Saturday 31 October 2015

परिश्रम सृष्टि का नियम है |


एक बार लक्ष्मीजी पृथ्वी पर आयीं। लोग बैठे थे। आलसी थे। कह दिया, "माँ की जय हो।" लक्ष्मी जी ने उन सबके घर सुवर्ण से भर दिया। यह देखकर पृथ्वी रोती रोती लक्ष्मीजी के पास आयी और बोलीः "आप मेरे बच्चों के साथ अन्याय कर रही हो।"
"पगली कहीं की ! मुझे तू रोकने-टोकने आयी है? मैं तेरे बच्चों से अन्याय कर रही हूँ? वे 'माँ... माँ....' करते हैं और मैं एकदम उनका घर सोने से भर देती हूँ? उन्हें धन से सम्पन्न कर देती हूँ।"
"भगवती ! वे थोड़ा-सा माँगे और आप धन के ढेर लगा दोगी तो उनमें छुपी हुई जो पुरुषार्थ की शक्ति है वह विकसित नहीं होगी। वे पराधीन हो जायेंगे, भिखमंगे हो जायेंगे, स्वामी नहीं बन पायेंगे। पुरुषार्थ करने की योग्यता नष्ट हो जायेगी। मैया! आप तो नारायण के चरणों में शोभा देती हैं जो आत्मारामी हैं। ये लोग तो विषयारामी हैं। वे जो माँगें वह उन्हें देती जाओगी तो मेरे उन बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा।"
लक्ष्मीजी ने सुनी अनसुनी कर दिया। कुछ ही दिनों में घर घर में सोने की थालियाँ, सोने के कटोरे, सोने के घड़े आदि सब सोना सोना हो गया। लोगों ने सोचा कि हमारे घर में इतना सोना है, अब खेत में जाने की जरूरत क्या है? हल जोतने की जरूरत क्या है? इतना सारा सोना है तो अब मजदूरी कौन करे?
बारिश आयी लोगों ने हल न जोते। दाने न बोये। घर में जो अनाज पड़ा था वह खाते रहे, आलसी होकर बैठे रहे। खेत सब जंगल हो गये। धान्य आदि कुछ पका नहीं। बारिश गयी तो हाय हाय ! लोग आक्रन्द करने लगे। अनाज के बिना छाती पर सोना रखते-रखते मर गये।
पृथ्वी रोती-रोती ब्रह्माजी के पास पहुँची और कहाः "ब्रह्मन ! लक्ष्मीजी को पृथ्वी पर आने का Stay Order (स्थगन आदेश) कर दीजिये, अन्यथा मेरा सब चौपट हो जायेगा।"
ब्रह्माजी ने समाधि लगाकर सब हाल देखा। हाँ, उचित है। मूर्खों को बिना परिश्रम कुछ मिलना नहीं चाहिए। हर चीज का दाम चुकाने से उसकी कद्र होती है, उसका स्वाद भी आता है। बिना दाम चुकाये कोई चीज मिल जाती है तो हममें छिपी हुई शक्ति विकसित नहीं हो पाती और हम पराश्रित हो जाते हैं।
बिना मेहनत के भोजन करते हो तो वह भी ठीक से नहीं पचता। सुपाच्य भोजन भी बिना चबाये खा लिया तो वह कुपाच्य हो जाता है। परिश्रम इस सृष्टि का नियम है। प्रकृति का यह नियम है कि जो चल से पैदा हुआ है उसको ठीक रखने के लिए भी चल रखना पड़ता है।
प्रकृति का स्वभाव है चल। मन का स्वभाव है किसी न किसी का चिन्तन करना. जिस किसी का चिन्तन करते हो तो भगवान बोलते हैं मेरा ही चिन्तन कीजिए न ! जब किसी-न-किसी की उपासना करते हैं – पैसों की, पत्नी की, पुत्र की, मकान की, दुकान की – तो भगवान कहते हैं मेरी ही उपासना कीजिये न !
शरीर का जन्म ही कर्म से हुआ है। ज्ञानी हो चाहे अज्ञानी, यह शरीर एक क्षण भी क्रिया के बिना नहीं रह सकता।
कहते हैं कि बड़े-बड़े संत कुछ भी नहीं करते हैं। ऐसे ही चुप बैठे रहते हैं समाधि में। ...तो वे समाधि भी तो करते ही हैं। कुछ भी नहीं करेंगे तो मन मनोराज में चला जायेगा।
मनोराज हटाने के लिए प्रणव (ॐ) का जप करते हैं। बाद में जप छोड़ने का भी जप करते हैं, जप छूट जाता है, कुछ न करने का क्षण आता है तब खबरदारी रखते हैं कि मनोराज तो नहीं हो रहा है? तन्द्रा तो नहीं आ रही है? नींद तो नहीं आ रही है? रसास्वाद तो नहीं आ रहा है?
संक्षेप में, आपको कुछ-न-कुछ करना ही होगा। पुरुषार्थ करना होगा। आलस्य का नाम वेदान्त नहीं है। कर्म करो और उसमें सुख-बुद्धि न रखो। कुछ पाने की इच्छा से या शत्रु को दुःख पहुँचाने की इच्छा से कर्म न करो।

सुखी जीवन का रहस्य:-



सुखी जीवन का रहस्य:-
एक बार यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गए। वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई, दोनों आपस में काफी घुलमिल गए। वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गए। भरा-पूरा परिवार था उनका, घर में बहु-बेटे, पौत्र-पौत्रियां सभी थे।
सुकरात ने बुजुर्ग से पूछा- आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है। वैसे अब आप करते क्या हैं?"
इस पर वृद्ध ने कहा- अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है, जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं। घर की व्यवस्था हमारी बहुएं संभालती हैं। इसी तरह जीवन चल रहा है।"
यह सुनकर सुकरात बोले- "किन्तु इस वृद्धावस्था में भी आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा। आप बताइए कि बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है?"
वह वृद्ध सज्जन मुस्कराए और बोले- मैंने अपने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति को अपनाया है कि दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएं मत पालो और जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो। मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे-बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं। अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं। अपने पौत्र- पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं। मेरे बच्चे जब कुछ भूल करते हैं, तब भी मैं चुप रहता हूं। मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता। पर जब कभी वे मेरे पास सलाह-मशविरे के लिए आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न् दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं। अब वे मेरी सलाह पर कितना अमल करते या नहीं करते हैं, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है। वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता। उस पर भी यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो मैं पुन: नेक सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं।"
बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने बखूबी समझ लिया है।"



स्वयं विचार कीजिये

 इतना कुछ होते हुए भी,
1- शब्दकोश में असंख्य शब्द होते हुए भी...
मौन होना सब से बेहतर है।
2- दुनिया में हजारों रंग होते हुए भी...
सफेद रंग सब से बेहतर है।
3- खाने के लिए दुनिया भर की चीजें होते हुए भी...
उपवास शरीर के लिए सबसे बेहतर है।
4-पर्यटन के लिए रमणीक स्थल होते हुए भी..
पेड़ के नीचे ध्यान लगाना सबसे बेहतर है।
5- देखने के लिए इतना कुछ होते हुए भी...
बंद आँखों से भीतर देखना सबसे बेहतर है।
6- सलाह देने वाले लोगों के होते हुए भी...
अपनी आत्मा की आवाज सुनना सबसे बेहतर है।
7- जीवन में हजारों प्रलोभन होते हुए भी...
सिद्धांतों पर जीना सबसे बेहतर है।

इंसान के अंदर जो समा जायें वो  " स्वाभिमान "
                    और
जो इंसान के बाहर छलक जायें वो " अभिमान "
 
जब भी बड़ो के साथ बैठो तो परमात्मा का धन्यवाद ,
     क्योंकि कुछ लोग इन लम्हों को तरसते हैं ।
जब भी अपने काम पर जाओ तो परमात्मा का धन्यवाद करो
     क्योंकि बहुत से लोग बेरोजगार हैं ।
परमात्मा का धन्यवाद कहो जब तुम तन्दुरुस्त हो ,
     क्योंकि बीमार किसी भी कीमत पर सेहत खरीदने की ख्वाहिश रखते हैं ।
परमात्मा का धन्यवाद कहो की तुम जिन्दा हो ,
      क्योंकि मरते हुए लोगों से पूछो जिंदगी की कीमत ।

पैसा

पैसा

जब पैसा नहीं होता है तो सब्जियां पका के खाता है
और जब पैसा आ जाता है तो सब्जियां कच्ची खाता है।
जब पैसा नहीं होता है तो मंदिर में भगवान के दर्शन करने जाता है
और जब पैसा आ जाता है तो इंसान भगवान को दर्शन देने जाता है।
जब पैसा नहीं होता है तो नींद से जगाना पड़ता है
और जब पैसा आ जाता है तो नींद की गोली देके सुलाना पड़ता है।
जब पैसा नहीं होता है तो अपनी बीवी को सेक्रेट्री समझता है
लेकिन जब पैसा आ जाता है तो सेक्रेट्री को बीवी बना लेता है।।

ऐसा है ये पैसा अजीब है ये पैसा...?
 
