Sunday 30 April 2017

देव स्तुति

ॐ ब्रह्मामुरारित्रिपुरांतकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥
ॐ ! हे ब्रह्मा, मुरारी (विष्णु), त्रिपुरांतकारी (शिव), सूर्य, शशि, मंगल (भूमिपुत्र), बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू एवं केतू आप सब मेरे प्रातःकालको मंगलकारी करें !
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शास्त्र वचन 
१. सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा |
शान्ति: पत्नी क्षमा पुत्र: षडेते मम बान्धवा: ||
अर्थ : सत्य मेरी माता है, ज्ञान मेरे पिता हैं, धर्म मेरे भ्राता हैं और दया मेरा सखा हैं | शांति मेरी पत्नी है और क्षमा मेरा पुत्र है, यह छह मेरे बांधव (संबंधी) हैं |
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२. यद्यद्ददाति विधिवत्ससम्यक् श्रद्धासमन्वितः । 
तत्तत्पितृणां भवति परत्रानन्तमक्षयं ॥ – मनुस्मृति (३: २७७) 
अर्थ : ब्राह्मणको श्रद्धासहित तथा विधि अनुसार जो भी कुछ पितरोंके लिए दिया जाता है, उससे परलोकमें अंतमें न होनेवाली तथा सदा रहनेवाली तृप्ति प्राप्त होती है ।
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३. शत्रु: मित्रमुदासीनो भेदाः सर्वे मनोगताः । 
एकात्मत्वे कथं भेद: सम्भवेद द्वैतदर्शनात ॥
अर्थ : शत्रुता, मित्रता या उदासीनताके सभी भेदभाव मनमें ही रहते हैं । एकात्मभाव होनेपर भेदभाव नहीं रहता और वह द्वैतभावसे ही उत्पन्न होता है ।
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४. सर्वतो मनसोsसङ्गमादो संगं च साधुषु |
दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भुतेष्वद्धा यथोचितं ||
अर्थ: पहले शरीर, संतान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखें | तत्पश्चात् भगवानके भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिए, यह सीखें | इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करें | 
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५. इन्द्रियाणां विचरतां विषयेस्वपहारिषु | संयमे यत्नमातिष्ठेव्दिव्दान्यन्तेव वाजिनाम् || - मनुस्मृति अर्थ: एक कुशल सारथी जिस प्रकार अपने घोडोंपर नियंत्रण रखनेके लिए सदैव चेष्टा करता रहता है, उसी प्रकार विद्वान व्यक्तिको भी चित्तको आकर्षित करनेवाले विषयोंमें भ्रमण करनेवाली इन्द्रियोंको वशमें रखनेका प्रयत्न करना चाहिए |

Saturday 29 April 2017

अधर्म

हमारे अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है........
बहुत ही ज्ञानवर्धक कथा जरूर पढें!

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"अस्थियाँ बिखरने से पहले जीवन में
"आस्था" पैदा हो जाये
और "चिता" जलने से पहले अपनी
‘चेतना‘ जाग जाये
जीवन सार्थक हो जायेगा"
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जब श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध पश्चात् लौटे तो रोष में भरी रुक्मिणी ने उनसे पूछा..,
" बाकी सब तो ठीक था किंतु आपने द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह जैसे धर्मपरायण लोगों के वध में क्यों साथ दिया?"

श्री कृष्ण ने उत्तर दिया.., 
"ये सही है की उन दोनों ने जीवन पर्यंत धर्म का पालन किया किन्तु उनके किये एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया "
*"वो कौनसे पाप थे?"*
श्री कृष्ण ने कहा :
"जब भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था तब ये दोनों भी वहां उपस्थित थे ,और बड़े होने के नाते ये दुशासन को आज्ञा भी दे सकते थे किंतु इन्होंने ऐसा नहीं किया
*उनका इस एक पाप से बाकी,*
*धर्मनिष्ठता छोटी पड गई"*

रुक्मिणी ने पुछा, 
"और कर्ण? 
वो अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था ,कोई उसके द्वार से खाली हाथ नहीं गया उसकी क्या गलती थी?"

श्री कृष्ण ने कहा, "वस्तुतः वो अपनी दानवीरता के लिए विख्यात था और उसने कभी किसी को ना नहीं कहा,
किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्धवीरों को धूल चटाने के बाद युद्धक्षेत्र में आहत हुआ भूमि पर पड़ा था तो उसने कर्ण से, जो उसके पास खड़ा था, पानी माँगा ,कर्ण जहाँ खड़ा था उसके पास पानी का एक गड्ढा था किंतु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया
इसलिये उसका जीवन भर दानवीरता से कमाया हुआ पुण्य नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फंस गया और वो मारा गया" 

अक्सर ऐसा होता है की हमारे आसपास कुछ गलत हो रहा होता है और हम कुछ नहीं करते ।
हम सोचते हैं की इस पाप के भागी हम नहीं हैं किंतु मदद करने की स्थिति में होते हुए भी कुछ ना करने से हम उस पाप के उतने ही हिस्सेदार हो जाते हैं ।
हमारे अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाये धर्म को नष्ट कर सकता है।

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय

दान

दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है.........बहुत ही ज्ञानवर्धक कथा जरूर पढें!

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"मुठ्ठियों में क़ैद हैं जो खुशियाँ 
सब में बांट दो;;;
आपकी हो या मेरी हो
हथेलियां एक दिन तो खाली ही जानी हैं।"
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एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगीः
"सेठ जी ! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।"
सेठ जी बोलेः "अच्छा हुआ..... भला हुआ।" उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है !
आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः
"सेठ जी ! सेठ जी ! वह हार मिल गया।"
सेठ जी कहते हैं- "अच्छा हुआ.... भला हुआ।"
वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः "सेठजी ! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं 'अच्छा हुआ.... भला हुआ।' ऐसा क्यों?"
सेठ जीः "एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए ? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।"
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः "लेकिन जब हार मिल गया तब आपने 'अच्छा हुआ.... भला हुआ' क्यों कहा ?"
सेठ जीः "नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,..... भला है..... मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है।
होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है।।
मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।"
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय 

Wednesday 26 April 2017

मुस्कुराओ

मुस्कुराओ....
क्योंकि यह मनुष्य होने की पहली शर्त है। एक पशु कभी भी नहीं मुस्कुरा सकता।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि मुस्कान ही आपके चहरे का वास्तविक श्रंगार है। मुस्कान आपको किसी बहुमूल्य आभूषण के अभाव में भी सुन्दर दिखाएगी।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि दुनिया का हर आदमी खिले फूलों और खिले चेहरों को पसंद करता है। ...
मुस्कुराओ.....
क्योंकि क्रोध में दिया गया आशीर्वाद भी बुरा लगता है और मुस्कुराकर कहे गए बुरे शब्द भी अच्छे लगते हैं।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि परिवार में रिश्ते तभी तक कायम रह पाते हैं जब तक हम एक दूसरे को देख कर मुस्कुराते रहते हैं।
मुस्कुराओ.....
क्योंकि आपकी हँसी किसी की ख़ुशी का कारण बन सकती है।
मुस्कुराओ.....
कहीं आपको देखकर कोई किसी गलत फहमी में न पड़ जाए क्योंकि मुस्कराना जिन्दा होने की पहली शर्त भी है।
स्वागत मुस्करा कर करे खुद भी मुस्कराये रहे दुसरो के भी मुस्कराने की वजह बने।

Tuesday 25 April 2017

The Naked Truth of Life

Hare Krishna.....
There was a man with four wives. He loved his fourth wife the most and took great care of her and gave her the best.

He also loved his third wife and always wanted to show her off to his friends. However, he always had a fear that she might runaway with some other man.

He loved his second wife too. Whenever he faced some problems, he always turned to his second wife and she would always help him out.

He did not love his first wife though she loved him deeply, was very loyal to him and took great care of him. 

One day the man fell very ill and knew that he is going to die soon. He told himself, *_"I have four wives. I will take one of them along with me when I die to keep me company in my death."_*

Thus, he asked the fourth wife to die along with him and keep him company. *_"No way!"_* she replied and walked away without another word.

He asked his third wife. She said *_"Life is so good over here. I'm going to remarry when you die"._*

He then asked his second wife. She said *_"I'm Sorry. I can't help you this time around. At the most I can only accompany you till your grave."_*

By now his heart sank and he turned cold. Then a voice called out: *_"I'll go with you. I'll follow you no matter where you go."_*

The man looked up and there was his first wife. She was so skinny, almost like she suffered from malnutrition. Greatly grieved, the man said, *_"I should have taken much better care of you while I could have!"_*

Actually, we all have four wives in our lives.

a. *The fourth wife is our body.* No matter how much time and effort we lavish in making it look good, it'll leave us when we die.

b. *The third wife is our possession, status and wealth.* When we die, they go to others.

c. *The second wife is our family and friends.* No matter how close they had been there for us when we're alive, the furthest they can stay by us is up to the grave.

d. *The first wife is our soul,* neglected in our pursuit of material wealth and pleasure. It is actually the only thing that follows us wherever we go.

So Please Always take care of your soul. 

......_One of the best messages I have received_........
                          Hare Krishna

Material Attachment

A man who has gone out of town comes back to find his house on fire. It was one among the beautiful houses in the town, and the man loved his house dearly! Many people were ready to give double price for the house, but he never agreed for any price and now it is just burning before his eyes. Hundreds of people have gathered, but nothing can be done, the fire has spread so far that even if they try to put it out, nothing will be saved. He becomes very sad.
His son comes running and whispers in his ear: "Don't worry Dad. I sold it yesterday at a very good price ― three times of our cost. The offer was so good I could not wait for you. Forgive me." Father said, "thank God, it's not ours now!" Then the father is relaxed and became a silent watcher, just like 100s of other watchers.
Please think about it! Just a moment before he was not a watcher, he was attached. It is the same house....the same fire.... everything is the same...but now he is not concerned. In fact he is relaxed and watching it just as everybody else in the crowd. Then the second son comes running, and he says to the father, "What are you doing? You are relaxed ― and the house is on fire?" The father said, "Don't you know, your brother has sold it." He said, "we have taken only advance amount, not settled fully. I doubt now that the man is going to pay us anymore.”
Again, everything changes!! Tears which had disappeared have come back to the father's eyes, his smile is no more there, and his heart is beating fast. The silent 'watcher' is gone. He is again attached.
And then the third son comes, and he says, "The buyer is a man of his words. I have just come from him. He said, 'It doesn't matter whether the house is burnt or not, it is mine. And I am going to pay the price that I have settled for. Neither you knew, nor did I know that the house would catch fire.'" Again the joy is back and family became watchers! The attachment is no more there.
Actually nothing is changing! Just the feeling that "I am the owner! I am not the owner of the house!" makes the whole difference.

Actually nothing belong to us, everything is God's property. We think it belongs to us and this is the only cause of our sadness.

