कैद में जो बंद हैं, जिन्होंने विवेक का निरभ्र व मुक्त आकाश नहीं जाना है, समझना यही चाहिए कि उन्होंने जीवन तो पाया, पर वे जीवन को जानने से वंचित रह गए। उन्होंने न तो खुली हवा में साँस लेने का सुख पाया, न ही अनंत आकाश में चाँद-सितारों की जगमगाहट देखी। सुबह के सूरज की उजास का भी वे अनुभव नहीं कर पाए, क्योंकि ये सारे अनुभव स्वतंत्रता के हैं।

  🔴 पिंजड़ों में कैद पक्षियों और वासनाओं की कैद में पड़ी आत्माओं के जीवन में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों ही स्वतंत्रता एवं स्वामित्व का आनंद नहीं पा सकते।
प्रभु को जानना है, तो हर मनुष्य को चाहिए कि वह स्वतंत्रता का अर्जन करे। जो परतंत्र, पराजित और दास हैं, प्रभु का राज्य उनके लिए नहीं है।

Saturday 8 July 2017

Ghee Rice

Ingredients
• Basmati Rice – 1 cup (heaped)
• Cashew nuts – 1 tbsp
• Green Chilies – 3-4
• Potato – 1 or 2
• Capsicum – 1
• French beans – 8
• Cauliflower – ½
• Carrots – 2
• Shelled peas – ¼ cup
• Coconut – ½ big
• Pure Ghee – 2 tbsp
• Oil – 1 tbsp
• Salt – as required
• Bay leaf – 1
• Cloves – 2 or 3
• Cardamoms – 2
• Cut coriander leaves – 1 ½ tbsp
Preparation
1. Wash and soak rice for 10 minutes.
2. Heat half a tsp. of ghee and fry the rice which is taken directly from water.
3. Fry till moisture is absorbed (for approximately 2 minutes). Cut vegetables into 2 inch long pieces. Slit green chilies into two.
4. Grate coconut, add water and grind to smooth paste. Strain and squeeze to get extract.
5. Add some more water and extract once again.
6. Add water, so that total extract is two cups.
7. Heat oil in pressure cooker and fry garam masala spices and green chilies.
8. When it turns transparent add vegetables and fry in a high flame till the vegetables becomes tender.
9. Add coconut extract. When it starts boiling add salt and rice.
10. Mix well and reduce flame. Pressure cook for 10 to 12 minutes.
11. Garnish with cut coriander leaves and fried cashew nuts and serve hot with kurma and raitha.
Serves
2 Persons.

Friday 7 July 2017

अपने आपकी समालोचना करो


🔵 जो कुछ हो, होने दो। तुम्हारे बारे में जो कहा जाए उसे कहने दो। तुम्हें ये सब बातें मृगतृष्णा के जल के समान असार लगनी चाहिए। यदि तुमने संसार का सच्चा त्याग किया है तो इन बातों से तुम्हें कैसे कष्ट पहुँच सकता है। अपने आपकी समालोचना में कुछ भी कसर मत रखना तभी वास्तविक उन्नति होगी।

🔴 प्रत्येक क्षण और अवसर का लाभ उठाओ। मार्ग लंबा है। समय वेग से निकला जा रहा है। अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ कार्य में लग जाओ, लक्ष्य तक पहुँचोगे।

🔵 किसी बात के लिए भी अपने को क्षुब्ध न करो। मनुष्य में नहीं, ईश्वर में विश्वास करो। वह तुम्हें रास्ता दिखाएगा और सन्मार्ग सुझाएगा। 


 Introspect

🔵 Whatever happens, let it happen. Whatever is said about you, let it be said. You should consider these things as illusory as a mirage. If you have really detached yourself from the world, then why should such things affect you? Focus on inspecting yourself thoroughly for weaknesses. Only then can you begin the process of growth.

🔴 Take advantage of every moment and every opportunity. Your path is very long, and time is very short. Concentrate your inner strength on reaching your goal.

🔵 Do not despair in any situation. Have faith not in the capacity of man, but in the capacity of God. God will show you the right path.

Thursday 29 June 2017

जीवन लक्ष

🔵 एक नौजवान को सड़क पर चलते समय एक रुपए का सिक्का गिरा हुआ मिला। चूंकि उसे पता नहीं था कि वो सिक्का किसका है, इसलिए उसने उसे रख लिया।  सिक्का मिलने से लड़का इतना खुश हुआ कि जब भी वो सड़क पर चलता, नीचे देखता जाता कि शायद कोई सिक्का पड़ा हुआ मिल जाए।

🔴 उसकी आयु धीरे-धीरे बढ़ती चली गई, लेकिन नीचे सड़क पर देखते हुए चलने की उसकी आदत नहीं छूटी। वृद्धावस्था आने पर एक दिन उसने वो सारे सिक्के निकाले जो उसे जीवन भर सड़कों पर पड़े हुए मिले थे। पूरी राशि पचास रुपए के लगभग थी। जब उसने यह बात अपने बच्चों को बताई तो उसकी बेटी ने कहा:-

🔵 "आपने अपना पूरा जीवन नीचे देखने में बिता दिया और केवल पचास रुपए ही कमाए। लेकिन इस दौरान आपने हजारों खूबसूरत सूर्योदय और सूर्यास्त, सैकड़ों आकर्षक इंद्रधनुष, मनमोहक पेड़-पौधे, सुंदर नीला आकाश और पास से गुजरते लोगों की मुस्कानें गंवा दीं। आपने वाकई जीवन को उसकी संपूर्ण सुंदरता में अनुभव नहीं किया।

🔴 हममें से कितने लोग ऐसी ही स्थिति में हैं। हो सकता है कि हम सड़क पर पड़े हुए पैसे न ढूंढते फिरते हों, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हम धन कमाने और संपत्ति एकत्रित करने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि जीवन के अन्य पहलुओं की उपेक्षा कर रहे हैं? इससे न केवल हम प्रकृति की सुंदरता और दूसरों के साथ अपने रिश्तों की मिठास से वंचित रह जाते हैं, बल्कि स्वयं को उपलब्ध सबसे बड़े खजाने-अपनी आध्यात्मिक संपत्ति को भी खो बैठते हैं।

🔵 आजीविका कमाने में कुछ गलत नहीं है। लेकिन जब पैसा कमाना हमारे लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण हो जाए कि हमारे स्वास्थ्य, हमारे परिवार और हमारी आध्यात्मिक तरक्की की उपेक्षा होने लगे, तो हमारा जीवन असंतुलित हो जाता है। हमें अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ अपनी आध्यात्मिक प्रगति की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमें शायद लगता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का मतलब है सारा समय ध्यानाभ्यास करते रहना, लेकिन सच तो यह है कि हमें उस क्षेत्र में भी असंतुलित नहीं हो जाना चाहिए।

🔴 अपनी प्राथमिकताएं तय करते समय हमें रोजाना कुछ समय आध्यात्मिक क्रिया को, कुछ समय निष्काम सेवा को, कुछ समय अपने परिवार को और कुछ समय अपनी नौकरी या व्यवसाय को देना चाहिए। ऐसा करने से हम देखेंगे कि हम इन सभी क्षेत्रों में उत्तम प्रदर्शन करेंगे और एक संतुष्टिपूर्ण जीवन जीते हुए अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त कर लेंगे। समय-समय पर यह देखना चाहिए कि हम अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो भी रहे हैं अथवा नहीं। हो सकता है कि हमें पता चले कि हम अपने करियर या अपने जीवन के आर्थिक पहलुओं की ओर इतना ज्यादा ध्यान दे रहे हैं कि परिवार, व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिक प्रगति की उपेक्षा हो रही है।

Monday 26 June 2017

रूपान्तरण कैसे हो

🔴 एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा- "गुरुदेव, आपने कहा था कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ, तो क्या धर्म से जीवन का रूपान्तरण नहीं होता है?"