छोटा सा जीवन है, लगभग 80 वर्ष।
उसमें से आधा =40 वर्ष तो रात को बीत जाता है। 
उसका आधा=20 वर्ष बचपन और बुढ़ापे मे बीत जाता है।
बचा 20 वर्ष। 
उसमें भी कभी योग,कभी वियोग, कभी पढ़ाई,कभी परीक्षा,नौकरी, व्यापार और अनेक चिन्ताएँ व्यक्ति को घेरे रखती हैँ।
अब बचा ही कितना ? 8/10 वर्ष। 
उसमें भी हम शान्ति से नहीं जी सकते ? 
यदि हम थोड़ी सी सम्पत्ति के लिए झगड़ा करें, और फिर भी सारी सम्पत्ति यहीं छोड़ जाएँ, तो इतना मूल्यवान मनुष्य जीवन प्राप्त करने का क्या लाभ हुआ?

जिंदगी खूबसूरत बनाने के बीस (२०) उपाएँ :-

 १. खुद की कमाई से कम खर्च हो ऐसी जिन्दगी बनायें,
२. दिन मेँ कम से कम ३ लोगो की प्रशंशा करें,
३. खुद की भुल स्वीकार ने मेँ कभी भी संकोच मत करें,
४. किसी के सपनो पर कभी भी न हंसें,
५. अपने पीछे खडे व्यक्ति को भी कभी आगे जाने का मौका दें,
६. रोज हो सके तो सुरज को उगता हुआ अवश्य देखे,
७. खुब जरुरी हो तभी कोई चीज उधार लें,
८. किसी से कुछ जानना हो तो, विवेक से दो बार पूछे,
९. कर्ज और शत्रु को कभी बडा मत होने दें,
१०. ईश्वर पर अटूट पुरा भरोशा रखें,
११. प्रार्थना करना कभी मत भूले, प्रार्थना मेँ अपार शक्ति होती है,
१२. अपने काम से मतलब रखें,
१३. समय सबसे ज्यादा कीमती है, इसको फालतु कामो मेँ खर्च मत करें,
१४. जो आपके पास है, उसी मेँ खुश रहना सीखें,
१५. बुराई कभी भी किसी कि भी मत करें, क्योकिँ बुराई नाव मेँ छेद समान है, छेद छोटी हो या बडी नाव तो डुबो ही देती है,
१६. हमेशा सकारात्मक सोच रखे,
१७. हर व्यक्ति एक हुनर लेकर पैदा होता हैं, बस उस हुनर को दुनिया के सामने लायें,
१८. कोई काम छोटा नही होता, हर काम बडा होता है जैसे कि सोचो जो काम आप कर रहे हो अगर आप वह काम आप नही करते हो तो दुनिया पर क्या असर होता..?,
१९. सफलता उनको ही मिलती है जो कुछ करते है,
२०. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नही बल्कि कुछ करना पडता है.

एक अच्छे गृहस्थ सेठ थे

एक अच्छे गृहस्थ सेठ थे
एक साधु उनके घर गये तो पूछा यह मोटर किसका है
सेठ बोला ठाकुरजी के।
ये किसके बच्चे खेल रहे है? ठाकुरजी के।
ये लोग कौन है ?ठाकुरजी के
पूरा मकान देखते देखते
ऊपर गये तो वहाँ मन्दिर था
यह मन्दिर किसका है
ठाकुरजी का।
ये सोने चाँदी बर्तन किसके है
ठाकुरजी के।
ये वस्त्र किसके है ठाकुरजी के
साधु ने ठाकुरजी की तरफ संकेत करके पूछा ये किसके है
सेठ बोला ये तो  मेरे है।।....
           कृष्णा

सही बात का समर्थन सत्य को शक्ति प्रदान करता है...!!! निंद्रा और कीर्तन


कुम्भकर्ण की पत्नी का नाम निंद्रादेवी हे।निंद्रादेवी जब विधवा होने पर श्री राम चंद्र जी के पास गई और पूछा -की पर्भु अब में कहा जाऊ ??
रामचन्द्र जी ने कहा की वह जहाँ चाहे वहा रह सकती हे। तो निंद्रा देवी ने कहा की मेने निच्छय किया हे जहां आप का कथा - कीर्तन होगा ,,वही जाकर अपना आसन जमाउंगी।पंचप्राण को कान में रख कर कथा सुनो।
एक बार मीरा बाई अन्य भक्तो के साथ कीर्तन कर रही थी। कई लोगो का ताल ठीक नही था।जब शरीर का भान नही रह पाता ।तो ताल की तो बात ही क्या।किसी ने बड़े बड़े अक्षरो में लिखा ""ताल से गाओ ""अगले दिन मीराबाई ने यह पड़ा तो उन्होंने उसे रद्द करके लिखा ""प्रेम से गाओ""कीर्तन में ताल की अपेक्षा प्रेम प्रधान हे ।कीर्तन करने से मन की अशुद्धि धुलती हे और ह्रदय विशुद्ध होता हे ।
कीर्तन तालिया बजा बजा कर करो।पर्भु सभी को देखते हे ।कीर्तन में जो तालिया नही बजाते ;;उसके लिए भगवान सोचते हे की मे मुर्ख ही हु जो मेने इसे दो हाथ दिए किन्तु अगले जन्म में में
 अपनी भूल सुधार लूंगा और इसे दो ओर्र पांव दूंगा।
पर्भु भजन में तालिया बजाने में शर्म क्यों ।पाप से शर्म करो।पाप झरने में हेठी हे।
  जो पर्भु भजन में तालिया बजाने में कतराते हे उसे अगले जन्म में परमात्मा हाथ की जगह दो पाँव और देते हे।इसलिए प्रेम से तालिया बजाकर संकीर्तन करो।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
अंत में
बजाओ राधा नाम की ताली
बजाओ श्याम नाम की ताली
समर्पित-राधायुगलकिशोर सेवा में -हरे कृष्ण भक्ति हट्ट

Thursday 29 October 2015

पूर्ण विश्वास

एक-दो वर्ष के बालक को, प्रेम से भरकर, जब उसका पिता, हवा में उछाल देता है तो बालक खूब हँसता-खिलखिलाता है। ऊपर उछलने से, अपने पिता के हाथों से छूटने से, आधार से दूर होने से, उसे पेट में गुदगुदी होती है और वह उस गुदगुदी का भी आनन्द लेता है। भय? भय तो है ही नहीं। क्यों? उसका पिता उसे सँभालने के लिये बाँहें पसारे खड़ा है। बालक गिरेगा तो पिता की बाँहों में ही ! पिता भी उसे कोमलता से ही पकड़ेगा ताकि सुकुमार को कोई पीड़ा न हो जाये ! दोनों ही खेल का आनन्द ले रहे हैं। दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को सुख दे रहे हैं। दोनों का प्रेम और विश्वास अघटन को घटने नहीं देता।
बच्चा जब बड़ा और समझदार हो जाता है तो अब उसे पूर्ण विश्वास नहीं रहता कि उसका पिता आज भी उसे सँभालने योग्य है; आनन्द का स्थान अविश्वास और भय ले लेता है और यही तनिक सा मानसिक अविश्वास उन्हें इस खेल और आनन्द से वंचित कर देता है। बच्चे को विश्वास नहीं; अब उसे भय लगता है तो पिता भी उसे नहीं उछालता किन्तु जगत तो उछालेगा ही और अब स्वयं ही सँभलना है क्योंकि जगत की हर-संभव कोशिश यही है कि गिरो ताकि सीख ले सको कि जगत, विश्वास करने लायक नहीं। माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता।
समझदार और भक्त में यही भेद है कि समझदार प्रयत्न करता है कि गिरुँ तो कम से कम चोट लगे और भक्त छोटे बालक की तरह जीवन-पर्यंत अपने पिता के साथ, खेल का आनन्द लेता है। वह "बड़ा" नहीं होता, "समझदार" नहीं होता, अपना "विश्वास" नहीं खोता, अपने "पिता" को नहीं छोड़ता और पिता भी उसे जगत में रहते हुए भी "जगत के हवाले" नहीं होने देता। उसकी पुकार से पहले, वह उसे गोद में लेने के लिये हर क्षण प्रस्तुत है। भक्त को यह विदित है सो किसी भी परिस्थिति में वह श्रीहरि को स्वयं को बचाने के लिये नहीं पुकारता; वह तो यहीं हैं; मेरे पास ! गिरूँगा भी तो उनकी सुरक्षित गोद में ही !
जय जय श्री राधे !