Material  attachment is cause of our problem, we are actually servant of Krishna , let's surrender unto him and chant

Hare Krishna hare Krishna
Krishna Krishna hare hare
Hare Rama hare Rama
Rama Rama hare hare

& Be happy

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास सफलता की प्राप्ति

एक बार एक व्यवसायी पूरी तरह से कर्ज में डूब गया ।उसका व्यवसाय बंद होने के कगार पर आ गया| वह बहुत चिंतित व निराश होकर एक बगीचे में बैठ गया ।वह सोच रहा था कि कि काश कोई उसकी कंपनी को बंद होने से बचा ले|

तभी एक बूढ़ा व्यक्ति वहां पर आया और बोला – आप बहुत चिंतित लग रहे है। कृपया अपनी समस्या मुझे बताइये शायद मैं आपको कुछ मदद कर सकूं |

व्यवसायी ने अपनी समस्या उस बूढ़े व्यक्ति को बताई|

व्यवसायी की समस्या सुनकर बूढ़े व्यक्ति ने अपनी जेब से चेकबुक निकाली और एक चेक लिखकर व्यवसायी को दे दिया और कहा – तुम यह चेक रखो और ठीक एक वर्ष बाद यहाँ हमसे फिर मिलना और मुझे यह पैसे वापस लौटा देना|

व्यवसायी ने चेक देखा तो उसकी आँखे फटी रह गयी – उसके हाथों में 50 लाख का चेक था जिस पर उस शहर के सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर के साइन थे|

उस व्यवसायी को यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वह बूढ़ा व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि उस शहर का सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर था| उसने उस बूढ़े व्यक्ति को आस-पास देखा लेकिन वह व्यक्ति वहां से जा चुका था|

व्यवसायी बहुत खुश था कि अब उसकी सारी चिंताएं समाप्त हो गयी है और अब वह इन पैसों से अपने व्यवसाय को फिर से खड़ा कर देगा|

लेकिन उसने निर्णय किया कि वह उस चेक को तभी इस्तेमाल करेगा जब उसे इसकी बहुत अधिक आवश्यकता होगी और उसके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होगा|

उस व्यवसायी की निराशा और चिंताएं दूर हो चुकी थी| अब वह निडर होकर अपने व्यवसाय को नए आत्मविश्वास के साथ चलाने लगा क्योंकि उसके पास 50 लाख रूपये का चेक था जो जरूरत पड़ने पर काम आ सकता था|

उसने कुछ ही महीनों में व्यापारियों के साथ अच्छे समझौते कर लिए जिससे धीरे धीरे उसका व्यवसाय फिर से अच्छा चलने लगा और उसने उस चेक का इस्तेमाल किये बिना ही अपना सारा कर्जा चुका दिया|

ठीक एक वर्ष बाद व्यवसायी वही चेक लेकर उस बगीचे में पहुंचा जहाँ पर एक वर्ष पहले वह बूढ़ा आदमी उससे मिला था|

वहां पर उसे वह बूढ़ा आदमी मिला, व्यवसायी ने चेक वापस करते हुए कहा – धन्यवाद आपका जो आपने बुरे वक्त में मेरी मदद की| आपके इस चेक ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मेरा व्यवसाय फिर से खड़ा हो गया और मुझे इस चेक का उपयोग करने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी|

वह अपनी बात पूरी करता तभी वहां पर पास ही के पागलखाने के कुछ कर्मचारी आ पहुंचे और उस बूढ़े आदमी को पकड़कर पागलखाने ले जाने लगे|

यह देखकर व्यवसायी ने कहा – यह आप क्या कर रहे है? आप जानते है यह कौन है? यह इस शहर के सबसे अमीर व्यक्ति जॉन रोकफेलर है|

पागलखाने के कर्मचारी ने कहा – यह तो एक पागल है जो खुद को जॉन रोकफेलर समझता है| यह हमेशा भागकर इस बगीचे में आ जाता है और लोगों से कहता है कि वह इस शहर का मशहूर व्यक्ति जॉन रोकफेलर है| हमें लगता है कि इसने आपको भी बेवकूफ बना दिया|

वह व्यवसायी पागलखाने के कर्मचारी की बाते सुनकर सुन्न हो गया| उसे यकीन नहीं हो पा रहा था कि वह व्यक्ति जॉन रोकफेलर नहीं था और एक वर्ष से जिस चेक के दम पर वह आराम से अपने व्यवसाय में जोखिमें उठा रहा था वह नकली था|

वह काफी देर सोचता रहा फिर उसे समझ में आया कि यह पैसा नहीं था जिसके दम पर उसने अपना व्यवसाय वापस खड़ा किया है बल्कि यह तो उसकी निडरता और आत्मविश्वास था जो उसके भीतर ही था|

*“Believe in Yourself “*

*“हमारे भीतर समस्त ब्रहांड की शक्ति निहित है जिसके बल पर हम कुछ भी कर सकते है लेकिन समस्या यह है कि हम कभी कभी नकारात्मकता, निराशा और डर के अन्धकार में इतना डूब जाते है कि हम भूल जाते है कि हमारे भीतर असीमित शक्ति है जो अंधकार को पल भर में दूर कर सकती है|जब हम आत्मविश्वास और निडरता के साथ आगे बढते हैं तो सारी रूकावटें अपने आप दूर हो जाती है|”*
जय श्रीकृष्ण

Greed

Greed for wealth, women, and power VS  Greed for Krishna consciousness

Greed for wealth, women, and power destroys one's ability to become a spiritually awakened being. However if one is very greedy to advance in his Krishna consciousness, this is a great boon. In fact, Srila Prabhupada describes that this greed for bhakti is the best path available. In this regard it is stated by Srila Rupa Goswami:
krsna-bhakti-rasa-bhavita matih
kriyatam yadi kuto 'pi labhyate
tatra laulyam api mulyam ekalam
janma-koti-sukrtair na labhyate
"Pure devotional service in Krishna consciousness cannot be had even by pious activity in hundreds and thousands of lives. It can be attained only by paying one price-that is, intense greed to obtain it. If it is available somewhere, one must purchase it without delay.'
--Padyāvalī 14
Therefore greed should not be given up. It should be purified by engaging it in the service of Krishna. We should be greedy to awaken our dormant Krishna consciousness.

Monday 24 April 2017

देने वाला कौन

आज हमने भंडारे में भोजन करवाया। आज हमने ये बांटा, आज हमने वो दान किया...
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 हम अक्सर ऐसा कहते और मानते हैं। इसी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय कथा सुनिए...
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एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।
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एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।
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कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला। 
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"
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समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा---
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
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अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया। 
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लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं। 
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
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लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया। 
यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।
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कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"
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साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया। 
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"
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कथासार- *किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया*!
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया । 
वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??
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दान किए से जाए दुःख, दूर होएं सब पाप।।
नाथ आकर द्वार पे, दूर करें संताप।।
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कथा अच्छी लगी हो तो शेयर अवश्य करना

Friday 21 April 2017

बुद्ध

बुद्ध एक सुबह प्रवचन करते थे। कोई दस हजार लोग इकट्ठे थे। सामने ही बैठ कर एक भिक्षु पैर का अंगूठा हिलाता था। बुद्ध ने बोलना बंद कर दिया और उस भिक्षु को पूछा कि यह पैर का अंगूठा तुम्हारा क्यों हिल रहा है? जैसे ही बुद्ध ने यह कहा, पैर का अंगूठा हिलना बंद हो गया। उस भिक्षु ने कहा, आप भी कहां की फिजूल बातों में पड़ते हैं! आप अपनी बात जारी रखिए। बुद्ध ने कहा, नहीं; मैं यह पूछे बिना आगे नहीं बढूंगा कि तुम पैर का अंगूठा क्यों हिला रहे थे? उस भिक्षु ने कहा, मैं हिला नहीं रहा था, मुझे याद भी नहीं था, मुझे पता भी नहीं था।

तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारा अंगूठा है, और हिलता है, और तुम्हें पता नहीं; तो तुम सोए हो या जागे हुए हो? और बुद्ध ने कहा, पैर का अंगूठा हिलता है, तुम्हें पता नहीं; मन भी हिलता होगा और तुम्हें पता नहीं होगा। विचार भी चलते होंगे और तुम्हें पता नहीं होगा। वृत्तियां भी उठती होंगी और तुम्हें पता नहीं होगा। तुम होश में हो या बेहोश हो? तुम जागे हुए हो या सोए हुए हो?

यदि हम गौर से देखें, तो आंखें खुली होते हुए भी हम अपने को होश में नहीं कह सकते। हमारा मन क्या कर रहा है इस क्षण, वह भी हमें ठीक-ठीक पता नहीं। अगर कभी दस मिनट एकांत में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें, और मन में जो चलता हो उसे एक कागज पर लिख लें--जो भी चलता हो, ईमानदारी से--तो उस कागज को आप अपने प्रियजन को भी बताने के लिए राजी नहीं होंगे। मन में ऐसी बातें चलती हुई मालूम पड़ेंगी कि लगेगा क्या मैं पागल हूं? ये बातें क्या हैं जो मन में चलती हैं? खुद को भी विश्वास नहीं होगा कि यह मेरा ही मन है जिसमें ये सारी बातें चलती हैं!

लेकिन हम भीतर देखते ही नहीं, बाहर देख कर जी लेते हैं। मन में क्या चलता है, पता भी नहीं चलता। और यही मन हमें सारी क्रियाओं में संलग्न करता है। इसी मन से क्रोध उठता है, इसी मन से लोभ उठता है, इसी मन से काम उठता है। इस मन के गहरे में न हम कभी झांकते हैं, न कभी इस मन के गहरे में जागते हैं। जो भी चलता है, चलता है। यंत्रवत, सोए-सोए हम सब कर लेते हैं। 

अगर आपने कभी क्रोध किया हो, तो शायद ही आप यह कह सकें कि मैंने क्रोध किया है। आपको यही कहना पड़ेगा, क्रोध आ गया। आज तक किसी आदमी ने क्रोध किया नहीं है, क्रोध सदा आया है। आप क्रोध के कर्ता नहीं हैं, आप सिर्फ क्रोध के विक्टिम हैं, शिकार हैं। आप पूरी जिंदगी स्मरण करें तो यह नहीं कह सकते कि मैंने एक बार क्रोध किया था। क्रोध में, करने में आप मालिक नहीं थे। अगर मालिक होते तो आपने किया ही नहीं होता। कोई आदमी जान कर गङ्ढे में नहीं गिरता है। गिर जाता है, यह दूसरी बात है। किसी आदमी ने जान कर क्रोध भी नहीं किया है कभी। क्रोध हो जाता है, यह दूसरी बात है। क्रोध घटता है, क्रोध हम करते नहीं हैं। तो हम सोए हुए आदमी हैं या जागे हुए?

और प्रेम के संबंध में तो लोग कहते ही हैं कि प्रेम हमने किया नहीं, हो गया। लेकिन इसका मतलब क्या होता है कि प्रेम हो गया? इसका मतलब यह होता है कि जैसे हवाएं चलती हैं और वृक्ष के पत्ते हिलते हैं अवश-परवश, जैसे आकाश में बादल आते हैं और हवाएं उन्हें जहां उड़ा कर ले जाती हैं, चले जाते हैं, विवश। क्या वैसे ही हमारे भीतर भी चित्त में भावनाएं उठती हैं प्रेम की, क्रोध की, घृणा की और हम विवश होकर उनके साथ हिलते-डुलते रहते हैं? हमारा कोई वश नहीं है? हम अपने मालिक नहीं हैं?

