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Monday, 23 November 2015

ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास

एक बार एक अत्यंत गरीब महिला जो ईश्वरीय शक्ति पर बेइंतिहा विश्वास करती थी। एक बार अत्यंत ही विकट स्थिति में आ गई। कई दिनों से खाने के लिए पुरे परिवार को नहीं मिला।
एक दिन उसने रेडियो के माध्यम से ईश्वर को अपना सन्देश भेजा कि वह उसकी मदद करे।
यह प्रसारण एक नास्तिक  ,घमण्डी और अहंकारी उद्योगपति ने सुना और उसने सोचा कि क्यों न इस महिला के साथ कुछ ऐसा मजाक किया जाये कि उसकी ईश्वर के प्रति आस्था डिग जाय।
उसने अपने सेक्रेटरी को कहा कि वह ढेर सारा खाना और महीने भर का राशन उसके घर पर देकर आ जाये और जब वह महिला पूछे किसने भेजा है तो कह देना कि " शैतान" ने भेजा है।
जैसे ही महिला के पास सामान पंहुचा पहले तो उसके परिवार ने तृप्त होकर भोजन किया । फिर वह सारा राशन अलमारी में रखने लगी।
जब महिला ने पूछा नहीं कि यह सब किसने भेजा है  तो सेक्रेटरी से रहा नहीं  गया और पूछा , आपको क्या जिज्ञासा नही होती कि यह सब किसने भेजा है।
उस महिला ने बेहतरीन जवाब दिया , मैं इतना क्यों सोंचू  या पूंछू मुझे भगवान पर पूरा भरोसा है,मेरा भगवान जब आदेश देते है तो शैतानों को भी उस आदेश का पालन करना पड़ता है

Thursday, 29 October 2015

पूर्ण विश्वास

एक-दो वर्ष के बालक को, प्रेम से भरकर, जब उसका पिता, हवा में उछाल देता है तो बालक खूब हँसता-खिलखिलाता है। ऊपर उछलने से, अपने पिता के हाथों से छूटने से, आधार से दूर होने से, उसे पेट में गुदगुदी होती है और वह उस गुदगुदी का भी आनन्द लेता है। भय? भय तो है ही नहीं। क्यों? उसका पिता उसे सँभालने के लिये बाँहें पसारे खड़ा है। बालक गिरेगा तो पिता की बाँहों में ही ! पिता भी उसे कोमलता से ही पकड़ेगा ताकि सुकुमार को कोई पीड़ा न हो जाये ! दोनों ही खेल का आनन्द ले रहे हैं। दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को सुख दे रहे हैं। दोनों का प्रेम और विश्वास अघटन को घटने नहीं देता।
बच्चा जब बड़ा और समझदार हो जाता है तो अब उसे पूर्ण विश्वास नहीं रहता कि उसका पिता आज भी उसे सँभालने योग्य है; आनन्द का स्थान अविश्वास और भय ले लेता है और यही तनिक सा मानसिक अविश्वास उन्हें इस खेल और आनन्द से वंचित कर देता है। बच्चे को विश्वास नहीं; अब उसे भय लगता है तो पिता भी उसे नहीं उछालता किन्तु जगत तो उछालेगा ही और अब स्वयं ही सँभलना है क्योंकि जगत की हर-संभव कोशिश यही है कि गिरो ताकि सीख ले सको कि जगत, विश्वास करने लायक नहीं। माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता।
समझदार और भक्त में यही भेद है कि समझदार प्रयत्न करता है कि गिरुँ तो कम से कम चोट लगे और भक्त छोटे बालक की तरह जीवन-पर्यंत अपने पिता के साथ, खेल का आनन्द लेता है। वह "बड़ा" नहीं होता, "समझदार" नहीं होता, अपना "विश्वास" नहीं खोता, अपने "पिता" को नहीं छोड़ता और पिता भी उसे जगत में रहते हुए भी "जगत के हवाले" नहीं होने देता। उसकी पुकार से पहले, वह उसे गोद में लेने के लिये हर क्षण प्रस्तुत है। भक्त को यह विदित है सो किसी भी परिस्थिति में वह श्रीहरि को स्वयं को बचाने के लिये नहीं पुकारता; वह तो यहीं हैं; मेरे पास ! गिरूँगा भी तो उनकी सुरक्षित गोद में ही !
जय जय श्री राधे !