माँ अपने बालक की बाल-लीलाओं का मधुर रस लेने के लिये

जिस प्रकार माँ अपने बालक की बाल-लीलाओं का मधुर रस लेने के लिये अपने घुटनों चलते बालक की दृष्टि से ओझल होकर किसी ओट में छिप जाती है, केवल यह देखने के लिये कि उसे, उसका कितना स्मरण है या बालक कहीं अपने खेल में ही इतना मग्न तो नहीं हो गया कि उसे अपनी माँ की सुधि ही नहीं है। बालक अपने खेल में मग्न है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, मायावी संसार को देखकर चकित है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ को वह जानना चाहता है, समझना चाहता है, स्पर्श करना चाहता है, उसके भोग का आनन्द लेना चाहता है। माँ ओट से देख रही है कि बालक को अभी उसकी सुधि नहीं है परन्तु वह तो वहीं रहेगी क्योंकि संभव है, बालक अपनी बाल-बुद्धि के कारण अपने को संकट में डाल ले। जैसे ही बालक पुकारेगा उसे ओट से निकल उसके समीप जाना ही है। बालक तो खेल में ऐसा रमा कि बहुत देर हो गयी, माँ ओट में खड़ी-खड़ी प्रतीक्षा कर रही है कि कब बालक, उसे पुकारे और वह दौड़कर उसे अपनी बाँहों में भर ले।
यही स्थिति हमारी और ठाकुरजी की है। कई बार वह अपनी स्मृति दिलवाने को अपने किसी प्रिय को भेजते हैं, संदेश भी भेजते हैं, अन्य रुप धरकर स्वयं भी आ जाते हैं परन्तु हाय रे अज्ञान, हाय हमारी मूढता, हम इन सबको अपने आनन्द में विक्षेप मानते हुए उस पर चिंतन ही नहीं करते, दृष्टिपात ही नहीं करते। जब अपने खेल से उकता जाते हैं, हारने लगते हैं, लगने लगता है कि कुछ भी हमारे वश में नहीं तो क्रन्दन करते हुए उसे उलाहना देने लगते हैं कि ठाकुरजी को हमारी सुधि ही नहीं है।
हे नाथ ! दास को उसके भरोसे मत छोड़ना। जिस प्रकार अपने मंदबुद्धि बालक का सारा भार उसके माता-पिता स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं, सब समय उसे अपनी आँखों के सामने रखते हैं। हे नाथ ! मुझ अधम को आप ऐसा ही समझो। हे स्वामी ! मेरे साथ बिडाल-शावक न्याय ही करिये, दास की क्षमता मर्कट-शावक न्याय के अनुरुप नहीं है। अब जब सुधि दिला दी है तो अब कोई ओट न करो प्रभु ! अब यह माया भरमाती नहीं है। भरमाये भी कैसे? जिसने मायापति को देख लिया, वह अब माया को क्यों देखे, क्या देखे?
शरण दीनबंधु शरण ! राधा शरण !
जय जय श्री राधे !

बड़े भाग मानुष तन पावा

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि " बड़े भाग मानुष तन पावा ।सुर दुर्लभ सदग्रंथनि गावा" अर्थात बड़े भाग्य से, अनेक जन्मों के पुण्य से यह मनुष्य शरीर मिला है जिसकी महिमा सभी शास्त्र गाते हैं कि यह देवताओं के लिए भी कठिन है | सार्थक जीवन मनुष्य जन्म कुछ अच्छा करने के लिए मिला है। इसलिए आज से ही सजग हो जाएं कि यह कहीं व्यर्थ न चला जाए। परमात्मा भी तभी प्रसन्न होता है, जब हम प्रयत्न-पुरुषार्थ और श्रम को एक साथ लेकर जीवन में सद्कार्य करते हैं। जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझते हैं, परंतु अफसोस आज का मानव विषयों के बंधन में फंसकर अपनी कश्ती डुबो रहा है। आदि शंकरचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि इस जीवन के रहते हुए यदि तुमने परमात्मा के नाम का सिमरन नहीं किया, तो तुमसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। नानक देव जी भी कहते हैं कि ऐ मेरे प्यारे बंदों, यदि अब नहीं जगे, तो कब जागोगे? एक बार पांव पसर गए, तो फिर कुछ नहीं हो सकता है। सच तो यह है कि वह परमपिता परमेश्वर हर प्रात: हमारे हृदय मंदिर में शंखनाद करता है कि हे मनुष्य! उठ और उसे प्राप्त कर जिसे प्राप्त करने के लिए मैंने तुझे इस संसार में भेजा है। लेकिन आज का मानव सत्ता, संपत्ति और सत्कार के मद में इतना चूर है कि उसे उसकी ये बात सुनाई नहीं पड़ती हैं। मैं एक निवेदन जरूर करना चाहूंगा कि इस दुनिया में हर कोई अकेला आया है, और अकेला ही जाएगा भी। इसलिए परमात्मा के बही खाते में सबका हिसाब भी अलग-अलग है। ध्यान रखें कि उसे निर्मल और भोले मन वाले लोग ही पसंद हैं। वहां कोई चालाकी या कूटनीति काम नहीं करती। यदि आज आपका कुछ अच्छा हो रहा है, तो इसमें आपके पिछले जन्मों के बोए हुए बीज हैं। आज आप जो बोएंगे, उसे कल काटेंगे। किए हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।जो इस संसार में आया है, उसका जाना भी निश्चित है। यहां कुछ भी शाश्वत नहीं है, सब कुछ क्षणभंगुर है, परिवर्तनशील है। इसलिए इसकी अनित्यता को समझें। यह संसार भोर के टिमटिमाते हुए तारे की तरह है, देखते-देखते नष्ट हो जाता है। मानव जीवन की भी यही स्थिति है। यदि मनुष्य काल रूपी मृत्यु को समझे, तो मुझे विश्वास है कि वह गलतियां कम करेगा। आइए, एक संकल्प लें झूठी अकड़ को छोडऩे का। ऐसा इसलिए क्योंकि बड़ी से बड़ी सफलता मनुष्य को असफलता की खाई में अंतत: पटकेगी। बस, साथ जाएगा तो किया हुआ हमारा सद्कार्य। सेवा की तरफ मानवीयता की रक्षा के लिए यदि हमारे हाथ बढ़ सकेंगे, तो यही हमारी सच्ची पूंजी होगी।मानवता सबसे बड़ा धर्म है ।

Tuesday 27 October 2015

श्रीकृष्ण और बहते दीये



कार्तिक महीने में दीप-दान का चलन है। सभी माताएँ कार्तिक में नदी में दीप बहाती हैं। मैया यशोदा भी दीप-दान के लिए तैयार हुई। कन्हैया ने उन्हें देख लिया और साथ जाने  की जिद्द करने लगे। मैया ने उन्हें अपने साथ ले लिया।
जब मैया यमुना जी में दीप बहा रही थीं तो श्रीकृष्ण यमुनाजी में उतर गए और जहाँ पर घुटने तक पानी था , वहाँ पहुँच गए। और दीये पकड़ कर किनारे पर लाने लगे। मैया यशोदा ने उन्हें देखा और कहा कि ये क्या कर रहे हो ? उन्होंने कहा कि दीये किनारे लगा रहा हूँ। मैया ने कहा कि दीप तो बहने के लिए ही हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि - बहतो को किनारे लगाना ही तो मेरा काम है और वही मैं कर रहा हूँ। मैया कहती है कि इतने असंख्य दीप बहे जा रहे हैं , सब को किनारे किसलिए नहीं लगाते। तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि यही तो राज की बात है। जो बहते हुए मेरे समीप आ जाता है , मैं उसे ही किनारे लगाता हूँ।
हमारा बहाव भी ईश्वर की ओर होना चाहिए , किनारे लगाना उसका काम है।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ।

क्रोधकी अधिकता के नाश का उपाय

क्रोधकी अधिकता के नाश का उपाय पूछा सो निम्नलिखित साधनोँको काममेँ लानेसे क्रोध का नाश हो जाता है ।

१. सब जगह एक वासुदेव भगवान का ही दर्शन करे । जब भगवानको छोड़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीँ रहेगी तब क्रोध किसपर होगा ?