अकेले चलना पड़ेगा


आपको अपने जैसा व्यक्ति कदापि प्राप्त न होगा! आपको जीवन- पथ पर अकेले ही अग्रसर होना पड़ेगा। कोई आपके साथ दूर तक न चल सकेगा। अकेले चले चलिये।

जीवन को एक यात्रा मानिए। यात्रा में एक दो अल्पकालीन संगी साथी आपको प्राप्त हो गए हैं। इनसे चार दिन के लिए आप बोलते हैं ,बरतते हैं, हँसी ठट्ठा, संघर्ष छीना झपटी चलती है। साथ साथ कुछ समय तक आगे बढ़ते हैं, किन्तु धीरे-धीरे उनकी जीवन-यात्रा समाप्त होती चलती है। एक के पश्चात दूसरा अपने गन्तव्य स्थान पर, रुक कर आपको छोड़ते चलते हैं। आपके साथ अभी छः सात व्यक्तियों का परिवार साथ था। सात में से छः रह जाते हैं और फिर क्रमशः आप अकेले ही रह जाते हैं। “अरे, मैं अकेला रह गया, बिलकुल अकेला”- आपका मन कुछ काल के लिए अशान्त सा हो उठता है। उसमें एक कड़वाहट सी आ जाती है। पर वास्तव में जीवन का यह अकेलापन ही मानव-जीवन का चरम सत्य है।

सबको पाकर भी हम सब अकेले हैं, नितान्त अकेले! हमारे साथ कोई भी दूर तक चलने वाला नहीं है। जिन्हें हम भ्रम से माया वश अपने साथ चलता हुआ समझते हैं, वास्तव में वे हमारे अल्पकालीन सहयात्री मात्र हैं। हमारे अकेलेपन में कोई भी हाथ बंटाने, दिलासा देने वाला नहीं है। 


हार की झलक

हार की झलक - शंकराचार्य और मंडन मिश्र की कहानी।

बहुत समय पहले की बात है। आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच सोलह दिन तक लगातार शास्त्रार्थ चला। शास्त्रार्थ मेँ निर्णायक थीँ- मंडन मिश्र की धर्म पत्नी देवी भारती। 

हार-जीत का निर्णय होना बाक़ी था, इसी बीच देवी भारती को किसी आवश्यक कार्य से कुछ समय के लिये बाहर जाना पड़ गया।

लेकिन जाने से पहले देवी भारती नेँ दोनोँ ही विद्वानोँ के गले मेँ एक-एक फूल माला डालते हुए कहा, येँ दोनो मालाएं मेरी अनुपस्थिति मेँ आपके हार और जीत का फैसला करेँगी। यह कहकर देवी भारती वहाँ से चली गईँ। शास्त्रार्थ की प्रकिया आगे चलती रही।

कुछ देर पश्चात् देवी भारती अपना कार्य पुरा करके लौट आईँ। उन्होँने अपनी निर्णायक नजरोँ से शंकराचार्य और मंडन मिश्र को बारी- बारी से देखा और अपना निर्णय सुना दिया।

 उनके फैसले के अनुसार आदि शंकराचार्य विजयी घोषित किये गये और उनके पति मंडन मिश्र की पराजय हुई थी।

सभी दर्शक हैरान हो गये कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को ही पराजित करार दे दिया। 

एक विद्वान नेँ देवी भारती से नम्रतापूर्वक जिज्ञासा की- हे ! देवी आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीँ फिर वापस लौटते ही आपनेँ ऐसा फैसला कैसे दे दिया ?

देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मेँ पराजित होने लगता है, और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो इस वजह से वह क्रुध्द हो उठता है और मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्य जी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे हैँ।

 इससे ज्ञात होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।

       विदुषी देवी भारती का फैसला सुनकर सभी दंग रह गये, सबने उनकी काफी प्रशंसा की। दोस्तो, क्रोध मनुष्य की वह अवस्था है जो जीत के नजदीक पहुँचकर हार का नया रास्ता खोल देता है। 

क्रोध न सिर्फ हार का दरवाजा खोलता है बल्कि रिश्तोँ मेँ दरार का कारण भी बनता है। इसलिये कभी भी अपने क्रोध के ताप से अपने फूल रूपी गुणों को मुरझाने मत दीजिये.....।

कड़वा सच है

कड़वा सच है, जरा ध्यान दें :-​
एक लड़की ने अपने दादा से पूछा :- "दादा जी...आप लोग पहले कैसे रहते थे ?
न कोई टेक्नोलॉजी , न जहाज, न कम्प्यूटर, न गाड़ियाँ, न मोबाइल ।"
दादा जी ने जवाब दिया :- "जैसे तुम लोग आजकल रहते हो....
न पूजा, न पाठ, न दीन, न धर्म, न लज्जा, न शर्म "
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एक बार संत रैदास जी चितौड़ पधारे थे। रैदासजी रघु चमार के यहाँ जन्में थे। उनकी छोटी जाति थी और उस समय जात-पाँत का बड़ा बोल बाला था। वे नगर से दूर चमारों की बस्ती में रहते थे। राजरानी मीरा को पता चला कि संत रैदासजी महाराज पधारे हैं लेकिन राजरानी के वेश में वहाँ कैसे जायें? मीरा एक मोची महिला का वेश बनाकर चुपचाप रैदासजी के पास चली जाती, उनका सत्संग सुनती, उनके कीर्तन और ध्यान में मग्न हो जाती। ऐसा करते-करते मीरा का सत्त्वगुण दृढ़ हुआ। मीरा ने सोचाः ‘ईश्वर के रास्ते जायें और चोरी छिपे जायें? आखिर कब तक? फिर मीरा अपने ही वेश में उन चमारों की बस्ती में जाने लगी। मीरा को उन चमारों की बस्ती में जाते देखकर अड़ोस-पड़ोस में कानाफूसी होने लगी। पूरे मेवाड़ में कुहराम मच गया कि ‘ऊँची जाति की, ऊँचे कुल की, राजघराने की मीरा नीची जाति के चमारों की बस्ती में जाकर साधुओं के यहाँ बैठती है, मीरा ऐसी है…. वैसी ननद उदा ने उसे बहुत समझायाः “भाभी ! लोग क्या बोलेंगे? तुम राजकुल की रानी और गंदी बस्ती में, चमारों की बस्ती में जाती हो? चमड़े का काम करनेवाले चमार जाति के एक व्यक्ति को गुरु मानती हो? उसको मत्था टेकती हो? उसके हाथ से प्रसाद लेती हो? उसको एकटक देखते-देखते आँखें बंद करके न जाने क्या-क्या सोचती और करती हो? यह ठीक नहीं है। भाभी ! तुम सुधर जाओ।” सासु नाराज, ससुर नाराज, देवर नाराज, ननद नाराज, कुटुंबीजन नाराउदा ने कहाः मीरा मान लीजियो म्हारी, तने सखियाँ बरजे सारी। राणा बरजे, राणी बरजे, बरजे सपरिवारी। साधन के संग बैठ, बैठ के लाज गँवायी सारी ‘मीरा ! अब तो मान जा। तुझे मैं समझा रही हूँ, सखियाँ समझा रही हैं, राणा भी कह रहा है, रानी भी कह रही है, सारा परिवार कह रहा है…. फिर भी तू क्यों नहीं समझती है? इन संतों के साथ बैठ-बैठकर तू कुल की सारी लाज गँवा रही है नित प्रति उठ नीच घर जाय कुलको कलंक लगावे। मीरा मान लीजियो म्हारी तने बरजे सखियाँ सारी तब मीरा ने उत्तर दियाः तारयो पियर सासरियो तारयो माह्म मौसाली सारी। मीरा ने अब सदगुरु मिलिया 
चरणकमल बलिहारी ‘मैं संतों के पास गयी तो मैंने पीहर का कुल तारा, ससुराल का कुल तारा, मौसाल का और ननिहाल का कुल भी तारा है।’ मूर्ख लोग समझते हैं कि भजन करने से इज्जत चली जाती है वास्तव में ऐसा नहीं है। 
राम नाम के शारणे सब यश दीन्हो खोय। 
मूरख जाने घटि गयो दिन दिन दूनो होय।। 

मीरा की कितनी बदनामी की गयी, मीरा के लिए कितने षड्यंत्र किये गये लेकिन मीरा अडिग रही तो मीरा का यश बढ़ता गया। आज भी लोग बड़े प्रेम से मीरा को याद करते 
हैं, उनके भजनों को गाकर अथवा सुनकर अपना हृदय पावन करते हैं।

"पायो जी मैं राम रत्न धन पायो 

         नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय 

Quotes from scriptures

1. व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणाङ्गणे भवति |
विनये भॄत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे ||
Meaning : Friendship of a friend is tested in bad times, the warrior's heroism is tested in a war, a servant's test lies in his humility towards the owner and a donor's test is at the time of drought.
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2. राजा राष्ट्रकॄतं पापं राज्ञाम्प;: पापं पुरोहित: |
भर्ता च स्त्रीकॄतं पापं शिष्यपापं गुरु: तथा ||
Meaning : If a country goes in a wrong way or does a sin then the king should be held responsible. If king commits a sin then his advisors or ministers should be held responsible. If a women does a wrong thing then her husband should be held responsible and if a student  commits a sin then his teacher should be held responsible.
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3. पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम् |
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
Meaning : The knowledge which is residing in the book and one's wealth which is in possession of some other person is of no use at all. At the time of it's need they will not be of any help for the person.
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4. अधमा: धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमा: |
उत्तमा: मानमिच्छन्ति मानो हि महताम् धनम् ||
Meaning : An inferior person's desire is money. An average person will desire money and respect. A great person desires respect (and not money) as respect is superior to money.
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5. परो अपि हितवान् बन्धु: बन्धु: अपि अहित: पर: |
अहित: देहज: व्याधि: हितम् आरण्यम् औषधम् || - हितोपदेश
Meaning : The person with whom we have no relation, but who helps us in our difficult times is our Real relative/brother. In contrast the person who may be our relative/brother (With whom we have blood relations) but who always does bad things for us should not be considered as our relative/brother. Just like a disease which is in our own body does so much harm to us while the medicinal plant which grows in forest far off does so much of good to us!

Thursday 20 April 2017

प्रारब्ध

एक गुरूजी थे। हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे। काफी बुजुर्ग हो गये थे। उनके कुछ शिष्य साथ मे ही पास के कमरे मे रहते थे।
जब भी गुरूजी को शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य ले जाते थे।
धीरे धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते।
एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते है, तुरन्त एक बालक आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है। अब ये रोज का नियम हो गया।
एक दिन गुरूजी को शक हो जाता है कि, पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे। लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है।
एक दिन गुरूजी उस बालक का हाथ पकड लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है?  मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं।
वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे;  उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया।
गुरूजी रोते हुये कहते है; हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है। यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना।
प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है। आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ।
गुरूजी कहते है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है।
प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा। यही कर्म नियम है। इसलिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ।
ईश्वर कहते है: प्रारब्ध तीन तरह के होते है। मन्द, तीव्र तथा तीव्रतम।
मन्द प्रारब्ध मेरा नाम जपने से कट जाते है। तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है। पर तीव्रतम प्रारब्ध भुगतने ही पडते है।
लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं; उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ।
*प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।
*तुलसी चिन्ता क्यो करे, भज ले श्री रघुबीर।
जय श्री कृष्णा जय श्री राधे 
(स्वामी विनयस्वरूप ब्रह्मचारी शुकतीर्थ)