🔵 गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बतलाया- "एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ।"(शिष्य चौंक गया पर फिर भी शिष्य उठ कर गया और लोटे में मदिरा लेकर आया।) गुरुदेव ने शिष्य से कहा- "अब इससे कुल्ला करो।"(अपने शिष्य को समझाने के लिए गुरु को हर प्रकार के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। मदिरा को लोटे में भरकर शिष्य कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।)

🔴 गुरुदेव ने पुछा- "बताओ तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं?"शिष्य ने कहा- "गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

🔵 इस पर संत ने कहा- "इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर पड़ता।

🔴 जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले।

🔵 धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।।"

समस्याओं का समाधान दृष्टिकोण के परिष्कार पर निर्भर


🔵 कोई आदमी अच्छा है या बुरा? यह उसकी आदतों का स्तर देखकर पता चलता है। ये आदतें कहीं बाहर से आकर नहीं चिपटतीं। मनुष्य की विचारणा और क्रिया ही दीर्घकालीन अभ्यास से स्वभाव का अंग बन जाती है।

🔴 विख्यात मनोविज्ञान वेत्ता विलियम जेम्स ने आदतों का विश्लेषण करते हुए एक स्थल पर लिखा है कि किसी प्रक्रिया की बार-बार आवृत्ति से हमारे मस्तिष्क में एक मनोवैज्ञानिक खाँचा बन जाता है। उस कार्य अथवा विचार की आवृत्ति उस खाँचे को और गहरी करती रहती है। यह खाँचा जितना गहरा होता जाता है, मन को उससे विरत करना उतना ही कठिन लगने लगता है।

🔵 आदतों की उत्कृष्टता-निकृष्टता ही जीवन में उत्थान-पतन की परिस्थितियाँ रचा करती हैं। अच्छी आदतें अन्तरंग सहयोग की तरह हर जगह अनुकूलता प्रदान करती हैं। इसके विपरीत बुरी आदतें हमेशा अपने पालक के अनगढ़पन की चुगली करती फिरती हैं। बने बनाए कामों तथा मधुर सम्बन्धों में खटाई डाल देना इस दुष्प्रवृत्ति का प्रिय व्यसन है।

🔴 कुछ बुरी आदतें स्वभाव में जड़ जमाकर इतनी पक्की हो जाती हैं कि उनके दुष्परिणाम भुगतने वाला भी उससे अनभिज्ञ बना रहता है। उदाहरण के लिए, जो दाँतों से नाखून काटता रहता है- चाहे किसी रूप में- आमतौर पर ‘नर्वस’ समझा जाता है। जो सदा देर से कहीं पहुँचता हो, वह लोगों की नजर में स्वार्थी और दूसरों का न ख्याल करने वाला होता है। टालमटोल करने वाला व्यक्ति अविश्वस्त माना जाता है, उसे कोई दायित्व वाला काम नहीं सौंपा जाता। यदि प्रयास किया जाय तो इन प्रवृत्तियों से मुक्ति भी पायी जा सकती है। अपने चिन्तन एवं व्यवहार में दैनन्दिन स्वयमेव समीक्षा करते रहने से यह दुष्कर लगने वाला कार्य भी सम्भव हो सकता है।

Sunday 25 June 2017

दूसरोंके पाप-पुण्य का निर्णय करनेवाले हम कौन होते हैं

एक संन्यासीकी कुटीके सामने ही एक बहनका मकान था । वह बहुत रूपवती थी, पर रास्ता भूली हुई थी । सहरके धनी-मानी घरोंके व्यक्ति उसके यहाँ आते रहते थे । जब कोई व्यक्ति उस बहनके पास आता,

 *संन्यासी उसके नामका एक पत्थर अपनी कुटीके सामने रख देता । धीरे-धीरे पत्थरोंका ढेर जमा हो गया । एक दिन जब वह पथ भूली हुई बहन घरसे बाहर निकली, तब अचानक उसने अपने घरके सामने पत्थरोंका ढेर देखा । इस सम्बन्धमें उसने संन्यासीसे पूछा । संन्यासीने कहा – ‘यह तुम्हारे दुष्कर्मोंका ढेर है ! एक दिन ये ही पत्थर तुम्हारे गलेमें बँधकर तुमेह नरकमें ले जायँगे ।‘ पथ भूली हुई बहनको संन्यासीकी बात सुनकर और सामने पत्थरोंके बड़े ढेरको देखकर अपने कृत्योंपर बड़ी ग्लानि हुई और तत्काल वह वहीं गिरकर मर गयी । थोड़े दिनोंके बाद संन्यासीकी भी मृत्यु हो गयी । मरनेके बाद वह बहन स्वर्गमें गयी और संन्यासी नरकमें ।

 *संन्यासीने यमराजसे पूछा – ‘मैं नित्य धर्म-भजनमें अपना दिन बिताया करता था, जिसके बदलेमें मुझे नरक मिला और वह बहन, जो दिन रात पापकर्ममें लगी रहती थी, उसे स्वर्ग मिला, इसका कारण क्या है ?

 *यमराजने उत्तर दिया –                 ‘आप रोज दूसरोंके पापोंकी गणनामें लगे रहते थे, इसलिये आपको नरक दिया गया और उस बहनने अपने पापोंका इतना बड़ा प्रायश्चित किया कि उसने अपने आपको भी दे दिया. इसलिये उसे स्वर्ग मिला ।

 *दूसरोंके पाप-पुण्यका निर्णय करनेवाले आप कौन होते हैं ? आपको केवल इतना अधिकार है कि अपने पापोंकी आलोचना करें, दूसरोंकी नहीं ।

         नारायण नारायण

Friday 23 June 2017

आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए


🔵 जो लोग यह समझते हैं कि वे ईर्ष्या की कुत्सित भावना को मन में छिपा कर रख सकते हैं और मानते हैं कि दूसरों व्यक्ति उसे जान न सकेगा। वे बड़ी भूल करते हैं। प्रथम तो यह भावना छिप ही नहीं सकती, किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाती है। दूसरे दुराचार और छिपाने की भावना मनोविज्ञान की दृष्टि से अनेक मानसिक रोगों की जननी है। कितने ही लोगों में विक्षिप्त जैसे व्यवहारों का कारण ईर्ष्याजन्य मानसिक ग्रन्थि होती है। ईर्ष्या मन के भीतर ही भीतर अनेक प्रकार के अप्रिय कार्य करती रहती है।

🔴 मनुष्य का जीवन केवल उन्हीं अनुभवों, विचार, मनोभावनाओं संकल्पों का परिणाम नहीं जो स्मृति के पटल पर है। प्रत्युत गुप्त मन में छिपे हुए अनेक संस्कार और अनुभव जो हमें खुले तौर पर स्मरण भी नहीं हैं, वे भी हमारे व्यक्तित्व को बनाते हैं। फ्राँस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वर्गसाँ ने मनुष्य के जीवन विकास का उपर्युक्त सिद्धान्त माना है। ईर्ष्या, क्रोध, काम, भाव, द्वेष, चिंता, भय, दुर्व्यवहार का प्रत्येक अनुभव अपना कुछ संस्कार हमारे अंतर्मन पर अवश्य छोड़ जाता है। ये संस्कार और अनुभव सदैव सक्रिय और पनपने वाले कीटाणु हैं। इन्हीं के ऊपर नवजीवन के निर्माण का कार्य चला करता है।

🔵 ईर्ष्या के विकार अंतर्मन में बैठ जाने पर आसानी से नहीं जाते। उससे स्वार्थ और अहंकार तीव्र होकर सुप्त और जागृत भावनाओं में संघर्ष और द्वन्द्व होने लगता है। निद्रा-नाश, घबराहट, प्रतिशोध लेने की भावना, हानि पहुँचाने के अवसर की प्रतीक्षा देखना, विमनस्कता इत्यादि मानसिक व्यथाएं ईर्ष्यापूर्ण मानसिक स्थिति की द्योतक है। यदि यह विकार बहुत तेज हुआ तो मन पर एक अव्यक्त चिंता हर समय बनी रहती है जल, अन्न, व्यायाम, विश्राम का ध्यान नहीं रहता, शयन समय घात प्रतिघात का संघर्ष और अव्यक्त की उद्भूत वासनाएं आकर विश्राम नहीं लेने देतीं। अतः मनुष्य की पाचनेन्द्रिय बिगड़ जाती है, रुधिर की गति में रुकावट होने लगती है, शारीरिक व्याधियाँ भी फूट पड़ती हैं। सम्पूर्ण शरीर में व्यवधान उपस्थित होने से मस्तिष्क का पोषण उचित रीति से नहीं हो पाता।

Thursday 22 June 2017

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

एक बार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा भोज की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसे देखते ही अचानक उनके मन में विचार आया कि कुछ ऐसा किया जाए ताकि इस व्यापारी की सारी संपत्ति छीनकर राजकोष में जमा कर दी जाए। व्यापारी जब तक वहां रहा भोज का मन रह रहकर उसकी संपत्ति को हड़प लेने का करता। कुछ देर बाद व्यापारी चला गया। उसके जाने के बाद राजा को अपने राज्य के ही एक निवासी के लिए आए ऐसे विचारों के लिए बड़ा खेद होने लगा।

🔴 राजा भोज ने सोचा कि मैं तो प्रजा के साथ न्यायप्रिय रहता हूं। आज मेरे मन में ऐसा कलुषित विचार क्यों आया? उन्होंने अपने मंत्री से सारी बात बताकर समाधान पूछा। मन्त्री ने कहा- इसका उत्तर देने के लिए आप मुझे कुछ समय दें। राजा मान गए।

🔵 मंत्री विलक्षण बुद्धि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाँठने पहुंचा। व्यापारी से मित्रता करने के बाद उसने पूछा- मित्र तुम चिन्तित क्यों हो? भारी मुनाफे वाले चन्दन का व्यापार करते हो, फिर चिंता कैसी?