२. यदि सब कुछ नारायण है तब फिर नारायणपर क्रोध कैसे हो ! सबके नारायण स्वरुप होने के कारण मैँ सबका दास हूँ । उस नारायणकी इच्छा के अनुसार ही सब कुछ होता है और वही प्रभु सबकुछ करता है, तब फिर क्रोध किसपर किया जाय?

३. नारायणकी शरण होना चाहिए, जो कुछ होता है सो उसी की आज्ञासे होता है । अपनी इच्छासे करने पर नारायण की शरणागति मेँ दोष आता है । मालिक अपने आप चाहे सो करेँ, मैँ निश्चिन्त हूँ । ऐसी भावना होनी चाहिए । चाहना करनेसे क्रोध होता है । इच्छा बिना क्रोध नहीँ हो सकता ।

४. सब कुछ काल भगवानके मुख मेँ देखना चाहिए । थोड़े दिन के लिए मैँ क्रोध क्योँ करुँ ? संसार सब अनित्य है, समयानुसार सभी का नाश होनेवाला है, जीवन बहुत थोड़ा है, किसी के मनको कष्ट पहुँचे ऐसा काम क्योँ करना चाहिए ?

५. जो अपनेसे बड़ेपर क्रोध आवे तो उससे क्षमा माँगे और उसके चरणोँमेँ गिर जाय और जो वह अपने ऊपर क्रोध करे तो भी उसके चरणोँमेँ गिर जाय तथा हँसकर प्रसन्न मनसे बातेँ करे या चुप हो जाय ।

६. अपने से छोटेपर क्रोध आवे तो उसके हित के लिए केवल दिखानेमात्र के लिए ही वह क्रोध होना चाहिए । अपने स्वार्थ का त्याग होना चाहिए, इच्छा ही क्रोधमेँ हेतु है, इससे इच्छाका नाश हो, ऐसा उपाय करना चाहिए । भगवान के स्वरुप और नाम का चिन्तन हुए बिना ऐसा होना कठिन है |

सेठ जयदयाल जी गोयन्दका, गीताप्रेस गोरखपुर

"राम"

वह चोर है और दन्ड का भागी है

शास्त्रों में वर्णित है कि जो अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है, वह चोर है और दन्ड का भागी है। संभवत: हम इस बात को भी आचरण की अपेक्षा स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर गृह के मुख्य कक्ष में टँगवा देना उचित समझेंगे ताकि प्रियजनों/आगन्तुकों को हमारे चिंतन की क्षमता की जानकारी हो सके।
कभी चिंतन करें कि प्रभु ने वास्तव में हमें बनाया ही ऐसा है कि हम स्वभावत: विरक्त ही हैं, आसक्त नहीं। यह आसक्ति तो हमारे भ्रमित होने के कारण ही है। यह नश्वर देह तक श्रीहरि-कृपा से विरक्त है, आसक्त नहीं ! इस देह को पोषण देने हेतु हम जो अन्नादि ग्रहण करते हैं, वह तक रक्त-मज्जा-रसादि में परावर्तित होकर इस देह को पुष्ट करता है और उपयोग के बाद यह देह स्वत: ही अवशिष्ट पदार्थों को मल-मूत्र के रुप में देह से पृथक कर देती है परिणामस्वरुप यह देह पुष्ट और निरोगी बनी रहती है।
कल्पना करें कि यह देह भोजन को जिस रुप में ग्रहण किया है, वैसे ही पेट में संग्रह कर ले......जल भी पेट में ही संग्रहीत हो जावे तो? मुख ही संग्रह कर ले, गले से नीचे न उतरने दे तो? गले में संग्रहीत हो जाये, आँतों में पाचन के लिये न जाये तो? आँतें ही उसे पचाकर रस-रुप में परिणीत न करें तो? उस रस का यथायोग्य निस्तारण न करें तो? सब कुछ स्वत: ही हो रहा है, सब अपना कार्य पूरी क्षमता से कर रहे हैं बिना किसी लोभ-लालच के, बिना संग्रह की अभिलाषा के और परिणाम? स्वस्थ देह जिसके द्वारा यहाँ कुछ "विशेष कार्य" करना है। आज भरपेट भोजन मिला, कल का पता नहीं कि ऐसा सुस्वादु भोजन मिले न मिले तो क्या शरीर के आन्तरिक अंगों को संग्रह कर लेना चाहिये? कल की अनिश्चितता ही तो संग्रह की भावना को पुष्ट करती है। इसका एक ही अर्थ है कि हम "आज" में नहीं जीते। जिसने आज दिया है, वह कल भी देगा, यदि यह देह रही तो। इस नश्वर देह के अंग-प्रत्यंग तक हमें स्मरण कराते रहते हैं कि आवश्यकतानुसार उपभोग करो, शेष आगे बढ़ा दो और जब तक चेतना है तब तक यही करते रहो। जब कभी एक बेला अथवा एक दिन भी हमारा पेट "संग्रह" कर लेता है तो हम उसकी पीड़ा तक सहन नहीं कर पाते और येन-केन-प्रकारेण उस पीड़ा से छुटकारा पाने के लिये भागे-भागे फ़िरते हैं और जीवन व्यर्थ-निरर्थक प्रतीत होने लगता है और उससे छुटकारा पाने पर ही शांति मिलती है। हम सोचते हैं कि ऐसा क्या खाया-पिया, जिसके कारण यह पीड़ा भोगनी पड़ी। खूब चिंतन करके हम तय कर लेते हैं कि भविष्य में हम "अमुक" खाद्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करेंगे ताकि दोबारा कभी ऐसी पीड़ा न सहनी हो। यहीं चिंतन करना है कि जब देह का एक अंग संग्रह करे तो क्या होता है तो इस संपूर्ण देह का मन-बुद्धि-अहंकार के द्वारा प्रयोग करते हुए हम सांसारिक भोग-विलास की वस्तुओं को येन-केन-प्रकारेण संग्रह कर रहें हैं तो उसका कैसा भयंकर दुष्परिणाम होगा? हमें चिंतन करना है कि ऐसा क्या किया था जिसके कारण अब तक चौरासी के फ़ेर में भटक रहे हैं? किससे बचना है ताकि यह पीड़ा दोबारा न हो। क्या "संग्रह" करना है जो साथ जा सके ! जब संसार में आये तो मुठ्ठी बाँधे अर्थात कुछ न कुछ लाये अवश्य थे, भले ही दृष्य़मान न हो किन्तु गये तो खाली हाथ पसारे, जबकि संग्रह किया बहुत कुछ दृष्यमान !
पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे।
जय जय श्री राधे !

महत्व बुद्धि जिसकी जहाँ , होती

महत्व बुद्धि जिसकी जहाँ , होती " रोटीराम "।
वह व्यक्ति करता वही , अन्य न दूजा काम।।
हाँ ! कुछ दिन रुक जाएगा, कुछ दिन दे भी छोड।
पर महत्व बुद्धि उसे , उधर ही देगी मोड।।
कितना भी रोको उसे , समझा या फटकार।
कर्म के दोष गिनाइये , वह नहीं करे विचार।।
हटा नहीं वह पाएगा , उन कामों से टेक।
महत्व बुद्धि ले छीन सब , उसके बुद्धि - विवेक।।
 

 अक्सर जब सत्संगी लोग आपस में चर्चा कर रहे होते हैं , तो उनमें एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से चल पडता है कि , आप इस लाइन में कब से हैं , सब एक दूसरे से पूछ ही लेते हैं ।
लेकिन जब जबाव सामने निकल कर आते हैं तो , कई बार वे एक दूसरे का चेहरा बडे आश्चर्य से देखते हैं कि , उनमें से कई भाइयों को 15 से 20 - 25 साल तक सत्संग सुनते , कथाऐं श्रवण करते व धाम वास करते - करते हो गए , और करीब 80 % लोग साल के 1 से लेकर 4 महीने तक धामों में रह कर यह सब कर रहे होते हैं , उनको भी आते - जाते 5 से 25 साल हो गए , लेकिन कोई भी उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया , जिसको कि प्राप्त करने को वे यहां आए थे , या आ - जा रहे हैं । जिसकी कि गिनती सच्ची भक्ति में होती है ।
तो तब वहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि , ऐसा क्यों ? हुआ । 

पूछने पर सद्संत जवाब देते हैं कि ,
ऐसा जीव की महत्व बुद्धि की वजह से होता है ।
ये जो 20 % हैं , इनकी यहां रहते - रहते महत्व बुद्धि ईश्वर से हटकर शरीर में हो जाती है , दो चार साल तक तो सब ठीक चलता है , लेकिन उसके बाद इनके सारे प्रयास धामों की खुली हवा और नदियों के निर्मल जल का सेवन करके शरीर को स्वस्थ रखने तक ही सिमट कर रह जाते है , या फिर बहू बेटों के तानों से बचने तक । फिर इनकी प्राथमिकता ईश्वर भक्ति नहीं रह जाती । 

भक्ति फैले तो कैसे ? ।
और जो ये 80 % हैं , इनकी महत्व बुद्धि होती तो घर - परिवार और व्यापार में ही है , ये तो सीजन की समाप्ति पर बस picnic मनाने के प्रयोजन से आते हैं , और नौकरी पेशा लोग सरकारी छुट्टियों को cash कराने के लिए । इनकी महत्व बुद्धि जब सत्संग है ही नहीं तो , सत्संग की सीख हृदयस्थ हों तो कैसे ?
भजन तो केवल उसी से होगा , जिसकी महत्व बुद्धि अपने कल्याण में होगी । 

ज्यादातर तो अपने आप से दुश्मनी ही ठाने होते हैं ।

क्या आपने जंजीर खोल ली..???


एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे-से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गये और शराब-घर से बाहर निकले तो चांद की बरसती चांदनी में उन्हें यह खयाल आया कि नदी पर जायें और नौका-विहार करें।रात बड़ी सुन्दर और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गये। नाव वहां बंधी थी। मछुए नाव बांधकर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी।वे एक नाव में सवार हो गये। उन्होंने पतवार उठा ली और नाव खेना शुरू किया। फिर वे रात देर तक नाव खेते रहे। सुबह की ठण्ड़ी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। जब उनका नशा कुछ कम हुआ तो उनमें से किसी ने पूछा, ‘‘कहां आ गये होंगे अब तक हम। आधी रात तक हमने यात्रा की, न-मालूम कितनी दूर तक निकल आये होंगे। नीचे उतर कर कोई देख ले कि किस दिशा में हम चल रहे हैं, कहां पहुंच रहे हैं?”जो नीचे उतरा था, वह नीचे उतर कर हंसने लगा। उसने कहा, ‘‘दोस्तो! तुम भी उतर आओ। हम कहीं भी नहीं पहुंचे हैं। हम वहीं खड़े हैं, जहां रात नाव खडी थी। ”वे बहुत हैरान हुए। रात भर उन्होंने पतवार चलायी थी और पहुंचे कहीं भी नहीं थे! नीचे उतर कर उन्होंने देखा तो पता चला, नाव की जंजीरें किनारे से बंधी रह गयी थीं, उन्हें वे खोलना भूल गये थे!जीवन भी, पूरे जीवन नाव खेने पर, पूरे जीवन पतवार खेने पर कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। मरते समय आदमी वहीं पाता है स्वयं को, जहां वह जन्मा था! ठीक उसी किनारे पर, जहां आंख खोली थी- आंख बंद करते समय आदमी पाता है कि वहीं खड़ा है। और तब बड़ी हैरानी होती है कि इतनी जो दौड़- धूप की, उसका ०क़ हुआ? वह जो प्रण किया था कहीं पहुंचने का, वह जो यात्रा की थी कहीं पहुंचने के लिए, वह सब निष्फल गयी! मृत्यु के क्षण में आदमी वहीं पाता है अपने को, जहां वह जन्म के क्षण में था! तब सारा जीवन एक सपना मालुम पड़ने लगता है। नाव कहीं बंधी रह गयी किसी किनारे से।हां, कुछ लोग-कुछ सौभाग्यशाली लोग, मरते क्षण वहां पहुंच जाते हैं, जहां जीवन का आकाश है, जहां जीवन का प्रवास है, जहां सत्य है, जहां परमात्मा का मंदिर है। लेकिन, वहां वे ही लोग पहुंचते हैं, जो किनारे से, खूंटे से जंजीर खोलने की याद रखते हैं।

हे भगवन्! हे माधव ! आपकी कृपा

हे भगवन्!  हे माधव ! आपकी कृपा के बिना आपकी  माया का ओर - छोर पता नहीं  किया जा सकता । चाहे  कितने ही प्रयास कर लें । यद्यपि मैं  माया के बारे में  चिंतन करता हूं,  सुनता भी हूं,  समझता भी हूं और  लोगों  को समझाता  भी हूं,  लेकिन  इसका रहस्य  क्या हैं  ?  यह समझ में  नहीं  आता । आपकी इस माया को समझे बिना उस ब्रह्म  तत्व  की प्राप्ति  नहीं  होती जिसके अभाव में  प्राणी इस संसार में  भटकता रहता है। अनेक प्रकार की भीषण विपदाएं जिसे सदैव पीड़ित करती रहती है। ब्रह्मामृत शीतल व मधुर है। यदि यह रस इस मन को मिल जाए तो भला यह मृग- मरीचिका रूपी जल अर्थात  संसारिकता की ओर क्यों  दौड़े  ?  यद्यपि  भक्ति - ज्ञान  आदि  अनेक साधन हैं और सब सत्य भी हैं,  लेकिन मुझे पूर्ण  विश्वास  है कि ईश्वर की कृपा के बिना भ्रम का निवारण नही होता ।।

माधव ! असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय  पचि मारिय तरिय नहिं,  जब लगि करहु न दाया।।
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय,  दसा हृदय नहिं  आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै।
ब्रह्म पियूष मधुर सीतल जो पैर मन सो रस पावै।।
तौ कत  मृगजल रूप बिषय कारन निसि बासर धावै।।
जेहि के भवन बिमल चिंतामनि सो कत कांच बटोरै।।
सपने परबस परै जागि देखत केहि जाइ निहोरै।।
ग्यान-भगति साधन अनेक सब सत्य झूठ कछू नाहीं ।
तुलसीदास  हरिकृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मन माहीं ।।

सीधा बोलो, सीधा चलो, सीधा देखो, सीधा ही व्यवहार करो।

सीधा बोलो, सीधा चलो, सीधा देखो, सीधा ही व्यवहार करो।
दूसरे क्या? कर रहे हैं, यह मत देखो।
क्योंकि दूसरों को देखोगे तो खुद को नहीं देख पाओगे।
उन्हें उनके हाल पर छोड कर अपना लक्ष्य
अपने कल्यान को बनाकर शास्त्रानुसार कर्म किए जाओ।
कल्यान सौ प्रतिशत हो कर रहेगा।
भगवत कृपा साधनों से नहीं होती,
बल्कि आपके हृदय की सच्ची लगन से होती है।
साधन तो बहुतों ने बैंक बैलेंस व कोठी बंगलों के रूप में
सभी धामों में इकट्ठे किए हुए हैं,
लेकिन ललक पैदा नहीं कर पाए,
सो सभी साधन धरे के धरे रह गए।
जैसे छोटा बच्चा कोई साधन नहीं करता,
लेकिन चिंतन हमेशा बस माँ का ही रहता है,
यानी माँ से मिलन की ललक हमेशा बनी ही रहती है,
तो माँ भी जरा सा रोते ही, बालक को तुरंत गोदी में उठा लेती है।
वैसे ही भगवत कृपा के लिए साधन नहीं,  ललक चाहिए।
कृपा तो सहज सुलभ है।

जो जीव संसार में आया है

यह कितना आश्चर्यजनक है कि,
जो जीव संसार में आया है, वह कितना पढेगा,
शादी होगी या नहीं, बच्चे होंगे या नहीं,
धनवान बनेगा या नहीं, बच्चों से सुख ही मिलेगा,
इस हर वाबत अनिश्चित है,
मगर मरेगा, और कभी भी मर सकता है,
इस वाबत वह विल्कुल अनिश्चय की स्थिति में नहीं है।
फिर भी सभी भक्ति - भजन - सत्संग को कल पर और
कल पर ही टालते जाते हैं।
अब तक सैकडों कोफूँक चुके हैं, और फूँकने की तैयारी में हैं,
लेकिन मुझे भी कल यहीं आना है,
और इनकी तरह खाली ही जाना है,
जानते हुए भी, दिमाग पर जरा भी जोर नहीं देते,
मानो बुध्दि-विवेक को गिरवी रख दिया हो और तो और,
ज्ञानी ध्यानी भी भूले हुए हैं।
बृह्मनिष्ठ - वेदांती , भी कर रहे यह चूक।
जबकि हरि ने वख्श दी, है एक दवा अचूक।।
इन्हें, ये बृह्म को जानते, नहीं देह मैं, इसका भान।
फिर भी संसारी समाँ, जग के प्रति रुझान।।