लंका में भला सन्त कहाँ मिलेंगे

हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम से कहा था - प्रभो, यदि मैं लंका न जाता, तो मेरे जीवन में बड़ी कमी रह जाती. - क्या ? बोले - विभीषण का घर जब मैंने देखा तो मुझे लगने लगा - लंका में भला सन्त कहाँ मिलेंगे -
लंका निसिचर निकर निवासा.
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा..
"प्रभो, मैं तो समझता था कि सन्त तो भारत में ही होते हैं. लेकिन जब मैं लंका में सीताजी को ढूंढ नहीं सका और विभीषण से भेंट होने पर उन्होंने उपाय बता दिया, तो मैंने सोचा कि अरे, जिन्हें मैं प्रयत्न करके नहीं ढूँढ सका, उन्हें तो... इन लंका वाले सन्त ने ही बता दिया. शायद प्रभु ने यही दिखाने के लिए भेजा था कि इस दृश्य को भी देख लो. और प्रभो, वाटिका में जिस समय रावण आया. रावण जब क्रोध में आकर तलवार लेकर माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि अब कूदकर इसकी तलवार छीन मैं उसका सिर काट लूँ, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया. यह देखकर मैं गदगद् हो गया. ओह, प्रभो, आपने कैसी शिक्षा दी ! यदि मैं कूद पड़ता, तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता ? बहुधा व्यक्ति को ऐसा भ्रम हो जाता है. मुझे लगता है कि मैं न होता, तो सीताजी को कौन बचाता ? पर आप कितने बड़े कौतुकी हैं ? आपने उन्हें बचाया ही नहीं , बल्कि बचाने का काम रावण की उस पत्नी को ही सौंप दिया, जिसको प्रसन्नता होनी चाहिए कि सीता मरे, तो मेरा भय दूर हो. तो मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं. किसी का कोई महत्व नहीं है. आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बन्दर आया हुआ है, तो मैं समझ गया कि यहाँ तो बड़े सन्त हैं. मैं आया और यहाँ के सन्त ने देख लिया. पर जब उसने कहा कि वह बन्दर लंका जलायेगा, तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा नहीं और त्रिजटा कह रही है, तो मैं क्या करूँ ? पर प्रभु, बाद में तो मुझे सब अनुभव हो गया." - क्या ?
बोले - रावण की सभा में इसलिए बँधकर रह गया कि करके तो मैंने देख लिया, अब जरा बँधके देखँू कि क्या होता है. जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिए चले तो मैंने अपने को बचाने की चेष्टा नहीं की, पर जब विभीषण ने आकर कहा - दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि देखो, मुझे बचाना है, तो प्रभु ने यह उपाय कह दिया. सीताजी को बचाना है तो रावण की पत्नी मन्दोदरी को लगा दिया. मुझे बचाना था, तो रावण के भाई को भेज दिया. पर प्रभो, आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई कि जब रावण ने कहा कि बन्दर को मारा तो नहीं जायेगा, पर पूँछ में कपड़ा-तेल लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाय, तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली सन्त की ही बात सच थी. लंका जलाने के लिए मैं कहाँ से घी, तेल, कपड़ा लाता, कहाँ आग ढूँढता ! वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा लिया. तो जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !

 *जय सिया राम जी*
*जय हनुमान जी*

Wednesday 19 April 2017

अशांत

एक आदमी मेरे पास आया और उसने मुझे आकर कहा, कि मैं बहुत अशांत हूं। शांति का कोई रास्ता बताइए। मेरे पैर पकड़ लिए। मैंने कहा, पैर से दूर रखो हाथ। क्योंकि मेरे पैरों से तुम्हारी शांति का क्या संबंध हो सकता है?
सुना नहीं कहीं और मेरे पैर को कितने ही काटो-पीटो, कुछ पता नहीं चलेगा कि तुम्हारी शांति मेरे पैर में कहां। मेरे पैर का कसूर भी क्या है? तुम अशांत हुए तो मेरे पैर ने कुछ बिगाड़ा तुम्हारा?
वह आदमी बहुत चौंका। उसने कहा, आप थे, क्या बात कहते हैं! मैं ऋषिकेश गया वहां शांति नहीं मिली। अरविंद आश्रम गया वहां शांति नहीं मिली। अरुणाचल हो कर आया। रमण के आश्रम में चला गया वहां शांति नहीं मिली। कहीं शांति नहीं मिली। सब ढोंग-धतूरा चल रहा है। किसी ने मुझे आपका नाम लिया, तो मैं आपके पास आया हूं।
मैंने कहा, तुम उठो दरवाजे के एकदम बाहर हो जाओ। नहीं तो तुम जाकर कल यह भी कहोगे, वहां भी गया, वहां भी शांति नहीं मिली। और मजा यह है कि जब तुम अशांत हुए थे, तुम किस आश्रम में गए थे? किस गुरु से पूछने गए थे अशांत होने के लिए? तुमने किससे शिक्षा ली थी अशांत होने की? मेरे पास आए थे?
किसके पास गए थे पूछने कि मैं अशांत होना चाहता हूं? गुरुदेव, अशांत होने का रास्ता बताइए? अशांत सज्जन आप खुद हो गए थे, अकेले काफी थे। और शांत होने, दूसरे के ऊपर दोष देने आए हो।
अगर नहीं हुए तो हम जिम्मेवार होंगे। आप अगर शांत नहीं हुए तो हम जिम्मेवार हुए होंगे जैसे कि हमने आपको अशांत किया हो। आप हमसे पूछने आए थे?
नहीं-नहीं, आपसे तो पूछने नहीं आया। किससे पूछने गए थे? किसी से पूछने नहीं गए। तो मैंने कहा, ठीक से समझने की कोशिश करो, कि खुद अशांत हो गए हो, कैसे हो गए हो, किस बात से हो गए हो, उसकी खोज करो।
पता चल जाएगा, इस बात से हो गए। वह बात करना बंद कर देना। शांत हो जाओगे। शांत होने की कोई विधि थोड़े ही होती है।
अशांत होने की विधि होती है। और अशांत होने की विधि जो छोड़ देता है, वह शांत हो जाता है। मुक्त होने का कोई रास्ता थोड़े ही होता है। अमुक्त होने का रास्ता होता है। बंधने की तरकीब होती है। जो नहीं बंधता, वह मुक्त हो जाता है।
मैं मुट्ठी बांधे हुए हूं। जोर से बांधे हुए हूं। और आपसे पूछूं कि मुट्ठी कैसे खोलूं? तो आप कहेंगे, खोल लीजिए, इसमें पूछना क्या है। बांधिए मत कृपा करके,खुल जाएगी।
मुट्ठी खोलने के लिए कुछ और थोड़े ही करना पड़ता है, सिर्फ मुट्ठी को बांधो मत। बांधते हो तो मुट्ठी बंधती है। मत बांधो खुल जाती है। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। बांधना चेष्टा है, श्रम है। खुला होना, सहजता है।
जीवन संगीत

Give up sin

The four pillars of sinful life are these: illicit sex, meat-eating and intoxication and gambling. If we stop these voluntarily, this is called austerity, austerity, tapasya. Austerity means voluntarily accept some painful condition.

So those who are habituated to all these things, namely illicit sex, meat-eating, intoxication and gambling, to give up these habits, it may become little painful at the... in the beginning. But if you practice and pray to Krsna that He will help, it is not difficult to give up these habits. And as soon as you give up this waiting process, the sinful life, then immediately you become fifty percent purified to approach God. Then, by chanting Hare Krsna mantra, you make further, further, more and more progress. And when you are completely free of all sinful reaction, then you understand God and you love him. In the contaminated stage you are trying to love so many things, but you are frustrated. So if you can love God, then you will never be frustrated, and your loving desires will be fulfilled. That is Krsna consciousness movement. We are teaching all our students how to love God.

Tuesday 18 April 2017

Positive attitude


एक घर के पास काफी दिन से एक बड़ी इमारत का काम चल रहा था। 
वहां रोज मजदूरों के छोटे-छोटे बच्चे एक दूसरे की शर्ट पकडकर रेल-रेल का खेल खेलते थे।

*रोज कोई बच्चा इंजिन बनता और बाकी बच्चे डिब्बे बनते थे...*

*इंजिन और डिब्बे वाले बच्चे रोज बदल  जाते,*
पर...

केवल चङ्ङी पहना एक छोटा बच्चा हाथ में रखा कपड़ा घुमाते हुए रोज गार्ड बनता था।

*एक दिन मैंने देखा कि* ...

उन बच्चों को खेलते हुए रोज़ देखने वाले एक व्यक्ति ने कौतुहल से गार्ड बनने वाले बच्चे को पास बुलाकर पूछा....

*"बच्चे, तुम रोज़ गार्ड बनते हो। तुम्हें कभी इंजिन, कभी डिब्बा बनने की इच्छा नहीं होती?"*

इस पर वो बच्चा बोला...
*"बाबूजी, मेरे पास पहनने के लिए कोई शर्ट नहीं है। तो मेरे पीछे वाले बच्चे मुझे कैसे पकड़ेंगे... और मेरे पीछे कौन खड़ा रहेगा....?*
*इसीलिए मैं रोज गार्ड बनकर ही खेल में हिस्सा लेता हूँ।* 

*"ये बोलते समय मुझे उसकी आँखों में पानी दिखाई दिया।* 

*आज वो बच्चा मुझे जीवन का एक बड़ा पाठ पढ़ा गया...*

*अपना जीवन कभी भी परिपूर्ण नहीं होता। उसमें कोई न कोई कमी जरुर रहेगी....*

वो बच्चा माँ-बाप से ग़ुस्सा होकर रोते हुए बैठ सकता था। परन्तु ऐसा न करते हुए उसने परिस्थितियों का समाधान ढूंढा।

*हम कितना रोते हैं?*
कभी अपने *साँवले रंग* के लिए, कभी *छोटे क़द* के लिए, 
कभी पड़ौसी की *बडी कार,* 
कभी पड़ोसन के *गले का हार,* कभी अपने *कम मार्क्स,* 
कभी *अंग्रेज़ी,* 
कभी *पर्सनालिटी,* 
कभी *नौकरी की मार* तो 
कभी *धंदे में मार*...
हमें इससे बाहर आना पड़ता है....
*ये जीवन है... इसे ऐसे ही जीना पड़ता है।*
 *चील की ऊँची उड़ान देखकर चिड़िया कभी डिप्रेशन में नहीं आती,*
*वो अपने आस्तित्व में मस्त रहती है,*
*मगर इंसान, इंसान की ऊँची उड़ान देखकर बहुत जल्दी चिंता में आ जाते हैं।*
*तुलना से बचें और खुश रहें ।*
*ना किसी से ईर्ष्या, ना किसी से कोई होड़..!!!*
*मेरी अपनी हैं मंजिलें, मेरी अपनी दौड़..!!!*
               
*"परिस्थितियां कभी समस्या नहीं बनती,*
*समस्या इस लिए बनती है, क्योंकि हमें उन परिस्थितियों से लड़ना नहीं आता।"*
                ¸.•*""*•.¸ 
         
     *"सदा मुस्कुराते रहिये"*

राम राम

*राम राम  कहने से*-- मन हलका हो जाता है !
*राम राम  कहने से--*नकारात्मक विचार नहीं आते !
*राम राम कहने से--* पीड़ा शांत हो जाती है !
*राम राम कहने से---* खुशी उमड़ पड़ती है !
*राम राम कहने से--*गम कोसो दूर चले जाता है !
*राम राम कहने से --* मान सम्मान बढ जाता है !
*राम राम कहने से--*  ताज़गी का एह्सास होता है !
*राम राम  कहने से--* बिगड़े काम बनते हैं !
*राम राम  कहने से--* भजन सुमरन समृद्धि आती है !
*राम राम कहने से--*मानसिक बल मिलता है ! 
*राम राम  कहने से--* मोक्ष और मुक्ति मिलती है !
*राम राम कहने से--*  हर सपने साकार होते हैं !!