🔴 व्यापारी बोला- मेरे पास उत्तम कोटि के चंदन का बड़ा भंडार जमा हो गया है। चंदन से भरी गाडियां लेकर अनेक शहरों के चक्कर लगाए पर नहीं बिक रहा है। बहुत धन इसमें फंसा पडा है। अब नुकसान से बचने का कोई उपाय नहीं है।

🔵 व्यापारी की बातें सुनकर मंत्री ने पूछा- क्या हानि से बचने का कोई उपाय नहीं? व्यापारी हंसकर कहने लगा- अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाए तो उनके दाह-संस्कार के लिए सारा चन्दन बिक सकता है। अब तो यही अंतिम मार्ग दिखता है।

🔴 व्यापारी की इस बात से मंत्री को राजा के उस प्रश्न का उत्तर मिल चुका था जो उन्होंने व्यापारी के संदर्भ में पूछा था। मंत्री ने कहा- तुम आज से प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए चालीस किलो चन्दन राजरसोई भेज दिया करो। पैसे उसी समय मिल जाएंगे।

🔵 व्यापारी यह सुनकर बड़ा खुश हुआ। प्रतिदिन और नकद चंदन बिक्री से तो उसकी समस्या ही दूर हो जाने वाली थी। वह मन ही मन राजा के दीर्घायु होने की कामना करने लगा ताकि राजा की रसोई के लिए चंदन लंबे समय तक बेचता रहे।

🔴 एक दिन राजा अपनी सभा में बैठे थे। वह व्यापारी दोबारा राजा के दर्शनों को वहां आया। उसे देखकर राजा के मन में विचार आया कि यह कितना आकर्षक व्यक्ति है। इसे कुछ पुरस्कार स्वरूप अवश्य दिया जाना चाहिए।

🔵 राजा ने मंत्री से कहा- यह व्यापारी पहली बार आया था तो उस दिन मेरे मन में कुछ बुरे भाव आए थे और मैंने तुमसे प्रश्न किया था। आज इसे देखकर मेरे मन के भाव बदल गए। इसे दूसरी बार देखकर मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

🔴 मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा- महाराज! मैं आपके दोनों ही प्रश्नों का उत्तर आज दे रहा हूं। यह जब पहली बार आया था तब यह आपकी मृत्यु की कामना रखता था। अब यह आपके लंबे जीवन की कामना करता रहता है। इसलिए आपके मन में इसके प्रति दो तरह की भावनाओं ने जन्म लिया है। जैसी भावना अपनी होती है, वैसा ही प्रतिबिम्ब दूसरे के मन पर पडने लगता है।

🔵 दोस्तों, यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। हम किसी व्यक्ति का मूल्यांकन कर रहे होते हैं तो उसके मन में उपजते भावों का उस मूल्यांकन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए जब भी किसी से मिलें तो एक सकारात्मक सोच के साथ ही मिलें। ताकि आपके शरीर से सकारात्मक ऊर्जा निकले और वह व्यक्ति उस सकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित होकर आसानी से आप के पक्ष में विचार करने के लिए प्रेरित हो सके क्योंकि जैसी दृष्टि होगी, वैसी सृष्टि होगी।

आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए


🔵 ईर्ष्या द्वारा हम मन ही मन दूसरे की उन्नति देखकर मानसिक दुःख का अनुभव किया करते हैं। अमुक मनुष्य ऊँचा उठता जा रहा है। हम यों ही पड़े हैं, उन्नति नहीं कर पा रहे हैं। फिर वह भी क्यों इस प्रकार उन्नति करे। उसका कुछ बुरा होना चाहिए। उसे कोई दुःख, रोग, शोक, कठिनाई, अवश्य पड़नी चाहिए। उसकी बुराई हमें करनी चाहिये। यह करने से उसे अमुक प्रकार से चोट लगेगी। इस प्रकार की विचारधारा से ईर्ष्या निरन्तर मन को क्षति पहुँचाती है। शुभ विचार करते, सद्प्रवृत्तियों तथा प्राणशक्ति का क्रमिक ह्रास होने लगता है।

🔴 ईर्ष्या से उन्मत्त हो मनुष्य धर्म, नीति, तथा विवेक का मार्ग त्याग देता है। उन्मादावस्था ही उसकी साधारण अवस्था हो जाती है और दूसरे लोगों की उन्माद और साधारण अवस्था उसे अपवाद के सदृश्य प्रतीत होती है। मस्तिष्क के ईर्ष्या नामक विकार से नाना प्रकार की विकृत मानसिक अवस्थाओं की उत्पत्ति होती है। भय, घबराहट, भ्रम ये सब मनुष्य की ईर्ष्या और विवेक बुद्धि के संघर्ष से उत्पन्न होते हैं।

🔵 प्रत्येक क्रिया से प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है। ईर्ष्या की क्रिया से मन में तथा बाह्य वातावरण में जो प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वे विषैली हैं। आपकी अपवित्र भावनाएं इर्द-गिर्द के वातावरण को दूषित कर देती हैं। वातावरण विषैला होने से समाज का अपकार होता है। जो ईर्ष्या की भावनाएँ आपने दूसरों के विषय में निर्धारित की है, संभव है, दूसरे भी प्रतिक्रिया स्वरूप वैसी ही धारणाएं आपके लिए मन में लायें।

Wednesday 21 June 2017

आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए

🔵 श्री रामचन्द्र शुक्र ने लिखा है- ‘स्पर्धा में दुःख का विषय होता है ‘मैंने उन्नति क्यों नहीं की? और ईर्ष्या में दुःख का विषय होता है- ‘उसने उन्नति क्यों की? स्पर्धा संसार में गुणी, प्रतिष्ठित और सुखी लोगों की संख्या में कुछ बढ़ती करना चाहती है, और ईर्ष्या कमी।

🔴 स्पर्धा व्यक्ति विशेष से होती है। ईर्ष्या उन्हीं-उन्हीं से होती है जिनके विषय में यह धारणा होती है। कि लोगों की दृष्टि हमारे हाथ उन पर अवश्य पड़ेगी या पड़ती होगी। ईर्ष्या के संचार के लिए पात्र के अतिरिक्त समान की भी आवश्यकता है। समाज में उच्च स्थिति, दूसरों के सन्मुख अपनी नाक ऊँची रखने के लिये ईर्ष्या का जन्म होता है। हमारे पास देखकर भी हम मनोविकार का संचार हो जाता है।

🔵 ईर्ष्या में क्रोध का भाव किसी न किसी प्रकार मिश्रित रहता है। ईर्ष्या के लिए भी कहा जाता है कि “अमुक व्यक्ति ईर्ष्या से जल रहा है।” साहित्य में ईर्ष्या को संचारी के रूप में समय-समय पर व्यक्त किया जाता है। पर क्रोध बिल्कुल जड़ क्रोध है। जिसके प्रति हम क्रोध करते हैं, उसके मानसिक उद्देश्य पर ध्यान नहीं देते। असम्पन्न ईर्ष्या वाला केवल अपने को नीचा समझे जाने से बचने के लिए आकुल रहता है। धनी व्यक्ति दूसरे को नीचा देखना चाहता है।

🔴 ईर्ष्या दूसरे की असंपन्नता की इच्छा की आपूर्ति से उत्पन्न होती है। यह अभिमान को जन्म देगी, अहंकार की अभिवृद्धि करेगी, और कुढ़न का ताना-बाना बुनेगी। अहंकार से आदत होकर हम दूसरे की भलाई न देख सकेंगे। अभिमान में मनुष्य को अपनी कमजोरियाँ नहीं दीखतीं। अभिमान का कारण अपने विषय में बहुत ऊँची मान्यता धारण कर लेना है। ईर्ष्या उसी की सहगामिनी है।

आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए

🔵 ईर्ष्या वह आन्तरिक अग्नि है जो अन्दर ही अन्दर दूसरे की उन्नति या बढ़ती देखकर हमें भस्मीभूत किया करती है। दूसरे की भलाई या सुख देखकर मन में जो एक प्रकार की पीड़ा का प्रादुर्भाव होता है, उसे ईर्ष्या कहते हैं।

🔴 ईर्ष्या एक संकर मनोविकार है जिसकी संप्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के संयोग या जोड़ से होती है। अपने आपको दूसरे से ऊँचा मानने की भावना अर्थात् मनुष्य का ‘अहं’ इसके साथ संयुक्त होता है।

🔵 ईर्ष्या मनुष्य की हीनत्व भावना से संयुक्त है। अपनी हीनत्व भावना ग्रन्थि के कारण हम किसी उद्देश्य या फल के लिए पूरा प्रयत्न तो कर पाते, उसकी उत्तेजित इच्छा करते रहते हैं। हम सोचते हैं-”क्या कहें हमारे पास अमुक वस्तु या चीज होती? हाय! वह चीज उसके पास तो है, हमारे पास नहीं? वह वस्तु यदि हमारे पास नहीं है तो उसके पास भी न रहे।’

🔴 ईर्ष्या व्यक्तिगत होती है। इसमें मनुष्य दूसरे की बुराई अपकर्ष, पतन, बुराई, त्रुटि की भावनाएँ मन में लाता है। स्पर्धा ईर्ष्या की पहली मानसिक अवस्था है। स्पर्धा की अवस्था में किसी सुख, ऐश्वर्य, गुण, या मान से किसी व्यक्ति विशेष को संपन्न देख अपनी त्रुटि पर दुःख होता है, फिर प्राप्ति की एक प्रकार की उद्वेग पूर्ण इच्छा उत्पन्न होती है। स्पर्धा वह वेगपूर्ण इच्छा या उत्तेजना है, जो दूसरे से अपने आपको बढ़ाने में हमें प्रेरणा देती है। स्पर्धा बुरी भावना नहीं। यह वस्तुगत है। इसमें हमें अपनी कमजोरियों पर दुःख होता है। हम आगे बढ़कर अपनी निर्बलता को दूर करना चाहते हैं।