Saturday 24 October 2015

मानव जीवन का लक्ष्य

नदी में हाथी की लाश बही जा रही थी। एक कौए ने लाश देखी, तो प्रसन्न हो उठा, तुरंत उस पर आ बैठा। यथेष्ट मांस खाया। नदी का जल पिया। उस लाश पर इधर-उधर फुदकते हुए कौए ने परम तृप्ति की डकार ली। वह सोचने लगा, अहा! यह तो अत्यंत सुंदर यान है, यहां भोजन और जल की भी कमी नहीं। फिर इसे छोड़कर अन्यत्र क्यों भटकता फिरूं?
कौआ नदी के साथ बहने वाली उस लाश के ऊपर कई दिनों तक रमता रहा। भूख लगने पर वह लाश को नोचकर खा लेता, प्यास लगने पर नदी का पानी पी लेता। अगाध जलराशि, उसका तेज प्रवाह, किनारे पर दूर-दूर तक फैले प्रकृति के मनोहरी दृश्य-इन्हें देख-देखकर वह विभोर होता रहा।
नदी एक दिन आखिर महासागर में मिली। वह मुदित थी कि उसे अपना गंतव्य प्राप्त हुआ। सागर से मिलना ही उसका चरम लक्ष्य था, किंतु उस दिन लक्ष्यहीन कौए की तो बड़ी दुर्गति हो गई। चार दिन की मौज-मस्ती ने उसे ऐसी जगह ला पटका था, जहां उसके लिए न भोजन था, न पेयजल और न ही कोई आश्रय। सब ओर सीमाहीन अनंत खारी जल-राशि तरंगायित हो रही थी।
कौआ थका-हारा और भूखा-प्यासा कुछ दिन तक तो चारों दिशाओं में पंख फटकारता रहा, अपनी छिछली और टेढ़ी-मेढ़ी उड़ानों से झूठा रौब फैलाता रहा, किंतु महासागर का ओर-छोर उसे कहीं नजर नहीं आया। आखिरकार थककर, दुख से कातर होकर वह सागर की उन्हीं गगनचुंबी लहरों में गिर गया। एक विशाल मगरमच्छ उसे निगल गया।
शारीरिक सुख में लिप्त मनुष्यों की भी गति उसी कौए की तरह होती है, जो आहार और आश्रय को ही परम गति मानते हैं और अंत में अनन्त संसार रूपी सागर में समा जाते है।

जीत किसके लिए, हार किसके लिए
ज़िंदगीभर ये तकरार किसके लिए....
जो भी आया है वो जायेगा एक दिन
फिर ये इतना अहंकार किसके लिए.
अंधेरे में अपनी छाया साथ नहीं देती...
बुढा़पे में अपनी काया साथ नहीं देती ।
सारा जीवन दाव पर लगा दीया जीसके लीए
अन्त समय वो धन-माया साथ नहीं देती ।

Friday 23 October 2015

सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र।

" गीता ज्ञान "
सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र।
क्योंकि है फल , हरि हाथ में,यह गीता का मंत्र।।
जो "उन" सत्ता मान के , दें कर्मो को अंजाम।
वे ही कर पाते यहाँ ,सच में अच्छे काम।।
जो न मानते सूत्र ये , अरु गीता सिद्धांत।
उनसे मैले कर्म हों ,अरु मन - बुद्धि अशान्त।।
चूँकि महत्ता हो वहाँ , मन की " रोटीराम "।
सो वे वह -वह ही करें,जो करवाए मन काम।।
(भगवान कृष्ण ने गीता 2 /47 में कहा है )
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सन्गोऽस्त्व कर्मणि।।
अर्थ - जीव का अधिकार केवल नए कर्म करने  में है , उसके फलों में नहीं ।अतः हे अर्जुन तू कर्मफल का हेतु भी मत बन , और कर्म  करने में अनासक्त भी मत हो ।
व्याख्या - कर्म करना और किस कर्म का क्या?
फल मिलेगा , ये दोनों अलग - अलग विभाग हैं , कर्म करना तो मनुष्य के  अधीन है , लेकिन किस कर्म का क्या?
फल हो, यह होना प्रारब्ध यानी परमात्मा  के अधीन है ।
प्रारब्धानुसार यानी परमात्मा  के विधानानुसार मनुष्य को जो मिला है, उसे अपनी भूल अथवा अपनी ही अच्छाई मानकर उसमें ही सन्तोष कर लेना ही  मनुष्य के लिए लाभप्रद है ।

Thursday 22 October 2015

सुख और दुःख प्रभु की ही कृपा और कोप का परिणाम ही तो हैं।

एक बार भगवान राम और लक्ष्मण एक सरोवर में स्नान के लिए उतरे उतरते समय उन्होंने अपने- अपने धनुष बाहर तट पर गाड़ दिए
जब वे स्नान करके बाहर निकले तो लक्ष्मण ने देखा की उनकी धनुष की नोक पर रक्त लगा हुआ था !
उन्होंने भगवान राम से कहा -"
भ्राता ! लगता है कि अनजाने में कोई हिंसा हो गई ।"
दोनों ने मिटटी हटाकर देखा तो पता चला कि वहां एक मेढ़क मरणासन्न पड़ा है ।
भगवान् राम ने करुणावश मेंढक से कहा- " तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? कुछ हलचल,छटपटाहट तो करनी थी। हम लोग तुम्हे बचा लेते जब सांप पकड़ता है तब तुम खूब आवाज लगाते हो । धनुष लगा तो क्यों नहीं बोले ?
मेंढक बोला - प्रभु ! जब सांप पकड़ता है तब मैं ' राम- राम ' चिल्लाता हूँ एक आशा और
विश्वास रहता है प्रभु अवश्य पुकार सुनेंगे।
पर आज देखा की साक्षात् भगवान् श्री राम स्वयं धनुष लगा रहे है तो किसे पुकारता ?
आपके सिवा किसी का नाम याद नहीँ आया बस इसे अपना सौभाग्य मानकर चुपचाप सहता रहा ।"
सच्चे भक्त जीवन के हर क्षण को भगवान् का आशीर्वाद मानकर उसे स्वीकार करते हैं
सुख और दुःख प्रभु की ही कृपा और कोप का परिणाम ही तो हैं।
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एक बार प्रेम से कह दो ..
जयश्रीराम...

बड़ी अजीब घटना हुई थी- एक योगी और एक वेश्या

एक नगर में एक दिन दो मृत्यु हो गई थी! बड़ी अजीब घटना हुई थी१ एक योगी और एक वेश्या ----दोनों एक ही दिन एक ही घडी में संसार से चल दिए थे! दोनों का आवास भी आमने-सामने ही था! दोनों जीए भी साथ ही साथ और मरे भी साथ ही साथ! एक और गहरा आशचर्य भी था! वह तो योगी और वेश्या को छोड़ और किसी को ज्ञात नहीं है! जैसे ही उनकी मृत्यु हुई, वैसे ही उन्हें ले जाने के लिए ऊपर से दूत आए, लेकिन वे दूत वेश्या के लेकर स्वर्ग की और चले और योगी को लेकर नर्क की और! योगी ने कहा: "मित्रो, निशचय ही कुछ भूल हो गई है! वेश्या को स्वर्ग की और लिये जाते हो और मुझे नर्क की और? यह कैसा अन्याय है--यह कैसा अंधेर है?" उन दूतों ने कहा: "नहीं महानुभाव, न भूल है न अन्याय, न अंधेर! कृपाकर थोड़ा नीचे देखें!" योगी ने नीचे धरती की और देखा! वहां उसके शरीर को फूलों से सजाया गया था और उसका विशाल जलूस निकाला जा रहा था! हजारों-हजारों लोग रामधुन गाते हुए, उसके शरीर को शमशान की और ले जा रहे थे! वहां उसके लिए चंदन की चिता तैयार थी, और दूसरी और सड़क के किनारे वेश्या की लाश पड़ी थी! उसे कोई उठानेवाला भी नहीं था, इसलिए गीध और कुत्ते उसे फाड़-फाड़कर खा रहे थे!
यह देख वह योगी बोला: "धरती के लोग ही कहीं ज्यादा न्याय कर रहे है!"
उन दूतों ने उत्तर दिया: "क्योंकि धरती के लोग केवल वही जानते है, जो बाहर था! शरीर से ज्यादा गहरी उनकी पहुंच नहीं! असली सवाल तो शरीर का नहीं, मन का है! शरीर से तुम सन्यासी थे, किंतु मन में तुम्हारे क्या था? क्या सदा ही तुम्हारा मन वेश्या में अनुरक्त नहीं था? क्या सदा ही तुम्हारे मन में यह वासना नहीं जागती रही कि उधर वेश्या के घर में कैसा सुंदर संगीत और नृत्य चल रहा है, वहां बड़ा आनंद आता होगा और मेरा जीवन कैसा नीरस है! और उधर वह वेश्या थी! वह निरंतर ही सोचती थी कि योगी का जीवन कैसा आनंदपूर्ण है! रात्रि को जब तुम भजन गाते थे तो वह भाव-विभोर हो रोती थी! इधर सन्यासी के अहंकार से तुम भरते जा रहे थे, उधर पाप की पीड़ा से वह विनम्र होती जाती थी! तुम अपने तथाकथित ज्ञान के कारण कठोर होते गए और वह अपने अज्ञान-बोध के कारण सरल! अंतत तुम्हारा अहंकारग्रस्त व्यक्तित्व बचा और उसका अहंशून्य! मृत्यु के क्षण में तुम्हारे चिट में अहंकार था, वासना थी! उसके चिट में न अहंकार था, न वासना! उसका चिट तो परमात्मा के प्रकाश, प्रेम और प्रार्थना से परिपूर्ण था!" जीवन का सत्य बाह्य आचरण में नहीं है! फिर बाह्य के परिवर्तन से क्या होगा?
सत्य है बहुत आंतरिक---आत्यंतिक रूप से आंतरिक! उसे जानने और पाने के लिए व्यक्तित्व की परिधि पर नहीं, केंद्र पर श्रम करना होता है! उस केंद्र को खोजो! खोजने से वह निश्चय ही मिलता है, क्योंकि वह स्वयं में ही तो छिपा है!