    राम राम जी

हर व्यक्ति यही चाहता है

वर्तमान समय में हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसके पास पैसा हो, हर वो सुख-सुविधा हो जिससे वो अपना जीवन आराम से व्यतीत कर सके, देखा जायें तो धन का महत्व आज से नहीं, बल्कि कई सदियों से रहा है, शायद आप इस बात से अंजान होंगे कि महाभारत में धन के महत्व के विषय में कई नीतियां वर्णित है।

इन नीतियों के अनुसार मुख्य रूप से चार बातों को ध्यान रखा जाना चाहियें, यदि किसी व्यक्ति के पास धन अधिक होता है तो आमतौर पर ये देखने को मिलता है, कि वह बुरी आदतों का शिकार हो जाता है, इसलिये यदि आप धन से हमेशा सुख और शांति प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको अपने मन, शरीर और विचार को नियंत्रित करना होगा।

शास्त्रों के अनुसार जो भी व्यक्ति बुरी आदतों का शिकार हुआ है वह पूरी तरह से नष्ट हो गया, महाभारत की इस नीति में ये भी बताया गया है कि हमें हमेशा ये प्रयास करना चाहिये कि आय-व्यय में संतुलन बना रहें,  तथा इसके साथ ही धन को हमेशा सोच-समझकर और अपनी जरूरतों के अनुसार व्यय करना चाहिये।

परिश्रम और ईमानदारी से किए गए कार्यों से जो धन प्राप्त होता है, उससे सबको स्थाई लाभ मिलता है, और इससे घर में समृद्धि भी बनी रहती है, परंतु जो लोग गलत कार्यों से धन कमाते हैं, वो कई प्रकार के रोगों और परेशानियों से घिरे रहते हैं, गलत काम करने से भले ही कुछ समय के लिये सुख की प्राप्ति होती हो, 

परंतु एक बात याद रखें, ये सुख क्षणिक होता है, और इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत में देखने को मिलता है, दुर्योधन ने छल-कपट से पांडवों से उनकी धन-संपत्ति छीन ली थी, लेकिन ये संपत्ति उसके पास टिक ना सकी, जैसा कि सभी जानते हैं कि यदि हम धन का सही प्रबंधन करेंगे और सही कार्यों में धन लगाएंगे तो, निश्चित रूप से लाभ मिल सकता है।

सही तरीके से किसी भी कार्यों में लगाए गए धन से हमेशा लाभ की प्राप्ति होती है, जबकि, जो लोग जल्दबाजी में लाभ कमाने के चक्कर में धन का प्रबंधन गलत तरीके से करते हैं, वे अंत में बहुत दुखी होते हैं, इसलिये धन भले ही बहुत कमाओं, लेकिन कमाई का स्तोत् धर्ममय् हो, और उस कमाई का अमूक हिस्सा अच्छे कार्यों में व्यय करें।

जय श्री कृष्ण!

भागवत पुराण

भागवत पुराण के महात्मय में एक चर्चा है । जब परीक्षित को शुकदेव जी कथा सुना रहे थे, तो उसी समय भागवत पुराण के श्लोक को सुनकर स्वर्ग के देवता नीचे उतर आए । देवता शुकदेव जी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की सम्पत्ति है । यह तो स्वर्ग में जानी चाहिए । अतः आप इसे हमें दे दें ।

शुकदेव जी बोले- मैं तो वक्ता हूँ । यजमान हैं राजा परीक्षित । आप परीक्षित से पूछ लीजिए, अगर ये देते हैं, तो आप ले जाइये कथा को स्वर्ग में ।

देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया- आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में ?

देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले में हम आपको अमृत दे सकते हैं। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है, आपकी मृत्यु होने वाली है । हम आपको स्वर्ग का अमृत दे देते हैं । आप अमृत ले लो और कथा हमको दे दो ।

राजा परीक्षित ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया- आप मुझे अमृत तो दे दोंगे और हो सकता है कि मैं अमर भी हो जाऊं, परन्तु इससे मैं निर्भय नहीँ हो पाऊंगा ।
बड़ा फर्क है- अमर होने और निर्भय ( बिना भय के ) होने में । देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य आपके पीछे लग जाएं । आप भागे फिरते हो, आप अमर हो लेकिन निर्भय नहीं हो । भागवत की ये कथा मुझे निर्भय कर देगी, मुझे अमर नहीं होना ।

कथासार- मनुष्य इस संसार में भौतिक सुख प्राप्त करके भी चाहे कितना सुखी दिखे, लेकिन फिर भी वह निर्भय नहीं है, उसे कोई न कोई चिन्ता रहती ही है । भगवान की कथा ही हमें इस संसार में निर्भयता प्रदान करती है । तब भक्त को अपने भगवान का ही आश्रय रहता है । उसको कोई संसारिक वस्तु का मोह नहीं रह जाता, यहां तक कि अपने जीवन का भी नहीं । वो सोचने लगता है कि मिल जाय तो ठीक, नहीं मिले तो नहीं सही । 

यह " नहीं सही " बहुत बढ़िया मन्त्र है । परीक्षित की तरह कोई इच्छा नहीं रहे, जीये तो भी मौज, मरें तो भी मौज । अगर हम भी यही धारणा अपना लें, तो मरने से पहले हमें भी तत्त्वज्ञान हो जाये ।

।। राम राम ।।

Thursday 13 April 2017

हे नाथ

1. हे नाथ! आप मुझे मुझसे अधिक जानते है । इसलिए मेरी इच्छा कभी पूर्ण न हो । आपकी इच्छा पूर्ण हो ।

2. हे नाथ! मेरे मन, वचन, कर्म से कभी भी किसी को भी किंचिन्मात्र दुःख न पहुँचे यह कृपा बनाये रखे ।

3. हे नाथ! मैं कभी न पाप देखूँ, न सुनू और न किसी के पाप का बखान करूँ । 

4. हे नाथ! शरीर के सभी इन्द्रियों से आठो पहर केवल आपके प्रेम भरी लीला का ही आस्वादन करता रहूँ ।

5. हे नाथ! प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी आपके मंगलमय विधान देख सदैव प्रसन्न रहूँ ।

6. हे नाथ! अपने ऊपर महान से महान विपत्ति आने पर भी दूसरों को खुशी दिया करू ।

7. हे नाथ! अगर कभी किसी कारणवश मेरे वजह से किसी को दुःख पहुँचे तो उसी समय उसके चरणों में पड़कर क्षमा माँग लू ।

8. हे नाथ! आठो पहर रोम रोम से आपके नाम का जप होता रहे ।

9. हे नाथ! मेरे आचरण श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के अनुकूल हो ।

10. हे नाथ! हरेक परिस्थिति में आपकी कृपा के दर्शन हो ।

 हरी बोल हरी बोल

Tuesday 11 April 2017

आज का भगवद चिन्तन


  • अपने काम को समय पर करने की आदत बनाओ क्योंकि आप घडी तो खरीद सकते हो मगर समय को नहीं। आप सिर्फ घड़ी को अपने हाथों में बाँध सकते हैं, वक्त को कदापि नहीं। वक़्त को कोई नहीं रोक पाया।
  • घड़ी भले ही पीछे भी हो सकती है मगर वक्त पीछे नहीं हो सकता और घड़ी तो बंद भी हो जाती है मगर उससे समय चक्र नहीं बंद हो जाता। वक़्त का सम्मान ना करने वाले का एक दिन वक़्त भी सम्मान नहीं करता है।
  • अतः याद रखना कि काम समय पर ही पूरा किया जाये क्योंकि घड़ी भले ही आपकी हो मगर वक्त अपनी चाल से चलता है किसी और की चाल से नहीं। दुनिया में कोई भी ऊँचे मुकाम पर पहुंचा है तो मेहनत और समय बद्धता के कारण। कोई भी कार्य हो उसकी पूरे होने की समय सीमा जरूर हो।

Saturday 8 April 2017

प्रार्थना

ईश्वर से प्रतिदिन प्रार्थना करते समय क्या मांगना चाहिए ?

१. हे प्रभु, मुझे दुख सहने की शक्ति दें और प्रत्येक परिस्थिति में मेरी साधना अविरत चलती रहे ऐसी आप कृपा करें |
२. मेरे नामजप अखंड हो इस हेतु आप ही मुझे प्रयास करना सिखाएँ |
३. मेरे चारो ओर आपके शस्त्रों से अभेद्य कवच निर्माण हो ऐसी आप कृपा करें |
४. मेरे मन एवं बुद्धि पर छाया काला आवरण नष्ट हो |
५. राष्ट्र एवं धर्मरक्षण हेतु मुझसे यथाशक्ति प्रयास हो ऐसी मुझे सद बुद्धि दें |
६. मेरे व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में अनिष्ट शक्ति द्वारा जो भी अड़चनें हैं उसे दूर करने हेतु मुझसे क्षात्रवृत्ति से प्रयास होने दें |
७. मेरी भक्ति, शरणागति बढ़े ऐसे मुझसे प्रयत्न होने दें |
८. मेरे दोष और अहम के बारे में सतर्कता से उन्हें दूर करने हेतु प्रयास कर सकूँ , इस हेतु आप मेरा योग्य मार्गदर्शन करें |
९. मैं प्रत्येक परिस्थिति में साधना का दृष्टिकोण रख आचरण करूँ इस हेतु मेरी सीखने की वृत्ति बढ़े ऐसी कृपा करें !
१०. आपकी कृपादृष्टि इस तुच्छ भक्त पर सतत बनी रहे बस इतनी ही आपके श्रीचरणों में प्रार्थना है |

Friday 7 April 2017

देने वाला कौन ?

आज हमने भंडारे में भोजन करवाया। आज हमने ये बांटा, आज हमने वो दान किया...
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 हम अक्सर ऐसा कहते और मानते हैं। इसी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय कथा सुनिए...
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एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।
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एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो जाए, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।
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कुछ दिनों बाद उसे वह साधु फिर मिला। 
लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"
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समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा---
"ऋषिवर...!! अब जब भी आपकी प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"
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अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया। 
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लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं। 
उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।
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लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया। 
यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।
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कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा---"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"
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साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया। 
इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"
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कथासार- *किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया*!
दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया । 
वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??
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दान किए से जाए दुःख, दूर होएं सब पाप।।
नाथ आकर द्वार पे, दूर करें संताप
🙌हरी ॐ

आज का भगवद चिन्तन


🌺केवल राम-राम जपने से ही कोई राम का प्रिय नहीं बन जाता। राम जैसा जीवन जीकर ही राम का प्रिय बना जा सकता है। अयोध्या की सत्ता अगर वो स्वीकार कर लेते तो राजा राम बन जाते पर सत्ता को ठोकर मारकर वो हर दिल के राजा बन गए ।
     
🌺पूरी दुनिया में राम जैसा व्यक्तित्व आज तक नहीं हुआ। अच्छे शासक का यही तो गुण होता है दुखी - पीड़ितों के द्वार पर स्वयं पहुँच जाये। अच्छा पुत्र वही तो होता है जो पिता के सम्मान की रक्षा के लिए वन-वन जाने को तैयार हो जाता है। अच्छे भाई का यही तो गुण होता है जो अपने भाई को सुख देंने के लिए स्वयं सुखों को छोड़ दे। 
     
🌺एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श राजा सब गुण श्रीराम के भीतर थे। उनका एक भी गुण आपके भीतर आ जाये तो समझना आपने रामायण पूरी पढ़ ली। पर करुणा यह है कि आज लोग राम को मानते हैं पर राम की नहीं मानते।

      
🌺धर्म क्या है ? भगवान् राम के सम्पूर्ण जीवन को देख लो, समझ आ जायेगा।

Superb Story

A little boy went to his old grandpa and asked, "What's the value of life?"

The grandpa gave him one stone and said, "Find out the value of this stone, but don't sell it."