Monday 19 June 2017

आशा मत छोड़िये

जब सब कुछ बुरा होते दिखे, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार नज़र आये, अपने भी पराये लगने लगें तो भी उम्मीद मत छोड़िये….आशा मत छोड़िये.......बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढें!
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - 
*क्षण और पलभर की आयु भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं के बदले कभी नहीं मिल सकती।*
*यदि यह व्यर्थ ही चली गई तो इससे बढ़कर और क्या हानि होगी?*
*नर देह के नष्ट हो जाने पर यदि पशु आदि की योनि मिली तो उसमें भली भांति अपने शरीर की भी सुधि नहीं रहती, परमार्थ की तो बात ही क्या है।*
*हा! वे क्षुधाक्षीण और थके होने पर भी निरन्तर बोझा ढोने वाले बैल, घोड़े, गधे, हाथी और भैंसे अपना कष्ट कुछ भी नहीं कह सकते।*
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
रात का समय था, चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था, नज़दीक ही एक कमरे में चार मोमबत्तियां जल रही थीं। एकांत पा कर आज वे एक दुसरे से दिल की बात कर रही थीं।

 पहली मोमबत्ती बोली, ” मैं शांति हूँ, पर मुझे लगता है अब इस दुनिया को मेरी ज़रुरत नहीं है, हर तरफ आपाधापी और लूट-मार मची हुई है, मैं यहाँ अब और नहीं रह सकती। …” और ऐसा कहते हुए, कुछ देर में वो मोमबत्ती बुझ गयी।

 दूसरी मोमबत्ती बोली, ” मैं विश्वास हूँ, और मुझे लगता है झूठ और फरेब के बीच मेरी भी यहाँ कोई ज़रुरत नहीं है, मैं भी यहाँ से जा रही हूँ …”, और दूसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।

 तीसरी मोमबत्ती भी दुखी होते हुए बोली,  मैं प्रेम हूँ, मेरे पास जलते रहने की ताकत है, पर आज हर कोई इतना व्यस्त है कि मेरे लिए किसी के पास वक्त ही नहीं, दूसरों से तो दूर लोग अपनों से भी प्रेम करना भूलते जा रहे हैं, मैं ये सब और नहीं सह सकती मैं भी इस दुनिया से जा रही हूँ…. और ऐसा कहते हुए तीसरी मोमबत्ती भी बुझ गयी।

 वो अभी बुझी ही थी कि एक मासूम बच्चा उस कमरे में दाखिल हुआ।

 मोमबत्तियों को बुझे देख वह घबरा गया, उसकी आँखों से आंसू टपकने लगे और वह रुंआसा होते हुए बोला, “अरे, तुम मोमबत्तियां जल क्यों नहीं रही, तुम्हे तो अंत तक जलना है! तुम इस तरह बीच में हमें कैसे छोड़ के जा सकती हो?”

 तभी चौथी मोमबत्ती बोली, ” प्यारे बच्चे घबराओ नहीं, मैं आशा हूँ और जब तक मैं जल रही हूँ हम बाकी मोमबत्तियों को फिर से जला सकते हैं। “

 यह सुन बच्चे की आँखें चमक उठीं, और उसने आशा के बल पे शांति, विश्वास, और प्रेम को फिर से प्रकाशित कर दिया।

 जब सबकुछ बुरा होते दिखे, चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार नज़र आये, अपने भी पराये लगने लगें तो भी उम्मीद मत छोड़िये….आशा मत छोड़िये, क्योंकि इसमें इतनी शक्ति है कि ये हर खोई हुई चीज आपको वापस दिल सकती है।

 अपनी आशा की मोमबत्ती को जलाये रखिये, बस अगर ये जलती रहेगी तो आप किसी भी और मोमबत्ती को प्रकाशित कर सकते हैं।

         नारायण नारायण
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय

उन्नति के पथ पर

केवल ख्याति पाना ही तो उन्नति नहीं है। ख्याति तो चोर, डाकू, बदमाश आदि भी प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी उन्नति से मनुष्यता को लाभ नहीं है। सात्विक तथा शुद्ध उन्नति ही संसार का भला कर सकती है। शुद्ध तथा दृढ़ संकल्प ही ऐसी उन्नति की पहली सीढ़ी है। और फिर उन्नति सभी के हृदयों में अंकुर रूप से विद्यमान है। सुविचारों और सुसंगति के पानी से यह अंकुर विशाल वृक्ष में परिणत हो जाता है। यह तो एक महोदधि है। मनुष्य कई बार असफल प्रयत्न होने पर भी साहस नहीं तोड़ते, वे ही मनुष्य रत्न अमूल्य रत्न ले आते हैं। उन्नति करते हुए यह ध्यान रहे कि उन्नति किसी को खोजती नहीं परन्तु वह खोजी जाती है। इसके लिये देखिये की आप से उन्नत कौन है। उनके संघ में रहिये और उन्नत होने का प्रयत्न करते रहिए।

🔴 कोई बुरा कार्य न करो। सोचो कि इस कार्य के लिये मनुष्य क्या कहेंगे। बुरे कार्य के कारण अपमानित होने का डर ही उन्नति का श्रीगणेश है। उन्नति करती है तो अपने आपको अनन्त समझो और निश्चय करो कि मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ। परन्तु अपनी समझ और अपने निश्चय को यथार्थ बनाने के लिये कटिबद्ध हो जाओ। अपने अनंत विचारों को शब्दों की अपेक्षा कार्य रूप में प्रगट करो। प्रयत्न करते हुए अपने आपको भूल जाओ। जब तुम अनन्त होने लगो तो अपने आपको महाशक्ति का अंश मान कर गौरव का अनुभव करो, परन्तु शरीर, बुद्धि और धन के अभिमान में चूर न हो जाओ। यदि उन्नति के कारण आपको अभिमान हो गया तो मध्याह्न के सूर्य की भाँति आपका पतन अवश्यंभावी है।

🔵 जब आप उन्नति पथ पर अग्रसर हैं तो भूल जायें कि आप कभी नीच, तथा दुष्ट-बुद्धि और पतित थे। निश्चित करो कि मेरा जन्म ही उन्नति के लिये हुआ है और ध्येय की प्राप्ति में सुध-बुध खो दो। और जब भी आपमें हीन विचार आये तो सोचो कि-जब वेश्या पतिव्रता हो गई तो उसे वेश्या कहना पाप है। दुष्ट जब भगवत् शरण हो गया, तो वह दुष्ट कहाँ रहा? जब लोहा पारस से छू गया तो उसमें लोहे के परमाणु भी तो नहीं रहे। इसी तरह जब मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ तो अवनति हो ही कैसे सकती है



👉 अप्रत्याशित सफलताओं का आधार प्रचंड मनोबल!!

🔵 एक बार की बात है गौतम बुद्ध अपने भिक्षुओं के साथ विहार करते हुए शाल्यवन में एक वट वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्म चर्चा शुरू हुयी और उसी क्रम में एक भिक्षु ने उनसे प्रश्न किया - "भगवन्! कई लोग दुर्बल और साधनहीन होते हुए भी कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी मात देते हुए बड़े-बड़े कार्य कर जाते हैं, जबकि अच्छी स्थिति वाले साधन सम्पन्न लोग भी उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। इसका क्या कारण हैं? क्या पूर्वजन्मों के कर्म अवरोध बन कर खड़े हो जाते हैं?"

Friday 16 June 2017

How to get peace of mind when someone has wronged us to no end?

This material world is like the prison house of God; souls who have turned their backs towards him have been put here.  So, we cannot expect the people of this world to behave like Saints. There will always be persons who will come to cheat us, and on some occasions, they may even succeed.  That is life; we all get cheated once in a while.  But the important thing is to learn to take it in our stride.  That is where the quality of forgiveness comes in.
If we continue to harbor resentment towards those who have wronged us, we will be unable to progress spiritually. Resentment acts like a poison on the mind, filling it with bitterness. And we keep reliving the sour experience within, pinned down to the past. Someone aptly said: "Resentment is like taking poison and waiting for the other person to die."     
On the spiritual path, we must be careful not to nurture ill feelings towards anyone, realizing that they will harm us more than anyone else.  Jagadguru Shree Kripaluji Maharaj says:
भूलिहुँ दुर्भावना कहुँ, हो न सपनेहुँ प्यारे।  (साधना करू प्यारे )
"Even in your dreams, do not make the mistake of harboring ill-will towards anyone."   
Forgiveness is a sublime personality trait that immediately releases all bitterness from the mind. It is a favor we do, not to the other person, but to ourselves. The lives of saintly people are full of inspiring stories of how they forgave their wrongdoers, and even succeeded in winning them over by their love.  
A person made an attempt on the life of Mahatma Gandhi, while he was living in South Africa. Mahatma Gandhi refused to hate the man. He said, "I shall love him, and win his love." One year later, that same man came and apologized to before Mahatma Gandhi, and wept for forgiveness. This is the characteristic of great personalities; they refuse to allow their minds to dwell on hatred towards anyone.