जय श्री कृष्णा

यह पात्र मनुष्य के ह्रदय से बना है

प्रेरणादायक कहानी
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प्राचीन काल में एक राजा का यह नियम था कि वह अनगिनत संन्यासियों को दान देने के बाद ही भोजन ग्रहण करता था. एक दिन नियत समय से पहले ही एक संन्यासी अपना छोटा सा भिक्षापात्र लेकर द्वार पर आ खड़ा हुआ. उसने राजा से कहा – “राजन, यदि संभव हो तो मेरे इस छोटे से पात्र में भी कुछ भी डाल दें.”

याचक के यह शब्द राजा को खटक गए पर वह उसे कुछ भी नहीं कह सकता था. उसने अपने सेवकों से कहा कि उस पात्र को सोने के सिक्कों से भर दिया जाय. जैसे ही उस पात्र में सोने के सिक्के डाले गए, वे उसमें गिरकर गायब हो गए. ऐसा बार-बार हुआ. शाम तक राजा का पूरा खजाना खाली हो गया पर वह पात्र रिक्त ही रहा. अंततः राजा ही याचक स्वरूप हाथ जोड़े आया और उसने संन्यासी से पूछा – “मुझे क्षमा कर दें, मैं समझता था कि मेरे द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जा सकता. अब कृपया इस पात्र का रहस्य भी मुझे बताएं. यह कभी भरता क्यों नहीं?”

संन्यासी ने कहा – “यह पात्र मनुष्य के ह्रदय से बना है. इस संसार की कोई वस्तु मनुष्य के ह्रदय को नहीं भर सकती. मनुष्य कितना ही नाम, यश, शक्ति, धन, सौंदर्य, और सुख अर्जित कर ले पर यह हमेशा और की ही मांग करता है. केवल ईश्वरीय प्रेम ही इसे भरने में सक्षम है.”

Wednesday 21 October 2015

जो होता है अच्छा होता है l


समुद्र के किनारे एक गांव था। जहां अमूमन मछुआरे रहते थे।
वह अपनी नावें लेकर दूर-दूर तक गहरे समुद्र की ओर निकल पड़ते।
एक दिन ऐसी ही स्थिति में तूफान आ गया। मछुआरों की नावें रास्ता भटक गईं।
ऐसे में मछुआरों के परिजन समुद्र किनारे आकर उनके सकुशल की उम्मीद करने लगे।
वे सभी दुःखी थे। तभी एक और दुःखद घटना घट गई।
एक मछुआरे की झोपड़ी में आग लग गई।
महिलाओं ने आग बुझाने की कोशिश की लेकिन वो नाकाम रहीं।
सुबह हुई सभी मछुआरे वापस आ गए।
लेकिन जिस घर में आग लगी थी।
उस मछुआरे की पत्नी ने अपने पति से कहा, हम बर्बाद हो चुके हैं क्योंकि कल रात हमारे घर में आग लग गई थी। अब कुछ भी नहीं बचा है।
यह सुनकर उसके पति के खुशी का ठिकाना न रहा वह बोला ईश्वर का धन्यवाद हो, 'रात में जलती हुई झोपड़ी देखकर ही तो हम अपनी नावें किनारे पर लगा पाए। अगर ऐसा नहीं होता तो हम समु्द्र में खो जाते।'

संक्षेप में जो होता है अच्छा होता है,
बस आपका नजरिया उस अच्छे को सही दिशा में पहचान ले।

Tuesday 20 October 2015

ज्ञान प्राप्ति सदा ही समर्पण से होती है

ज्ञान प्राप्ति सदा ही समर्पण से होती है... ये हम सब जानते हैं। 
किन्तु समर्पण का वास्तविक महत्व क्या है???

क्या हमने कभी विचार किया???

मनुष्य का मन सदा ही ज्ञान प्राप्ति में विभिन्न बाधाओं को उत्पन्न करता है। जैसे... कभी किसी अन्य विद्यार्थी से ईर्ष्या हो जाती है, तो कभी - कभी पढ़ाये हुए पाठों पर सन्देह जन्मता है, और कभी गुरु द्वारा दिया गया दण्ड मन को अहंकार से भर देता है।

विचार कीजिए... क्या ऐसा नहीं होता???

न जाने कैसे - कैसे विचार मन को भटकाते हैं, और मन की इसी अयोग्य स्थिति के कारण, हम ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते... मन की योग्य स्थिति केवल समर्पण से निर्मित होती है। समर्पण मनुष्य के अहंकार का नाश करता है। ईर्ष्या, महत्वकांशा आदि भावनाओं को दूर कर... ह्रदय को शान्त और मन को एकाग्र करता है।

वास्तव में ईश्वर की सृष्टि में... न ज्ञान की मर्यादा है और न ज्ञानियों की...

गुरु दत्तात्रेय ने तो गाय और समस्त प्रकृति से भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

अर्थात विषय ब्रम्ह ज्ञान का हो या जीवन के ज्ञान का या गुरुकुल में प्राप्त होने वाले ज्ञान का... उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु से अधिक महत्व है, उस गुरु के प्रति हमारा समर्पण...

क्या यह सत्य नहीं....?

स्वंय विचार कीजिए!!!!

.जय श्री कृष्ण

भय... ह्रदय का कारावास है

भय... ह्रदय का कारावास है और अभिमान उस कारावास पर लगा ताला...

आप स्वंय को देखिये अभिमान से बंधे व्यक्ति के ह्रदय में प्रेम प्रवेश ही नहीं कर पाता... कई मनुष्य अभिमान को अपने जीवन का मन्त्र बना लेते हैं। जीवन का प्रत्येक क्षण वह विताते हैं अपने अभिमान को बढ़ाने में...

किन्तु वास्तव में अभिमान क्या है?

क्या कभी आपने विचार किया है???

अभिमानी व्यक्ति दूसरों से सम्मान मांगता है। सबके मुख पर वो अपने महानतम की प्रशंसा सुनना चाहता है। अपनी शक्ति का वखान सुनने की इच्छा रखता है।

अर्थात अपनी शक्ति का प्रमाण वो दूसरों से मांगता है। उसे स्वंय अपने आप पर विश्वास ही नहीं होता। उसके ह्रदय में भय होता है कि वो दुर्बल है। उसके पास वास्तव में कोई शक्ति ही नहीं...

अर्थात उसी के मन में अभिमान होता है जिसके मन में भय होता है। क्या वास्तव में अभिमान भय का दूसरा नाम नहीं???