The boy took the stone to an Orange Seller and asked him what its cost would be.

The Orange Seller saw the shiny stone and said, "You can take 12 oranges and give me the stone."

The boy apologized and said that the grandpa has asked him not to sell it.

He went ahead and found a vegetable seller.

"What could be the value of this stone?" he asked the vegetable seller.

The seller saw the shiny stone and said, "Take one sack of potatoes and give me the stone."

The boy again apologized and said he can't sell it.

Further ahead, he went into a jewellery shop and asked the value of the stone.

The jeweler saw the stone under a lens and said, "I'll give you 1 million for this stone." 

When the boy shook his head, the jeweler said, "Alright, alright, take 2 24karat gold necklaces, but give me the stone."

The boy explained that he can't sell the stone.

Further ahead, the boy saw a precious stone's shop and asked the seller the value of this stone.

When the precious stone's seller saw the big ruby, he lay down a red cloth and put the ruby on it.

Then he walked in circles around the ruby and bent down and touched his head in front of the ruby. "From where did you bring this priceless ruby from?" he asked.

"Even if I sell the whole world, and my life, I won't
be able to purchase this priceless stone."

Stunned and confused, the boy returned to the grandpa and told him what had happened. 

"Now tell me what is the value of life, grandpa?"

Grandpa said, 

"The answers you got from the Orange Seller, the Vegetable Seller, the Jeweler & the Precious Stone's Seller explain the value of our life...

You may be a precious stone, even priceless, but, people will value you based on their intellectual status, their level of information, their belief in you, their motive behind entertaining you, their ambition, their risk taking ability & ultimately their calibre. 

So don't fear, you will surely find someone who will discern your true value."

*Respect yourself.*

*Don't sell yourself cheap.*

*You are rare, Unique, Original and the only one of ur kind.*

*Your are a masterpiece because u r MASTER'S PIECE.*

*No one can Replace you.*

*Great Life*

जिसने अहंकार छोड़ दिया, वही संत है

संतों की परंपरा में संत राबिया का एक विशिष्ट स्थान इसलिए है कि उन्हें अपनी सिद्धियों पर कभी घमंड नहीं रहा। वह अल्हड़ एवं फक्कड़ जीवन व्यतीत करते हुए लोगों को अध्यात्म की गहराई में ले जाती थीं। एक बार राबिया अपनी कुटिया में कुछ अन्य संतों के साथ अध्यात्म चर्चा में मशगूल थीं।

चर्चा का विषय था *अध्यात्म और भक्ति में संगीत की भूमिका।* वहां बैठे एक संत का कहना था कि अध्यात्म के लिए जरूरी नहीं कि संगीत का सहारा लिया ही जाए, जबकि राबिया का मानना था कि  *ऊपर वाले को याद करने के लिए यह जरूरी न सही, लेकिन एक बेहतर तरीका है। संगीत हमें एकाग्रता देता है जो ईश्वर की भक्ति के लिए आवश्यक तत्व है।*

अभी बहस चल ही रही थी कि वहां संत हसन बसरी आए और बोले, ‘आप लोग इस बंद जगह पर क्यों बैठे हैं, चलिए हम तालाब के किनारे बैठकर इस बात पर चर्चा करते हैं।’ दरअसल हसन को पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त हुई थी और इसके प्रदर्शन के लिए वह उतावले थे। राबिया को समझते देर नहीं लगी कि संत हसन बसरी असल में क्या चाहते हैं। उन्हें खुद हवा में उड़ने की सिद्धि थी, सो हंसते हुए कहा, ‘हम हवा में उड़ते-उड़ते बातें करें तो कैसा रहेगा?’

हसन को समझ में आ गया कि राबिया उन पर कटाक्ष कर रही हैं। राबिया ने कहा, *‘भाई तुम जो कर सकते हो वह तो एक मछली भी कर सकती है और जो मैं करती हूं वह एक मक्खी भी कर सकती है। मगर उस चमत्कार से भी बड़ी एक चीज है, जिसे हमें विनम्रता से खोजना चाहिए। हमें अपनी ताकत का प्रयोग व्यापक जनसमुदाय के हित में करना चाहिए।’* राबिया की इस सीख ने संत हसन बसरी के अहंकार को तो दूर किया ही, साथ ही अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले वहां उपस्थित संतों को भी प्रेरणा दी।

Wednesday 5 April 2017

आज का भगवद चिन्तन

*राधे राधे - *

  •       श्रीमद भगवद गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि मेरी बनाई हुई यह माया बड़ी दुस्तर है। इससे बड़े- बड़े ज्ञानी भी मुक्त नहीं हो पाते। लेकिन जो मेरा निरन्तर भजन , सुमिरण करते हैं वो मेरी कृपा से इससे मुक्त हो जाते हैं। 
  •       ज्ञान मार्ग में और भक्ति मार्ग में यही अंतर है। ज्ञानी हर वस्तु को छोड़ कर मुक्त होता है। भक्त उस वस्तु को परमात्मा को अर्पित करके मुक्त होता है। माया को माया पति की और मोड़ दो तो माया प्रभाव ना डाल पायेगी। लक्ष्मी तब तक ही बांधती है जब तक वह अपनी देह के सुखों की पूर्ति में ही खर्च होती है।
  •       लक्ष्मी को नारायण की सेवा में लगाना शुरू कर दो तो वह पवित्र तो होगी ही तुम्हें प्रभु के समीप और ले आएगी। याद रखना, माया को छोड़कर कोई मुक्त नहीं हुआ अपितु जिसने प्रभु की तरफ माया को मोड़ दिया वही मुक्त हुआ। इन्द्रियों को तोडना नहीं मोड़ना है। इन्द्रियों का साफल्लय विषयों में नहीं वासुदेव में है। 

राम चरित मानस


तुलसी दास जी ने जब राम चरित मानस की रचना की,तब उनसे किसी ने पूंछा कि बाबा!आप ने इसका नाम रामायण क्यों नहीं रखा? क्योकि इसका नाम रामायण ही है.बस आगे पीछे नाम लगा देते है, वाल्मीकि रामायण, आध्यात्मिक रामायण परन्तु आपने राम चरित मानस ही क्यों नाम रखा?

बाबा ने कहा - क्योंकि *रामायण और राम चरित मानस में एक बहुत बड़ा अंतर है।* रामायण का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर, जब हम मंदिर जाते है तो एक समय पर जाना होता है, मंदिर जाने के लिए नहाना पडता है, जब मंदिर जाते है तो खाली हाथ नहीं जाते कुछ फूल, फल साथ लेकर जाना होता है.मंदिर जाने कि शर्त होती है, मंदिर साफ सुथरा होकर जाया जाता है।

और मानस अर्थात सरोवर, सरोवर में ऐसी कोई शर्त नहीं होती, समय की पाबंदी नहीं होती, जाती का भेद नहीं होता कि केवल हिंदू ही सरोवर में स्नान कर सकता है, कोई भी हो, कैसा भी हो? और व्यक्ति जब मैला होता है, गन्दा होता है तभी सरोवर में स्नान करने जाता है। माँ की गोद में कभी भी कैसे भी बैठा जा सकता है।

रामचरितमानस की चौपाइयों में ऐसी क्षमता है कि इन चौपाइयों के जप से ही मनुष्य बड़े-से-बड़े संकट में भी मुक्त हो जाता है।

इन मंत्रो का जीवन में प्रयोग अवश्य करे प्रभु श्रीराम आप के जीवन को सुखमय बना देगे।

1. *रक्षा के लिए*
मामभिरक्षक रघुकुल नायक।
घृत वर चाप रुचिर कर सायक।।

2. *विपत्ति दूर करने के लिए*
राजिव नयन धरे धनु सायक।
भक्त विपत्ति भंजन सुखदायक।।

3. *सहायता के लिए*
मोरे हित हरि सम नहि कोऊ।
एहि अवसर सहाय सोई होऊ।।

4. *सब काम बनाने के लिए*
वंदौ बाल रुप सोई रामू।
सब सिधि सुलभ जपत जोहि नामू।।

5. *वश मे करने के लिए*
सुमिर पवन सुत पावन नामू।
अपने वश कर राखे राम।।
 
6. *संकट से बचने के लिए*
दीन दयालु विरद संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।

7. *विघ्न विनाश के लिए*
सकल विघ्न व्यापहि नहि तेही।
राम सुकृपा बिलोकहि जेहि।।

8. *रोग विनाश के लिए*
राम कृपा नाशहि सव रोगा।
जो यहि भाँति बनहि संयोगा।।

9. *ज्वार ताप दूर करने के लिए*
दैहिक दैविक भोतिक तापा।।
राम राज्य नहि काहुहि व्यापा।

10. *दुःख नाश के लिए*
राम भक्ति मणि उस बस जाके।
दुःख लवलेस न सपनेहु ताके।।

11. *खोई चीज पाने के लिए*
गई बहोरि गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू

12. *अनुराग बढाने के लिए*
सीता राम चरण रत मोरे।
अनुदिन बढे अनुग्रह तोरे।।

13. *घर मे सुख लाने के लिए*
जै सकाम नर सुनहि जे गावहि।
सुख सम्पत्ति नाना विधि पावहिं।।

14. *सुधार करने के लिए*
मोहि सुधारहि सोई सब भाँती।
जासु कृपा नहि कृपा अघाती।।

15. *विद्या पाने के लिए*
गुरू गृह पढन गए रघुराई।
अल्प काल विधा सब आई।।

16. *सरस्वती निवास के लिए*
जेहि पर कृपा करहि जन जानी।
कवि उर अजिर नचावहि बानी।।

17. *निर्मल बुद्धि के लिए*
ताके युग पदं कमल मनाऊँ।
जासु कृपा निर्मल मति पाऊँ।।

18. *मोह नाश के लिए*
होय विवेक मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरण अनुरागा।।

19. *प्रेम बढाने के लिए*
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलत स्वधर्म कीरत श्रुति रीती।।

20. *प्रीति बढाने के लिए*
बैर न कर काह सन कोई।
जासन बैर प्रीति कर सोई।।

21. *सुख प्रप्ति के लिए*
अनुजन संयुत भोजन करही।
देखि सकल जननी सुख भरही।।

22. *भाई का प्रेम पाने के लिए*
सेवाहि सानुकूल सब भाई।
राम चरण रति अति अधिकाई।।

23. *बैर दूर करने के लिए*
बैर न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।

24. *मेल कराने के लिए*
गरल सुधा रिपु करही मिलाई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।

25. *शत्रु नाश के लिए*
जाके सुमिरन ते रिपु नासा।
नाम शत्रुघ्न वेद प्रकाशा।।

26. *रोजगार पाने के लिए*
विश्व भरण पोषण करि जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।।

27. *इच्छा पूरी करने के लिए*
राम सदा सेवक रूचि राखी।
वेद पुराण साधु सुर साखी।।

28. *पाप विनाश के लिए*
पापी जाकर नाम सुमिरहीं।
अति अपार भव भवसागर तरहीं।।

29. *अल्प मृत्यु न होने के लिए*
अल्प मृत्यु नहि कबजिहूँ पीरा।
सब सुन्दर सब निरूज शरीरा।।

30. *दरिद्रता दूर के लिए*
नहि दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना।
नहि कोऊ अबुध न लक्षण हीना।।

31. *प्रभु दर्शन पाने के लिए*
अतिशय प्रीति देख रघुवीरा।
प्रकटे ह्रदय हरण भव पीरा।।