Thursday 1 June 2017

आज का भगवद चिन्तन

  • दूसरे व्यक्तियों में सुधार करने से पहले हमें अपने सुधार की बात पहले सोचनी होगी। दूसरों से मधुर व्यवहार की अपेक्षा रखने से पूर्व हमें स्वयं अपने व्यवहार को मधुर रखना होगा। कई बार हमारा खुद का व्यवहार कितना निम्न और अशोभनीय हो जाता है।
  •           दूसरों की कमजोरियों और दुर्बलताओं का हम बहुत मजाक उड़ाते हैं। एकदम आग बबूला भी हो जाते हैं। कभी हमने बिचार किया कि हमारे स्वयं के भीतर भी कितने दोष- दुर्गुण और वासना भरी पड़ी है यह अलग बात है हमने उसके ऊपर सच्चरित्र की झूठी चादर ओढ़ रखी है।
  •        इस जगत में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो पूर्णतः भला हो या बुरा हो। परिस्थिति के हिसाब से भली बुरी छवि सामने आती रहती है। यदि हम दूसरों में बुराई, अभाव या अपकार ही देखते रहेंगे तो जीवन को नरक बनते देर ना लगेगी। याद रखना दुनिया में किसी को सुधारना चाहते हो तो केवल स्वयं को सुधारो। 


Saturday 6 May 2017

ईश्वर बहुत दयालु है

.बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढें!

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

हर क्षण यही सोचो कि अगला क्षण मिले न मिले। अतएव भगवद विषय में उधार न करो। संसार में कोई-कोई भाग्यशाली भगवान् की ओर चलते हैं। उनमें भी किसी- किसी भाग्यशाली को कोई वास्तविक संत मिलता है। उनमें भी कोई-कोई भाग्यशाली तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। फिर भी एक दोष है जो आगे नहीं बढ़ने देता। उसका नाम है उधार। संसार के काम में तो हम उधार नहीं करते। कहीं राग करना है,कहीं द्वेष करना है,किसी को गाली देना है,किसी का नुकसान करना है,ये सब तो हम बहुत जल्दी कर लेते हैं। लेकिन भगवान संबंधी साधना में उधार कर देते हैं। वेद कहता है- ' अरे कल-कल मत करो,कौन जानता है कि कल न आवे।' इसलिये उधार नहीं करना है ,तुरंत करो।
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -


एक राजा का एक विशाल फलों का बगीचा था. उसमें तरह-तरह के फल होते थे और उस बगीचा की सारी देखरेख एक किसान अपने परिवार के साथ करता था. वह किसान हर दिन बगीचे के ताज़े फल लेकर राजा के राजमहल में जाता था।
एक दिन किसान ने पेड़ों पे देखा नारियल अमरुद, बेर, और अंगूर पक कर तैयार हो रहे हैं, किसान सोचने लगा आज कौन सा फल महाराज को अर्पित करूँ, फिर उसे लगा अँगूर करने चाहिये क्योंकि वो तैयार हैं इसलिये उसने अंगूरों की टोकरी भर ली और राजा को देने चल पड़ा!  किसानब राजमहल में पहुचा, राजा किसी दूसरे ख्याल में खोया हुआ था और नाराज भी लग रहा था किसान रोज की तरह मीठे रसीले अंगूरों की टोकरी राजा के सामने रख दी और थोड़े दूर बेठ गया, अब राजा उसी खयालों-खयालों में टोकरी में से अंगूर उठाता एक खाता और एक खींच  कर किसान के माथे पे निशाना साधकर फेंक देता।
राजा का अंगूर जब भी किसान के माथे या शरीर  पर लगता था किसान कहता था, ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’ राजा फिर और जोर से अंगूर फेकता था किसान फिर वही कहता था ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’
थोड़ी देर बाद राजा को एहसास हुआ की वो क्या कर रहा है और प्रत्युत्तर क्या आ रहा है वो सम्भल कर बैठा , उसने किसान से कहा, मै तुझे बार-बार अंगूर मार रहा हूँ , और ये अंगूर तुंम्हे  लग भी रहे हैं, फिर भी तुम यह बार-बार क्यों कह रहे हो की ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’
*किसान ने नम्रता से बोला, महाराज, बागान में आज नारियल, बेर और अमरुद भी तैयार थे पर मुझे भान हुआ क्यों न आज आपके लिये अंगूर् ले चलूं लाने को मैं अमरुद और बेर भी ला सकता था पर मैं अंगूर लाया। यदि अंगूर की जगह नारियल, बेर या बड़े बड़े अमरुद रखे होते तो आज मेरा हाल क्या होता ? इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि  ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’!!

कथा सार--

इसी प्रकार ईश्वर भी हमारी कई मुसीबतों को बहुत  हल्का कर के हमें उबार लेता है पर ये तो हम ही नाशुकरे हैं जो शुकर न करते हुए उसे ही गुनहगार ठहरा देते हैं, 

मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ , मेरा क्या कसूर, आज जो भी फसल हम काट रहे हैं ये दरअसल हमारी ही बोई हुई है, 

बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होये।। 

और बबुल से अगर आम न मिला तो  गुनहगार भी हम नहीं हैं , इसका भी दोष हम किसी और पर मढेंगे ,, कोई और न मिला तो ईश्वर तो है ही ।

आज हमारे पास जो कुछ भी है अगर वास्तविकता के धरातल पर खड़े होकर देखेंगे तो वास्तव में हम इसके लायक भी नही हैं पर उसके बावजूद मेरे ईश्वर ने मुझे जरूरत से ज़्यादा दिया है और बजाय उसका शुकर करने के हम उसे हमेशा दोष ही देते रहते हैं। 

पर वो तो हमारा पिता है हमारी माता है किसी भी बात का कभी बुरा नहीं मानता और अपनी नेमतें हम पर बरसाता रहता है। 

अगर एक बार उसकी बख्शिसों की तरफ देखेंगे तो सारी उम्र के भी शुकराने कम पड़ेंगे.

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय 

Tuesday 2 May 2017

How to get relieved of stress permanently

We experience stress because we want certain outcomes, situations and results. However, the soul is not independent, and it is not within its ability to fulfill all of the desires. By nature, the soul is a servant of God. Now, what is the duty of the servant? To fulfill the wishes of the master. If we surrender to God and think whatever He does is for our welfare, this attitude of surrender will help us get rid of stress. A surrendered soul says:

राज़ी हैं उसी मैं जिसमें तेरी रज़ा है। 
यूँ भी वाह वाह है त्यों भी वाह वाह है ।।

   "I am happy in Your happiness. Whatever situation You put me in, I will blissfully accept it." Thus, stress is a symptom of lack of our submission to the Will of God. When we experience stress, the best medicine to cure it is to increase our level of surrender. 

   Now, what is the problem in increasing the level of surrender? Worldly attachments! We keep on pondering, "This should happen this way; that should happen that way." That is the main hurdle to complete surrender. For achieving that goal, we need to increase our detachment from the world.
    
   Before God-realization, there will always be some amount of tension within everyone, because the extent of surrender will not be one-hundred percent. However, by giving us tension, God signals to us that something is wrong and we need to correct it by surrendering further to Him. This is just as when we put our hand in the fire, we feel pain. What would happen if we did not feel the pain? Our hand would burn without our knowing it. The feeling of pain is, in fact a form of Grace. It is a signal that something is wrong, and that must take the hand out. Similarly, stress is a signal that we need to increase our surrender and devotion to God.

     A spiritual doctor will prescribe you the medicine of submitting to God for getting rid of stress, whereas a material doctor will give you all kinds of medicinal drugs. However, such drugs will not help eradicate the root cause of stress. By increasing the level of surrender, the source of stress will itself be eradicated. Shree Krishna states in the famous verse:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि 
                                                                                 (Bhagavad Gita 2.47)

     "Work with full dedication. Do not be careless while performing your tasks. But do not get attached to the fruits of those works."