स्वंय विचार कीजिए।
जय श्री कृष्ण

Monday 19 October 2015

एक कहानी जो आपके जीवन से जुडी है ।


ध्यान से अवश्य पढ़ें--
एक अतिश्रेष्ठ व्यक्ति थे एक दिन उनके पास एक निर्धन आदमी आया और बोला की मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये ,मैं उसमें खेती करूँगा और खेती करके कमाई करूँगा |
वह अतिश्रेष्ठ व्यक्ति बहुत दयालु थे |
उन्होंने उस निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया और साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये और कहा की इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो,   खेती करने में आसानी होगी, इस से तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे।
वो निर्धन आदमी ये देख के बहुत खुश हुआ की उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये।   लेकिन वो आदमी अपनी इस ख़ुशी में बहुत खो गया,और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे और वह निर्धन आदमी अपनी ख़ुशी में डूबा रहा, और जब फसल काटने का समय आया तो देखा की फसलबहुत ही ख़राब हुई थी , उन पांच किसानो ने खेत का उपयोगअच्छे से नहीं किया था न ही अच्छे बीज डाले ,जिससे फसल अच्छी हो सके |   जब वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस माँगा तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला कि मैं बर्बाद हो गया , मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका।
अब यहाँ ध्यान दीजियेगा-
वह अतिश्रेष्ठ दयालु व्यक्ति हैं -''मेरे प्रभु"
निर्धन व्यक्ति हैं -"हम"
खेत है -"हमारा शरीर"
पांच किसान हैं हमारी इन्द्रियां--आँख,कान,नाक,जीभ और मन |
प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल(कर्म) करने को दिया है और हमें इन पांच किसानो को अर्थात इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहियें ,  जिससे जब वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब  करें तो हमें रोना न पड़े।

Sunday 18 October 2015

सारे सपने, सारी आशायें, सारे द्रश्य... आदि ध्वस हो जाते हैं

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसा क्षण अवश्य आता है। जब सारे सपने, सारी आशायें, सारे द्रश्य... आदि ध्वस हो जाते हैं। जीवन के सारे आयोजन ही बिखर जाते हैं।

(जब एक ओर धर्म होता है और दूसरी ओर सुख)

जब धर्म का वहन(पालन) ही संकट हो और धर्म का त्याग ही सुख हो.... इसी को "धर्म संकट" कहते हैं!

आप विचार कीजिए!

कभी किसी सज्जन के विरुद्ध सत्य बोलने का अवसर प्राप्त हो जाता है। कभी ठीक दरिद्रता के समय सरलता से चोरी करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है। कभी किसी शक्तिशाली राजनेता या राजा के कर्मचारी का अधर्म प्रकट हो जाता है। सबके जीवन में ऐसी घटना बनती ही रहती हैं।

अधिकतर लोग ऐसे ही किसी क्षण को "धर्म संकट" के रूप में जान ही नहीं पाते... हमे किसी भी प्रकार के संघर्ष का अनुभव ही नहीं होता... हम तो सहजता से सुख की ओर खींचे चले जाते हैं। जैसे मक्खी गुड़ की ओर खींची चली जाती है।

वास्तव में "धर्म संकट" का क्षण... ईश्वर के निकट जाने का क्षण होता है। यदि हम संघर्षों से भयभीत न हों और सुख की ओर आकर्षित न हों। अपने धर्म पर दृढ़(डटें) रहें। तो ईश्वर का साक्षात्कार दूर नहीं.... जैसे पवन से युद्ध करने वाला पत्ता यदि पेड़ से गिरता है। तो भी आकाश की ओर उठता है। और पवन से झुकने वाली घास वहीँ भूमि पर रह जाती है।

अर्थात "धर्म संकट" से यदि हम संकट को ही टाल दें... तो सुख तो मिलता है, और जीवन भी बढ़ता है। किन्तु...

क्या चरित्र नहीं टूटता???
क्या आत्मा दरिद्र नहीं हो जाती???
क्या ईश्वर से अंतर नहीं हो जाता???

स्वंय विचार कीजिए!!!!

जय श्री कृष्ण

The 99 Club

Really Worth Reading ( Nice Message):-

Once upon a time, there lived a King who, despite his luxurious lifestyle, was not happy at all.

One day, the King came upon a servant who was singing happily while he worked. This fascinated the King; Why was he, the Supreme Ruler of the Land, unhappy and gloomy, while a lowly servant had so much joy?

The King asked the servant, 'Why are you so happy?'

The man replied, 'Your Majesty, I am nothing but a servant, but my family and I don't need too much - just a roof over our heads and warm food to fill our tummies.'

The king sought the advice of his most trusted advisor. After hearing the story, the advisor said, 'Your Majesty, the servant has not yet joined "The 99 Club".'

'The 99 Club?
And what is that?' the King inquired.

The advisor replied, 'To truly know what The 99 Club is, just place 99 Gold coins in a bag and leave it at this servant's doorstep.'

When the servant saw the bag, he let out a great shout of joy... so many gold coins. He began to count them. After several counts, he was at last convinced that there were only 99 coins.

He wondered, 'What could've happened to that last gold coin? Surely, no one would leave 99 coins!'

He looked everywhere, but that final coin was elusive. Finally he decided that he was going to work harder than ever to earn that 100th gold coin.

From that day, the servant was a changed man. He was overworked, grumpy, and blamed his family for not helping him make that 100th gold coin.

And he had stopped singing while he worked.

Witnessing this drastic transformation, the King was puzzled. The advisor said, 'Your Majesty, the servant has now officially joined The 99 Club.'

He continued, 'The 99 Club is a name given to those people who have enough to be happy but are never content, because they're always wanting that extra 1, saying to themselves:

"Let me get that one final thing and then I will be happy for life."

We can be happy with very little in our lives, but the minute we're given some thing bigger and better, we want more ...and even more! We lose our sleep, our happiness, as the price for our growing needs and desires.

That's "The 99 Club"...
Zero Membership fee to enter, but you pay for it with your entire life!....Shivam:)

उपदेश - अर्जुन के हृदय का सब सन्देह मिट गया



भीष्म पितामह के इस विश्वास की दृढ़ता और सचाई की कसौटी में उत्साह देने के लिये उनके साथी बने। जब महाभारत में दोनों दलों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गईं और सम्बन्धियों और मित्रों को लड़ने के लिये और मरने के लिये तैयार देखकर अर्जुन के मन में विषाद हुआ कि लड़ाई न लड़ें, तब भगवान् कृष्ण ने उनको यह ऊँचा उपदेश दिया जो भगवद्गीता के नाम से जगत् को पावन कर रहा है।
Grandfather Bheeshma became KR^shNa's companion to deepen his faith in the Lord, and to test whether all these things are true.  When, in the MahAbhArata war, the two armies faced each other, and the war was to begging where warriors were going to destroy relatives and friends, then Prince aRjjuna was affected by depression, and then BhagavAn gave the Prince the highest advice possible, which is known as Bhagavad-GeetA.



यह उसी उपदेश का फल था कि अर्जुन के हृदय का सब सन्देह मिट गया और वे लड़ने के लिये खड़े हो गए और उन्होंने विजय प्राप्त की। अर्जुन और कृष्ण के इस सम्बन्ध को और उसको लोकोत्तम फल को भगवान् वेदव्यास ने गीता के नीचे लिखे श्लोक में कूजे में मिश्री के समान भर दिया है-
    यत्र योगेश्वर: कृष्ण: यत्र पार्थो धनुर्धर:।   तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हों, जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हों, जहाँ मष्तिष्क-बल, हृदय-बल और बाहु-बल एकत्र हों- वहाँ लक्ष्मी है, वहाँ विजय है, वहाँ विभूति है और निश्चित नीति है।

जब मन विचलित होता है तब हम ईश्वर को भूल कर इधर उधर भागते है क्योकि हम उस वक्त ईश्वर पर नहीं बल्कि अपने आस पास मौजूद लोगों पर भरोसा करने लगते हैं किन्तु यह भूल जातें है की उन लोगों का भरोसा और सहारा भी ईश्वर पर ही निर्भर करता है ।
जिसका स्वाभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्या और संतान की कामना से भुत, पितृ और प्रजापतियो की उपासना करते है, क्युको इन लोगो का स्वाभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है ।
वेदों का तात्‍पर्य श्रीकृष्ण में ही है । यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही है । योग श्रीकृष्ण के लिए ही किये जाते हैं और समस्‍त कर्मो की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण ही है । ज्ञान से ब्रह्मस्‍वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है । तपस्‍या श्रीकृष्ण की प्रसन्‍नता के लिये ही की जाती है । श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मो का अनुष्‍ठान होता है और सब गतियां श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । श्रीमद भागवतमहापुराण
( प्रथम स्‍कन्‍ध )  2 श्लो 28-29
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् |
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ||
जिसके हृदयमें श्रीहरी हों, जो स्वयं मंगलायातन हैं, एवं उनका वास हो उनके सदैव एवं सभी कार्य निर्विघ्न और मंगलकारी होते हैं |