32. *शोक दूर करने के लिए*
नयन बन्त रघुपतहिं बिलोकी।
आए जन्म फल होहिं विशोकी।।

33. *क्षमा माँगने के लिए*
अनुचित बहुत कहहूँ अज्ञाता।
क्षमहुँ क्षमा मन्दिर दोऊ भ्राता।।

इसलिए जो शुद्ध हो चुके है वे रामायण में चले जाए और जो शुद्ध होना चाहते है वे राम चरित मानस में आ जाए। राम कथा जीवन के दोष मिटाती है 

*"रामचरित मानस एहिनामा, सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा"*

राम चरित मानस तुलसीदास जी ने जब किताब पर ये शब्द लिखे तो आड़े (horizontal) में रामचरितमानस ऐसा नहीं लिखा, खड़े में लिखा (vertical)

*राम*
*चरित*
*मानस*

किसी ने गोस्वामी जी से पूंछा आपने खड़े में क्यों लिखा तो गोस्वामी जी कहते है रामचरित मानस राम दर्शन की, राम मिलन की सीढी है, जिस प्रकार हम घर में कलर कराते है तो एक लकड़ी की सीढी लगाते है, जिसे हमारे यहाँ नसेनी कहते है, जिसमे डंडे लगे होते है, गोस्वामी जी कहते है रामचरित मानस भी राम मिलन की सीढी है जिसके प्रथम डंडे पर पैर रखते ही श्रीराम चन्द्र जी के दर्शन होने लगते है, अर्थात यदि कोई बाल काण्ड ही पढ़ ले, तो उसे राम जी का दर्शन हो जायेगा।

*जय श्री राम*
*जय हिंद .... जय हिंदुत्व ....*

Tuesday 4 April 2017

सोच का फ़र्क


एक शहर में एक धनी व्यक्ति रहता था, उसके पास बहुत पैसा था और उसे इस बात पर बहुत घमंड भी था। एक बार किसी कारण से उसकी आँखों में इंफेक्शन हो गये।आँखों में बुरी तरह जलन होती थी । वह डॉक्टर के पास गया लेकिन डॉक्टर उसकी इस बीमारी का इलाज नहीं कर पाया। सेठ के पास बहुत पैसा था । उसने देश विदेश से बहुत सारे नीम- हकीम और डॉक्टर बुलाए।एक बड़े डॉक्टर ने बताया की उनकी आँखों में एलर्जी है। उन्हें कुछ दिनों तक सिर्फ़ हरा रंग ही देखना होगा और कोई और रंग देखेंगे तो ( आँखों ) की परेशानी बढेगी।
अब क्या था, सेठ ने बड़े बड़े पेंटरों को बुलाया और पूरे महल को हरे रंग से रंगने का आदेश दिया। वह बोला- मुझे हरे रंग के अलावा कोई और रंग नहीं दिखना चाहिए । मैं जहाँ से भी गुजरूँ, हर जगह हरा रंग ही दिखे । इसके लिए पूरे शहर को हरे रंग से रंग दो । पेंटरों ने कार्य शुरू कर दिया ।
इस काम में बहुत पैसा खर्च हो रहा था लेकिन फिर भी सेठ की नज़र किसी दूसरे रंग पर पड़ ही जाता था , क्योंकि पूरे नगर को हरे रंग से रंगना संभव नहीं हो पा रहा था । सेठ दिन प्रतिदिन पेंट कराने के लिए पैसा खर्च करता जा रहा था।

एक दिन उस शहर से एक महात्मा पुरुष गुजर रहा थे । उसने चारों तरफ हरे रंग देखकर लोगों से कारण पूछा।
सारी बात सुनकर वे सेठ के पास गये और बोले -- सेठ जी आपको इतना पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं है । मेरे पास आपकी परेशानी का एक छोटा सा हल है । आप हरा चश्मा खरीद लें । फिर आपको हर जगह सब कुछ हरा ही दिखेगा ।
सेठ की आँखे खुली की खुली रह गयी । उसके दिमाग़ में यह शानदार विचार आया ही नहीं था । वह बेकार में इतना पैसा खर्च किये जा रहा था।फिर उसने ऐसा ही किया ।

ऐसे ही जीवन में हमारी सोंच और देखने के नजरिये पर भी बहुत सारी चीज़ें निर्भर करतीं हैं । कई बार परेशानी का हल बहुत आसान होता है लेकिन हम परेशानी में फँसे रहते हैं।इसके लिए हमें सकारात्मक सोच का व्यक्ति होना/बनना चाहिए । इसे कहते हैं सोच का फ़र्क।
 

जय श्रीकृष्ण

Monday 3 April 2017

साधु की संगति

एक चोर को कई दिनों तक चोरी करने का अवसर ही नहीं मिला. उसके खाने के लाले पड़ गए. मरता क्या न करता. मध्य रात्रि गांव के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में ही घुस गया.

वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी हैं. अपने पास कुछ संचय करते तो नहीं रखते फिर भी खाने पीने को तो कुछ मिल ही जायेगा. आज का गुजारा हो जाएगा फिर आगे की सोची जाएगी.

चोर कुटिया में घुसा ही था कि संयोगवश साधु बाबा लघुशंका के निमित्त बाहर निकले. चोर से उनका सामना हो गया. साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था पर उन्हें यह नहीं पता था कि वह चोर है.

उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम से पूछा- कहो बालक ! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ? चोर बोला- महाराज ! मैं दिन भर का भूखा हूं.

साधु बोले- ठीक है, आओ बैठो. मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे. वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूं. तुम्हारा पेट भर जायेगा. शाम को आये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते.

पेट का क्या है बेटा ! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है. यथा लाभ संतोष’ यही तो है. साधु ने दीपक जलाया, चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिए.

साधु बाबा ने चोर को अपने पास में बैठा कर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है. उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया.

सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये बाबा है. मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं ! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूं. यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर. मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं.

मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं. जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं. चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए.

उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृत वर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला. तुलसी दास जी ने कहा है
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये. साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा.

फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी ! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया !

लेकिन फिर सोचा, ‘साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा. दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे. संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।

भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहा- बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे. मेरे पास एक चटाई है. इसे ले लो और आराम से यहीं कहीं डालकर सो जाओ. सुबह चले जाना.

नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था. वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा. साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा- बेटा ! क्या हुआ ?

रोते-रोते चोर का गला रूँध गया. उसने बड़ी कठिनाई से अपने को संभालकर कहा-महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूं. साधु बोले- भगवान सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं. शरण में आने से बड़े-से-बड़ा अपराध क्षमा कर देते हैं. उन्हीं की शरण में जा.

चोर बोला-मैंने बड़ी चोरियां की हैं. आज भी मैं भूख से व्याकुल आपके यहां चोरी करने आया था पर आपके प्रेम ने मेरा जीवन ही पलट दिया. आज मैं कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा. मुझे अपना शिष्य बना लीजिए.

साधु के प्रेम के जादू ने चोर को साधु बना दिया. उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके जीवन को परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया.

महापुरुषों की सीख है, सबसे आत्मवत व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है. संसार इसी की भूख से मर रहा है. अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो.

प्रेम और स्नेह को उदारता से खर्च करो. जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जाएगा.

जय श्री राधे

Sunday 2 April 2017

प्रभु में सब पतितन

जय हो मेरे दयालु प्रभु की बार बार में पथ भ्रमित होता हूँ वो बार बार मुझे फिर राह दिखाता हैं
में बार बार वासनाओं के पीछे अंधी दौड़ दौड़ रहा हूँ वो उतनी ही बार पकड़ कर राह दिखाता हैं
न जाने ये खेल कब रुकेगा , कब में उसकी बताई राह पे आगे बढूंगा कब इन कभी भी तृप्त न होने वाली वासनाओं की मृगतृष्णा के अज्ञान से बचुंगा ।
मेरे कारण मेरे ठाकुर को कितना श्रम हो रहा है और मुझे कोई शर्म नहीं आती , .......
प्रभु में सब पतितन को टीको ।
और पतित सब द्योस चार के में तो जन्मन् हीं को।।
बधिक अजामिल गणिका तारी और पुतनाही को ।
मोहि-छांड़ी तुम ओर उद्दारे मिटे शूल कैसे जी को ।।
कोउ न समर्थ शुद्ध करन को खेचीं कहत हों लीको ।
मरियत लाज सूर पतितन में कहत सबे मोहि नीको ।।
राधे राधे

आज का भगवद चिन्तन

जय श्री कृष्ण 
      राधे राधे
जय माता की
     नारी से नारायणी की यात्रा का पर्व ही नवरात्र है। यह पर्व नारी के जीवन के उच्चतम स्तर को रेखांकित करता है। दुनिया में कुछ लोग भले ही नारी को भोग की वस्तु या उसे अपने से कमतर आंकते हों। मगर एक नारी चाहे तो कौन सा पद प्राप्त नहीं कर सकती ? माँ दुर्गा के चरित्र को देखो।

माँ का जन्म दिव्य है इसलिए इतने देवताओं को होते हुए वो पूज्या नहीं हुईं अपितु उनके कर्म दिव्य हैं इसलिए वो पूज्या हुईं। परहित और परोपकार की भावना से जो कर्म करता है, देर से ही सही समाज उसको पूजता अवश्य है।

जगत की तो छोड़ो जगदीश  प्राप्ति की भी जब गोपियों ने ठान ली और कृष्ण प्राप्ति के लिए माँ भगवती की शरण में गई तो गोविन्द को भी प्राप्त कर लिया। माँ के कात्यायनी स्वरूप की गोपियों ने आराधना की। नवरात्र के 6वे दिन आज माँ कात्यायनी की ही पूजा की जाती है।

Saturday 1 April 2017

ये जिन्दगी

लीज पर मिली है ये जिन्दगी;
रजिस्ट्री के चक्कर में ना पड़े..

अनावश्यक वस्तुओं का क्या करूँ......बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढे! 

 बल्लभाचार्य के समय में अनेक वैष्णव भक्त हुए पर उनमें कुंभनदास का नाम आज भी बडी़ श्रद्धा से लिया जाता है। यद्यपि वह परिवार में रहते थे पर परिवार उनमें नहीं। कषि कार्य करने के बाद भी वह इतना समय बचा लेते थे कि जिसमें भक्ति के अनेक सुंदर-सुंदर गीतों की रचना कर सकें।

 जब वे अपने भक्ति-रस से पूर्ण गीतों को मधुर कंठ से गाते थे तो राह चलते लोग खड़े होकर सुनने लगते थे। भगवान् के भक्त निर्धनता को वरदान समझते हैं। उनका विश्वास है कि अभाव का जीवन जीने वाले भक्तों की ईश्वर को याद सदैव आती रहती है।

 हाँ कुंभनदास भी भौतिक संपदाओं से वंचित थे। वह इतने निर्धन थे कि मुख देखने के लिए एक दर्पण तक न खरीद सकते थे। स्नान के बाद जब कभी चंदन लगाने की आवश्यकता होती तो किसी पात्र में जल भरकर अपना चेहरा देखते थे।

 जल से भरे पात्र को सामने रखे कुंभनदास तिलक लगा रहे थे कि महाराजा मानसिंह उनके दर्शन हेतु पधार गये। महाराजा ने आकर अभिवादन में 'जय श्रीकृष्ण' कहा-उत्तर में भक्त ने भी उन्हें पास बैठने का संकेत देते हुए 'जय श्री कृष्ण' कहा। पर जल्दी में उस पात्र का जल फैल गया। अतः कुंभनदास ने अपनी पुत्री से पुनः जल भरकर लाने को कहा। राजा को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। उन्हें यह जानकर बडा दुःख हुआ कि भगवान् का भक्त एक छोटी-सी वस्तु दर्पण के अभाव में कैसा कष्ट उठा रहा है ? राजा मानसिंह ने अपने महल में एक सेवक भेजकर स्वर्णजटित दर्पण मँगवाया और भक्त के चरणों मे अर्पित कर क्षमा माँगी।

 कुंभनदास बोले-'राजन्! हम जैसे निर्धन व्यक्ति के घर में इतनी मूल्यवान वस्तु क्या शोभा दे सकती है ?
  