Sunday 30 April 2017

देव स्तुति

ॐ ब्रह्मामुरारित्रिपुरांतकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥
ॐ ! हे ब्रह्मा, मुरारी (विष्णु), त्रिपुरांतकारी (शिव), सूर्य, शशि, मंगल (भूमिपुत्र), बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू एवं केतू आप सब मेरे प्रातःकालको मंगलकारी करें !
---------
शास्त्र वचन 
१. सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा |
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ||
अर्थ : सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरे पिता हैं, धर्म मेरे भ्राता हैं और दया मेरा सखा हैं | शांति मेरी पत्नी है और क्षमा मेरा पुत्र है, यह छह मेरे बांधव (संबंधी) हैं |
-------
२. यद्यद्ददाति विधिवत्ससम्यक् श्रद्धासमन्वितः । 
तत्तत्पितृणां भवति परत्रानन्तमक्षयं ॥ – मनुस्मृति (३: २७७) 
अर्थ : ब्राह्मणको श्रद्धासहित तथा विधि अनुसार जो भी कुछ पितरोंके लिए दिया जाता है, उससे परलोकमें अंतमें न होनेवाली तथा सदा रहनेवाली तृप्ति प्राप्त होती है ।
-------
३. शत्रु: मित्रमुदासीनो भेदाः सर्वे मनोगताः । 
एकात्मत्वे कथं भेद: सम्भवेद द्वैतदर्शनात ॥
अर्थ : शत्रुता, मित्रता या उदासीनताके सभी भेदभाव मनमें ही रहते हैं । एकात्मभाव होनेपर भेदभाव नहीं रहता और वह द्वैतभावसे ही उत्पन्न होता है ।
-------
४. सर्वतो मनसोsसङ्गमादो संगं च साधुषु |
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भुतेष्वद्धा यथोचितं ||
अर्थ: पहले शरीर, संतान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखें | तत्पश्चात् भगवानके भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिए, यह सीखें | इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करें | 
-------
५. इन्द्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु | संयमे यत्नमातिष्ठेव्दिव्दान्यन्तेव वाजिनाम् || - मनुस्मृति अर्थ: एक कुशल सारथी जिस प्रकार अपने घोडोंपर नियंत्रण रखनेके लिए सदैव चेष्टा करता रहता है, उसी प्रकार विद्वान व्यक्तिको भी चित्तको आकर्षित करनेवाले विषयोंमें भ्रमण करनेवाली इन्द्रियोंको वशमें रखनेका प्रयत्न करना चाहिए |

Saturday 29 April 2017

अधर्म

हमारे अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है........
बहुत ही ज्ञानवर्धक कथा जरूर पढें!

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
"अस्थियाँ बिखरने से पहले जीवन में
"आस्था" पैदा हो जाये
और "चिता" जलने से पहले अपनी
‘चेतना‘ जाग जाये
जीवन सार्थक हो जायेगा"
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध पश्चात् लौटे तो रोष में भरी रुक्मिणी ने उनसे पूछा..,
" बाकी सब तो ठीक था किंतु आपने द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह जैसे धर्मपरायण लोगों के वध में क्यों साथ दिया?"

श्री कृष्ण ने उत्तर दिया.., 
"ये सही है की उन दोनों ने जीवन पर्यंत धर्म का पालन किया किन्तु उनके किये एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया "
*"वो कौनसे पाप थे?"*
श्री कृष्ण ने कहा :
"जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तब ये दोनों भी वहां उपस्थित थे ,और बड़े होने के नाते ये दुशासन को आज्ञा भी दे सकते थे किंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया
*उनका इस एक पाप से बाकी,*
*धर्मनिष्ठता छोटी पड गई"*

रुक्मिणी ने पुछा, 
"और कर्ण? 
वो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था ,कोई उसके द्वार से खाली हाथ नहीं गया उसकी क्या गलती थी?"

श्री कृष्ण ने कहा, "वस्तुतः वो अपनी दानवीरता के लिए विख्यात था और उसने कभी किसी को ना नहीं कहा,
किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्धवीरों को धूल चटाने के बाद युद्धक्षेत्र में आहत हुआ भूमि पर पड़ा था तो उसने कर्ण से, जो उसके पास खड़ा था, पानी माँगा ,कर्ण जहाँ खड़ा था उसके पास पानी का एक गड्ढा था किंतु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया
इसलिये उसका जीवन भर दानवीरता से कमाया हुआ पुण्य नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फंस गया और वो मारा गया" 

अक्सर ऐसा होता है की हमारे आसपास कुछ गलत हो रहा होता है और हम कुछ नहीं करते ।
हम सोचते हैं की इस पाप के भागी हम नहीं हैं किंतु मदद करने की स्थिति में होते हुए भी कुछ ना करने से हम उस पाप के उतने ही हिस्सेदार हो जाते हैं ।
हमारे अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है।

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय

दान

दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है.........बहुत ही ज्ञानवर्धक कथा जरूर पढें!

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
"मुठ्ठियों में क़ैद हैं जो खुशियाँ 
सब में बांट दो;;;
आपकी हो या मेरी हो
हथेलियां एक दिन तो खाली ही जानी हैं।"
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है !
आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार मिल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"
वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"
सेठ जीः "एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए ? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा ?"
सेठ जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।।
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय 

Wednesday 26 April 2017

मुस्कुराओ

मुस्कुराओ....
क्योंकि यह मनुष्य होने की पहली शर्त है। एक पशु कभी भी नहीं मुस्कुरा सकता।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि मुस्कान ही आपके चहरे का वास्तविक श्रंगार है। मुस्कान आपको किसी बहुमूल्य आभूषण के अभाव में भी सुन्दर दिखाएगी।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि दुनिया का हर आदमी खिले फूलों और खिले चेहरों को पसंद करता है। ...
मुस्कुराओ.....
क्योंकि क्रोध में दिया गया आशीर्वाद भी बुरा लगता है और मुस्कुराकर कहे गए बुरे शब्द भी अच्छे लगते हैं।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि परिवार में रिश्ते तभी तक कायम रह पाते हैं जब तक हम एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते रहते हैं।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि आपकी हँसी किसी की ख़ुशी का कारण बन सकती है।
मुस्कुराओ.....
कहीं आपको देखकर कोई किसी गलत फहमी में न पड़ जाए क्योंकि मुस्कराना जिन्दा होने की पहली शर्त भी है।
स्वागत मुस्करा कर करे खुद भी मुस्कराये रहे दुसरो के भी मुस्कराने की वजह बने।

Tuesday 25 April 2017

The Naked Truth of Life

Hare Krishna.....
There was a man with four wives. He loved his fourth wife the most and took great care of her and gave her the best.

He also loved his third wife and always wanted to show her off to his friends. However, he always had a fear that she might runaway with some other man.

He loved his second wife too. Whenever he faced some problems, he always turned to his second wife and she would always help him out.

He did not love his first wife though she loved him deeply, was very loyal to him and took great care of him. 

One day the man fell very ill and knew that he is going to die soon. He told himself, *_"I have four wives. I will take one of them along with me when I die to keep me company in my death."_*

Thus, he asked the fourth wife to die along with him and keep him company. *_"No way!"_* she replied and walked away without another word.

He asked his third wife. She said *_"Life is so good over here. I'm going to remarry when you die"._*

He then asked his second wife. She said *_"I'm Sorry. I can't help you this time around. At the most I can only accompany you till your grave."_*

By now his heart sank and he turned cold. Then a voice called out: *_"I'll go with you. I'll follow you no matter where you go."_*

The man looked up and there was his first wife. She was so skinny, almost like she suffered from malnutrition. Greatly grieved, the man said, *_"I should have taken much better care of you while I could have!"_*

Actually, we all have four wives in our lives.

a. *The fourth wife is our body.* No matter how much time and effort we lavish in making it look good, it'll leave us when we die.

b. *The third wife is our possession, status and wealth.* When we die, they go to others.

c. *The second wife is our family and friends.* No matter how close they had been there for us when we're alive, the furthest they can stay by us is up to the grave.

d. *The first wife is our soul,* neglected in our pursuit of material wealth and pleasure. It is actually the only thing that follows us wherever we go.

So Please Always take care of your soul. 

......_One of the best messages I have received_........
                          Hare Krishna

Material Attachment

A man who has gone out of town comes back to find his house on fire. It was one among the beautiful houses in the town, and the man loved his house dearly! Many people were ready to give double price for the house, but he never agreed for any price and now it is just burning before his eyes. Hundreds of people have gathered, but nothing can be done, the fire has spread so far that even if they try to put it out, nothing will be saved. He becomes very sad.
His son comes running and whispers in his ear: "Don't worry Dad. I sold it yesterday at a very good price ― three times of our cost. The offer was so good I could not wait for you. Forgive me." Father said, "thank God, it's not ours now!" Then the father is relaxed and became a silent watcher, just like 100s of other watchers.
Please think about it! Just a moment before he was not a watcher, he was attached. It is the same house....the same fire.... everything is the same...but now he is not concerned. In fact he is relaxed and watching it just as everybody else in the crowd. Then the second son comes running, and he says to the father, "What are you doing? You are relaxed ― and the house is on fire?" The father said, "Don't you know, your brother has sold it." He said, "we have taken only advance amount, not settled fully. I doubt now that the man is going to pay us anymore.”
Again, everything changes!! Tears which had disappeared have come back to the father's eyes, his smile is no more there, and his heart is beating fast. The silent 'watcher' is gone. He is again attached.
And then the third son comes, and he says, "The buyer is a man of his words. I have just come from him. He said, 'It doesn't matter whether the house is burnt or not, it is mine. And I am going to pay the price that I have settled for. Neither you knew, nor did I know that the house would catch fire.'" Again the joy is back and family became watchers! The attachment is no more there.
Actually nothing is changing! Just the feeling that "I am the owner! I am not the owner of the house!" makes the whole difference.

Actually nothing belong to us, everything is God's property. We think it belongs to us and this is the only cause of our sadness.

Material  attachment is cause of our problem, we are actually servant of Krishna , let's surrender unto him and chant

Hare Krishna hare Krishna
Krishna Krishna hare hare
Hare Rama hare Rama
Rama Rama hare hare

& Be happy

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास सफलता की प्राप्ति

एक बार एक व्यवसायी पूरी तरह से कर्ज में डूब गया ।उसका व्यवसाय बंद होने के कगार पर आ गया| वह बहुत चिंतित व निराश होकर एक बगीचे में बैठ गया ।वह सोच रहा था कि कि काश कोई उसकी कंपनी को बंद होने से बचा ले|

तभी एक बूढ़ा व्यक्ति वहां पर आया और बोला – आप बहुत चिंतित लग रहे है। कृपया अपनी समस्या मुझे बताइये शायद मैं आपको कुछ मदद कर सकूं |

व्यवसायी ने अपनी समस्या उस बूढ़े व्यक्ति को बताई|

व्यवसायी की समस्या सुनकर बूढ़े व्यक्ति ने अपनी जेब से चेकबुक निकाली और एक चेक लिखकर व्यवसायी को दे दिया और कहा – तुम यह चेक रखो और ठीक एक वर्ष बाद यहाँ हमसे फिर मिलना और मुझे यह पैसे वापस लौटा देना|

व्यवसायी ने चेक देखा तो उसकी आँखे फटी रह गयी – उसके हाथों में 50 लाख का चेक था जिस पर उस शहर के सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर के साइन थे|

उस व्यवसायी को यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वह बूढ़ा व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि उस शहर का सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर था| उसने उस बूढ़े व्यक्ति को आस-पास देखा लेकिन वह व्यक्ति वहां से जा चुका था|

व्यवसायी बहुत खुश था कि अब उसकी सारी चिंताएं समाप्त हो गयी है और अब वह इन पैसों से अपने व्यवसाय को फिर से खड़ा कर देगा|

लेकिन उसने निर्णय किया कि वह उस चेक को तभी इस्तेमाल करेगा जब उसे इसकी बहुत अधिक आवश्यकता होगी और उसके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होगा|

उस व्यवसायी की निराशा और चिंताएं दूर हो चुकी थी| अब वह निडर होकर अपने व्यवसाय को नए आत्मविश्वास के साथ चलाने लगा क्योंकि उसके पास 50 लाख रूपये का चेक था जो जरूरत पड़ने पर काम आ सकता था|

उसने कुछ ही महीनों में व्यापारियों के साथ अच्छे समझौते कर लिए जिससे धीरे धीरे उसका व्यवसाय फिर से अच्छा चलने लगा और उसने उस चेक का इस्तेमाल किये बिना ही अपना सारा कर्जा चुका दिया|

ठीक एक वर्ष बाद व्यवसायी वही चेक लेकर उस बगीचे में पहुंचा जहाँ पर एक वर्ष पहले वह बूढ़ा आदमी उससे मिला था|

वहां पर उसे वह बूढ़ा आदमी मिला, व्यवसायी ने चेक वापस करते हुए कहा – धन्यवाद आपका जो आपने बुरे वक्त में मेरी मदद की| आपके इस चेक ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मेरा व्यवसाय फिर से खड़ा हो गया और मुझे इस चेक का उपयोग करने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी|

वह अपनी बात पूरी करता तभी वहां पर पास ही के पागलखाने के कुछ कर्मचारी आ पहुंचे और उस बूढ़े आदमी को पकड़कर पागलखाने ले जाने लगे|

यह देखकर व्यवसायी ने कहा – यह आप क्या कर रहे है? आप जानते है यह कौन है? यह इस शहर के सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर है|

पागलखाने के कर्मचारी ने कहा – यह तो एक पागल है जो खुद को जॉन रोकफेलर समझता है| यह हमेशा भागकर इस बगीचे में आ जाता है और लोगों से कहता है कि वह इस शहर का मशहूर व्यक्ति जॉन रोकफेलर है| हमें लगता है कि इसने आपको भी बेवकूफ बना दिया|

वह व्यवसायी पागलखाने के कर्मचारी की बाते सुनकर सुन्न हो गया| उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि वह व्यक्ति जॉन रोकफेलर नहीं था और एक वर्ष से जिस चेक के दम पर वह आराम से अपने व्यवसाय में जोखिमें उठा रहा था वह नकली था|

वह काफी देर सोचता रहा फिर उसे समझ में आया कि यह पैसा नहीं था जिसके दम पर उसने अपना व्यवसाय वापस खड़ा किया है बल्कि यह तो उसकी निडरता और आत्मविश्वास था जो उसके भीतर ही था|

*“Believe in Yourself “*

*“हमारे भीतर समस्त ब्रहांड की शक्ति निहित है जिसके बल पर हम कुछ भी कर सकते है लेकिन समस्या यह है कि हम कभी कभी नकारात्मकता, निराशा और डर के अन्धकार में इतना डूब जाते है कि हम भूल जाते है कि हमारे भीतर असीमित शक्ति है जो अंधकार को पल भर में दूर कर सकती है|जब हम आत्मविश्वास और निडरता के साथ आगे बढते हैं तो सारी रूकावटें अपने आप दूर हो जाती है|”*
जय श्रीकृष्ण

Greed

Greed for wealth, women, and power VS  Greed for Krishna consciousness

Greed for wealth, women, and power destroys one's ability to become a spiritually awakened being. However if one is very greedy to advance in his Krishna consciousness, this is a great boon. In fact, Srila Prabhupada describes that this greed for bhakti is the best path available. In this regard it is stated by Srila Rupa Goswami:
krsna-bhakti-rasa-bhavita matih
kriyatam yadi kuto 'pi labhyate
tatra laulyam api mulyam ekalam
janma-koti-sukrtair na labhyate
"Pure devotional service in Krishna consciousness cannot be had even by pious activity in hundreds and thousands of lives. It can be attained only by paying one price-that is, intense greed to obtain it. If it is available somewhere, one must purchase it without delay.'
--Padyāvalī 14
Therefore greed should not be given up. It should be purified by engaging it in the service of Krishna. We should be greedy to awaken our dormant Krishna consciousness.

Monday 24 April 2017

देने वाला कौन

आज हमने भंडारे में भोजन करवाया। आज हमने ये बांटा, आज हमने वो दान किया...
.
 हम अक्सर ऐसा कहते और मानते हैं। इसी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय कथा सुनिए...
.
एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।
.
एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।
.
कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला। 
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"
.
समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा---
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
.
अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया। 
.
लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं। 
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
.
लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया। 
यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।
.
कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"
.
साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया। 
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"
.
कथासार- *किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया*!
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया । 
वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??
.
दान किए से जाए दुःख, दूर होएं सब पाप।।
नाथ आकर द्वार पे, दूर करें संताप।।
.
कथा अच्छी लगी हो तो शेयर अवश्य करना

Friday 21 April 2017

बुद्ध

बुद्ध एक सुबह प्रवचन करते थे। कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे। सामने ही बैठ कर एक भिक्षु पैर का अंगूठा हिलाता था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया और उस भिक्षु को पूछा कि यह पैर का अंगूठा तुम्हारा क्यों हिल रहा है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, पैर का अंगूठा हिलना बंद हो गया। उस भिक्षु ने कहा, आप भी कहां की फिजूल बातों में पड़ते हैं! आप अपनी बात जारी रखिए। बुद्ध ने कहा, नहीं; मैं यह पूछे बिना आगे नहीं बढूंगा कि तुम पैर का अंगूठा क्यों हिला रहे थे? उस भिक्षु ने कहा, मैं हिला नहीं रहा था, मुझे याद भी नहीं था, मुझे पता भी नहीं था।

तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारा अंगूठा है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं; तो तुम सोए हो या जागे हुए हो? और बुद्ध ने कहा, पैर का अंगूठा हिलता है, तुम्हें पता नहीं; मन भी हिलता होगा और तुम्हें पता नहीं होगा। विचार भी चलते होंगे और तुम्हें पता नहीं होगा। वृत्तियां भी उठती होंगी और तुम्हें पता नहीं होगा। तुम होश में हो या बेहोश हो? तुम जागे हुए हो या सोए हुए हो?

यदि हम गौर से देखें, तो आंखें खुली होते हुए भी हम अपने को होश में नहीं कह सकते। हमारा मन क्या कर रहा है इस क्षण, वह भी हमें ठीक-ठीक पता नहीं। अगर कभी दस मिनट एकांत में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें, और मन में जो चलता हो उसे एक कागज पर लिख लें--जो भी चलता हो, ईमानदारी से--तो उस कागज को आप अपने प्रियजन को भी बताने के लिए राजी नहीं होंगे। मन में ऐसी बातें चलती हुई मालूम पड़ेंगी कि लगेगा क्या मैं पागल हूं? ये बातें क्या हैं जो मन में चलती हैं? खुद को भी विश्वास नहीं होगा कि यह मेरा ही मन है जिसमें ये सारी बातें चलती हैं!