 मेरी तरफ से यह तुच्छ भेंट तो आपको स्वीकार ही करनी पडेगी। आपको जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उनकी सूची दे दीजिए। घर जाकर मैं आपकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखकर समस्त वस्तुओं की व्यवस्था करवा दूँगा। राजा मानसिंह ने आग्रह के स्वर में अपनी बात कही।

 'राजन् निश्चिंत रहिए और अपनी जनता के प्रति उदार तथा कर्तव्य की भावना बनाए रखिए। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, भगवान् की कृपा से सब प्रकार आनंद है। आप देखते नहीं भगवान का नाम स्मरण हेतु माला, आचमन और पूजन के लिए पंचपात्र बैठने के लिए आसन आदि सभी उपयोगी वस्तुऐं तो हैं। कृपया आप यह दर्पण वापिस ले जाइए। जिस दिन भक्त भी इसी प्रकार का भोग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगेंगे उन दिन उनकी भक्ति समाप्त हो जायेगी।

          नारायण नारायण 
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय 

रोजी रोटी

"रोजी रोटी" की वजह से बुराई का दामन मत पकडिये..!
यदि आप में हुनर हैं,ईश्वर में आस्था हैं,खुद पर विश्वास हैं,तो ये नेकी के मार्ग पर चलने से भी मिल जाएगी..!!

हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा सकते हैं, जितना एक व्यक्ति धनोपार्जन के लिये......बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख जरूर पढे! 

कुछ लोग धनी बनने की वासना रूपी अग्नि में अपनी समस्त शक्ति, समय, बुद्धि, शरीर यहाँ तक कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं। यह तुमने भी देखा होगा। उन्हें खाने-पीने तक की भी फुरसत नहीं मिलती। प्रातःकाल पक्षी चहकते और मुक्त जीवन का आनन्द लेते हैं तब वे काम में लग जाते हैं। इसी प्रकार उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग काल के कराल गाल में प्रविष्ट हो जाते हैं। शेष को पैसा मिलता है पर वे उसका उपभोग नहीं कर पाते। कैसी विलक्षणता। धनवान् बनने के लिए प्रयत्न करना बुरा नहीं। इससे ज्ञात होता है कि हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा सकते हैं, जितना एक व्यक्ति धनोपार्जन के लिये।
मरने के बाद हमें सभी कुछ छोड़ जाना पड़ेगा, तिस पर भी देखो हम इनके लिए कितनी शक्ति व्यय कर देते हैं। अतः उन्हीं व्यक्तियों को, उस वस्तु की प्राप्ति के लिये जिसका कभी नाश नहीं होता, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है, क्या सहस्त्रगुनी अधिक शक्ति नहीं लगानी चाहिए? क्योंकि हमारे अपने शुभ कर्म, अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ- यही सब हमारे साथी हैं, जो हमारी देह नाश के बाद भी साथ जाते हैं। शेष सब कुछ तो यही पड़ा रह जाता है।
आत्म-बोध ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। जब उस अवस्था की उपलब्धि हो जाती है, तब यही मानव- देव-मानव बन जाता है और तब हम जन्म और मृत्यु की इस घाटी से उस ‘एक’ की ओर प्रयाण करते हैं जहाँ जन्म और मृत्यु- किसी का आस्तित्व नहीं है। तब हम सत्य को जान लेते हैं और सत्यस्वरूप बन जाते हैं।

         नारायण नारायण
 लक्ष्मीनारायण भगवान की जय

भगवान से मिलना ही नहीं चाहते

जो लोग सोचते हैं कि भगवान नहीं मिल सकते,वो वास्तव भगवान से मिलना ही नहीं चाहते।
जो लोग भगवान के मिलने को कठिन मानते है ,वो ऐसे हैं जो कि भगवान से मिलने का ईमानदारी से प्रयास ही नहीं करते या सही मार्ग खौजना ही नहीं चाहते।जो लोग श्रद्धा और विश्वास के कारण भगवान का मिलना दृणता से सरल मान लेते हैं वही भगवान उनके सबसे करीब रहते हैं।
जितने लोग उतनी मानसिकताएँ।प्राकृत परिस्थिति की बात की जाए तो एक ही परिस्थिति का असर सब पर अलग-अलग होता है जैसे अप्रेल में पानी गिरता है तो कुछ को तो गर्मी से राहत मिलती है और वही पानी किसानों को बुरा लगता है क्योकि ये उनकी फसल खराब करता है।यही पानी दो माह पहले गिरे तो इसके विपरीत होता है।मतलब कुछ लोगो को ठंड की बजह से बुरा लगेगा और किसानो के खेत में पानी हो जाएगा तो किसानों को अच्छा लगेगा।अब मानसिक परिस्थिति की बात करते हैं तो मान लो मंदिर निर्माण कार्य में कई मजदूर लगे हैं।अब उनकी कार्य करते समय की मानसिकताएं देखें तो
1. पहला सोचता है कम काम करना पडे और पैंसे मिल जाँए ,
2.दूसरा सोचता है कब काम खतम हो और कब कलारी जाँए,
3.तीसरा सोचता है कुछ घंटे और काम मिल जाए जिससे घर खर्च अच्छे से चल सके।
4.चौथा सोचता है जिंदगी निकल गई सेठो के काम करते-करते अब मंदिर का काम मिल गया तो सुकूंन है।
5.पाँचवा सोचता है ,पैसे मिलें या न मिलें मंदिर का काम है ये बडे भाग्य का काम है।
यहाँ सब मजदूरों के घरों की परिस्थिति लगभग एक सी ही है पर मानसिकता सबकी अलग-अलग है।कोई प्रसन्न तो कोई खिन्न।
अब पारमार्थिक स्थिति की बात करें,तो भगवान को मूर्ती अकेली में मानेगे तो वो बाहर कैंसे आ सकते हैं ।जो लोग भगवान को सब जगह मानते हैं उनके लिए भगवान किसी न किसी रूप में साथ रहते ही हैं।समय आने पर या भक्त का भाव अधिक बडने पर तुरंत प्रकट हो जाते हैं।अतः भक्ति भाव से प्रभु का नामस्मरण करें।
"राम"

सुख

सुखी होने के लिये मैंने कौन-सा काम नहीं किया ?
विवाह किया, संतानें पैदा कीं, धन कमाया, यश-कीर्ति के लिये प्रयास किया; लोगों से प्रेम बढ़ाना चाहा और न मालूम क्या-क्या किया, परन्तु सच कहता हूँ मेरे स्वामी ! ज्यों-ज्यों सुख के लिये प्रयत्न किया, त्यों-ही-त्यों परिणाम में दुःख और कष्ट ही मिलते गये । जहाँ मन टिकाया वहीं धोखा खाया ! कहीं भी आशा फलवती नहीं हुई । चिन्ता, भय, निराशा और विषाद बढ़ते ही गये । कहीं रास्ता दिखायी नहीं दिया । मार्ग बंद हो गया ।
तुमने कृपा की, तुम्हारी कृपा से यह बात समझ में आने लगी कि तुम्हारे अभय चरणों के आश्रय को छोड़कर कहीं भी सच्चा और स्थायी सुख नहीं है । चरणाश्रय प्राप्त करने के लिये कुछ प्रयत्न भी किया गया । अब भी प्रयत्न होता है और यह सत्य है कि इसी से सुख-शान्ति और आराम के दर्शन भी होने लगे हैं, परन्तु प्रभो ! पूर्वाभ्यासवश बार-बार यह मन विषयों की ओर चला जाता है । रोकने की चेष्टा भी करता हूँ, कभी-कभी रूकता भी है, परन्तु जाने की आदत छोड़ता नहीं ! तुम्हारे चरणों के सिवा सर्वत्र भय-ही-भय छाया रहता है- दुःखों का सागर ही लहराता रहता है, यह जानते, समझते और देखते हुए भी मन तुम्हें छोड़कर दूसरी ओर जाना नहीं छोड़ता ! इससे अधिक मेरे मन की नीचता और क्या होगी मेरे दयामय स्वामी !
तुम दयालु हो, मेरी ओर न देखकर अपनी कृपा से ही मेरे इस दुष्ट मन को अपनी ओर खींच लो । इसे ऐसा जकड़कर बाँध लो कि यह कभी दूसरी ओर जा ही न सके । मेरे स्वामी ! ऐसा कब होगा ? कब मेरा यह मन तुम्हारे चरणों के दर्शनों में ही तल्लीन हो रहेगा । कब यह तुम्हारी मनोहर मूरति की झाँकी कर-करके कृतार्थ होता रहेगा ।
अब देर न करो दयामय ! जीवन-संध्या समीप है । इससे पहले-पहले ही तुम अपनी दिव्य ज्योति से जीवन में नित्य प्रकाश फैला दो । इससे समुज्ज्वल बनाकर अपने मन्दिर में ले चलो और सदा के लिये वहीं रहने का स्थान देकर निहाल कर दो ।
जय श्री कृष्ण
'प्रार्थना' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 368, विषय- प्रार्थना, पृष्ठ-संख्या- १७-१८, गीताप्रेस गोरखपुर
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार

He who fools us stays within us


We are staying in the world where we get cheated or fooled by people but more than anyone else our own mind who is staying within us has fooled us and still continues to do so. some of his tricks or ways of fooling are mentioned below-
*1)By creating wrong picture of person or situation*
Although one may have eyes to see but his vision depends upon mind. The person may be nice, situations may be a favourable but due to preconceived notions and impressions in mind one may misinterpret it. The best of the friend becomes worst enemy if mind sees him in that way. False and insignificant appears to be real and significant and vice a versa by mind's vision.
*2)By false hopes and promises*
Mind is like a cheater but pretends to be a good friend. Just like someone promises to give best of the things in exchange of money but after receiving money offers something very cheap in return or runs away with money. Similarly mind ask us to work hard for senses but the pleasure at the end we receive is so meagre and fractional. But still mind gives hopes saying this time you could not enjoy but let's try next time with whole energy, you will be the winner.
*3)By convincing us*
Mind is expert in convincing us about its plans for sense enjoyment. His arguments feels appealing to the conditioned. He convinces us to such an extent that we, eternal souls tries to seek permanent pleasure with impermanent things in this temporary world.
*4)By depriving us* 
Gita calls mind to be an enemy that takes away our assets that are meant to understand our real nature. Mind keeps us controlled by his promising temptations, and most of us get hooked to it. Busy in trying to become blissful here in this world one completely forgets about his real identity as an eternal soul which by nature is always blissful and cognisant. Mind deprive us of our capacity to understand and enjoy pure bliss by alluring us for insignificant material pleasure.
*5)By dishonest advice*  
Ideally senses should be controlled by mind and mind should be under intelligence. Mind doesn't want to get controlled by intelligence so he corrupts the intelligence and controls it, engages it in fulfilling own vicious wishes. Corrupted intelligence can no more give good advice rather just tries to fulfil the desires of mind.

Interestingly one who frees us(Krishna) stays also within us, in our heart as paramatma, when one looks at him, trusts him and follows him, then he guides us on our spiritual journey without fooling us.