लेकिन हम भीतर देखते ही नहीं, बाहर देख कर जी लेते हैं। मन में क्या चलता है, पता भी नहीं चलता। और यही मन हमें सारी क्रियाओं में संलग्न करता है। इसी मन से क्रोध उठता है, इसी मन से लोभ उठता है, इसी मन से काम उठता है। इस मन के गहरे में न हम कभी झांकते हैं, न कभी इस मन के गहरे में जागते हैं। जो भी चलता है, चलता है। यंत्रवत, सोए-सोए हम सब कर लेते हैं। 

अगर आपने कभी क्रोध किया हो, तो शायद ही आप यह कह सकें कि मैंने क्रोध किया है। आपको यही कहना पड़ेगा, क्रोध आ गया। आज तक किसी आदमी ने क्रोध किया नहीं है, क्रोध सदा आया है। आप क्रोध के कर्ता नहीं हैं, आप सिर्फ क्रोध के विक्टिम हैं, शिकार हैं। आप पूरी जिंदगी स्मरण करें तो यह नहीं कह सकते कि मैंने एक बार क्रोध किया था। क्रोध में, करने में आप मालिक नहीं थे। अगर मालिक होते तो आपने किया ही नहीं होता। कोई आदमी जान कर गङ्ढे में नहीं गिरता है। गिर जाता है, यह दूसरी बात है। किसी आदमी ने जान कर क्रोध भी नहीं किया है कभी। क्रोध हो जाता है, यह दूसरी बात है। क्रोध घटता है, क्रोध हम करते नहीं हैं। तो हम सोए हुए आदमी हैं या जागे हुए?

और प्रेम के संबंध में तो लोग कहते ही हैं कि प्रेम हमने किया नहीं, हो गया। लेकिन इसका मतलब क्या होता है कि प्रेम हो गया? इसका मतलब यह होता है कि जैसे हवाएं चलती हैं और वृक्ष के पत्ते हिलते हैं अवश-परवश, जैसे आकाश में बादल आते हैं और हवाएं उन्हें जहां उड़ा कर ले जाती हैं, चले जाते हैं, विवश। क्या वैसे ही हमारे भीतर भी चित्त में भावनाएं उठती हैं प्रेम की, क्रोध की, घृणा की और हम विवश होकर उनके साथ हिलते-डुलते रहते हैं? हमारा कोई वश नहीं है? हम अपने मालिक नहीं हैं?

अकेले चलना पड़ेगा


आपको अपने जैसा व्यक्ति कदापि प्राप्त न होगा! आपको जीवन- पथ पर अकेले ही अग्रसर होना पड़ेगा। कोई आपके साथ दूर तक न चल सकेगा। अकेले चले चलिये।

जीवन को एक यात्रा मानिए। यात्रा में एक दो अल्पकालीन संगी साथी आपको प्राप्त हो गए हैं। इनसे चार दिन के लिए आप बोलते हैं ,बरतते हैं, हँसी ठट्ठा, संघर्ष छीना झपटी चलती है। साथ साथ कुछ समय तक आगे बढ़ते हैं, किन्तु धीरे-धीरे उनकी जीवन-यात्रा समाप्त होती चलती है। एक के पश्चात दूसरा अपने गन्तव्य स्थान पर, रुक कर आपको छोड़ते चलते हैं। आपके साथ अभी छः सात व्यक्तियों का परिवार साथ था। सात में से छः रह जाते हैं और फिर क्रमशः आप अकेले ही रह जाते हैं। “अरे, मैं अकेला रह गया, बिलकुल अकेला”- आपका मन कुछ काल के लिए अशान्त सा हो उठता है। उसमें एक कड़वाहट सी आ जाती है। पर वास्तव में जीवन का यह अकेलापन ही मानव-जीवन का चरम सत्य है।

सबको पाकर भी हम सब अकेले हैं, नितान्त अकेले! हमारे साथ कोई भी दूर तक चलने वाला नहीं है। जिन्हें हम भ्रम से माया वश अपने साथ चलता हुआ समझते हैं, वास्तव में वे हमारे अल्पकालीन सहयात्री मात्र हैं। हमारे अकेलेपन में कोई भी हाथ बंटाने, दिलासा देने वाला नहीं है। 


हार की झलक

हार की झलक - शंकराचार्य और मंडन मिश्र की कहानी।

बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ मेँ निर्णायक थीँ- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। 

हार-जीत का निर्णय होना बाक़ी था, इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर जाना पड़ गया।

लेकिन जाने से पहले देवी भारती नेँ दोनोँ ही विद्वानोँ के गले मेँ एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, येँ दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मेँ आपके हार और जीत का फैसला करेँगी। यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गईँ। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।

कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आईँ। उन्होँने अपनी निर्णायक नजरोँ से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया।

 उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।

सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। 

एक विद्वान नेँ देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे ! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीँ फिर वापस लौटते ही आपनेँ ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?

देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मेँ पराजित होने लगता है, और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे हैँ।

 इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।

       विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की। दोस्तो, क्रोध मनुष्य की वह अवस्था है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। 

क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तोँ मेँ दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को मुरझाने मत दीजिये.....।

कड़वा सच है

कड़वा सच है, जरा ध्यान दें :-​
एक लड़की ने अपने दादा से पूछा :- "दादा जी...आप लोग पहले कैसे रहते थे ?
न कोई टेक्नोलॉजी , न जहाज, न कम्प्यूटर, न गाड़ियाँ, न मोबाइल ।"
दादा जी ने जवाब दिया :- "जैसे तुम लोग आजकल रहते हो....
न पूजा, न पाठ, न दीन, न धर्म, न लज्जा, न शर्म "
-------------------------------------------------

एक बार संत रैदास जी चितौड़ पधारे थे। रैदासजी रघु चमार के यहाँ जन्में थे। उनकी छोटी जाति थी और उस समय जात-पाँत का बड़ा बोल बाला था। वे नगर से दूर चमारों की बस्ती में रहते थे। राजरानी मीरा को पता चला कि संत रैदासजी महाराज पधारे हैं लेकिन राजरानी के वेश में वहाँ कैसे जायें? मीरा एक मोची महिला का वेश बनाकर चुपचाप रैदासजी के पास चली जाती, उनका सत्संग सुनती, उनके कीर्तन और ध्यान में मग्न हो जाती। ऐसा करते-करते मीरा का सत्त्वगुण दृढ़ हुआ। मीरा ने सोचाः ‘ईश्वर के रास्ते जायें और चोरी छिपे जायें? आखिर कब तक? फिर मीरा अपने ही वेश में उन चमारों की बस्ती में जाने लगी। मीरा को उन चमारों की बस्ती में जाते देखकर अड़ोस-पड़ोस में कानाफूसी होने लगी। पूरे मेवाड़ में कुहराम मच गया कि ‘ऊँची जाति की, ऊँचे कुल की, राजघराने की मीरा नीची जाति के चमारों की बस्ती में जाकर साधुओं के यहाँ बैठती है, मीरा ऐसी है…. वैसी ननद उदा ने उसे बहुत समझायाः “भाभी ! लोग क्या बोलेंगे? तुम राजकुल की रानी और गंदी बस्ती में, चमारों की बस्ती में जाती हो? चमड़े का काम करनेवाले चमार जाति के एक व्यक्ति को गुरु मानती हो? उसको मत्था टेकती हो? उसके हाथ से प्रसाद लेती हो? उसको एकटक देखते-देखते आँखें बंद करके न जाने क्या-क्या सोचती और करती हो? यह ठीक नहीं है। भाभी ! तुम सुधर जाओ।” सासु नाराज, ससुर नाराज, देवर नाराज, ननद नाराज, कुटुंबीजन नाराउदा ने कहाः मीरा मान लीजियो म्हारी, तने सखियाँ बरजे सारी। राणा बरजे, राणी बरजे, बरजे सपरिवारी। साधन के संग बैठ, बैठ के लाज गँवायी सारी ‘मीरा ! अब तो मान जा। तुझे मैं समझा रही हूँ, सखियाँ समझा रही हैं, राणा भी कह रहा है, रानी भी कह रही है, सारा परिवार कह रहा है…. फिर भी तू क्यों नहीं समझती है? इन संतों के साथ बैठ-बैठकर तू कुल की सारी लाज गँवा रही है नित प्रति उठ नीच घर जाय कुलको कलंक लगावे। मीरा मान लीजियो म्हारी तने बरजे सखियाँ सारी तब मीरा ने उत्तर दियाः तारयो पियर सासरियो तारयो माह्म मौसाली सारी। मीरा ने अब सदगुरु मिलिया 
चरणकमल बलिहारी ‘मैं संतों के पास गयी तो मैंने पीहर का कुल तारा, ससुराल का कुल तारा, मौसाल का और ननिहाल का कुल भी तारा है।’ मूर्ख लोग समझते हैं कि भजन करने से इज्जत चली जाती है वास्तव में ऐसा नहीं है। 
राम नाम के शारणे सब यश दीन्हो खोय। 
मूरख जाने घटि गयो दिन दिन दूनो होय।। 

मीरा की कितनी बदनामी की गयी, मीरा के लिए कितने षड्यंत्र किये गये लेकिन मीरा अडिग रही तो मीरा का यश बढ़ता गया। आज भी लोग बड़े प्रेम से मीरा को याद करते 
हैं, उनके भजनों को गाकर अथवा सुनकर अपना हृदय पावन करते हैं।

"पायो जी मैं राम रत्न धन पायो 

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय