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Tuesday, 3 November 2015

अनूठी भक्ति

महाभारत युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन द्वारिका गए. इस बार रथ अर्जुन चलाकर ले गए. . 
द्वारिका पहुंचकर अर्जुन बहुत थक गए थे इसलिए विश्राम करने अतिथिभवन में चले गए. . 
संध्या को रूक्मिणीजी ने श्रीकृष्ण को भोजन परोसा. 
प्रभु रूक्मिणीजी से बोले- प्रिय घर में अतिथि आए हुए हैं. हम अतिथि को भोजन कराए बिना भोजन कैसे ग्रहण कर लूं. . 
रूक्मिणीजी ने कहा- भगवन आप भोजन आरंभ तो करिए मैं अर्जुन को अभी बुलाकर लिए आती हूं. . 
रूक्मिणीजी जब अतिथिकक्ष में पहुंची तो वहां अर्जुन गहरी नींद में सो रहे थे. रूक्मिणीजी यह देखकर आश्चर्य में थीं कि नींद में सोए अर्जुन के रोम-रोम से श्रीकृष्ण नाम की ध्वनि निकल रही है. . यह देख रूक्मिणी अर्जुन को जगाना भूल आनंद में डूब गईं और धीमे-धीमे ताली बजाने लगीं. . 
प्रभु के दर्शन के लिए नारदजी पहुंचे तो देखा प्रभु के सामने भोग की थाली रखी है और वह प्रतीक्षा में बैठे हैं. 
नारदजी ने श्रीकृष्ण से कहा- भगवन भोग ठण्डा हो रहा है, इसे ग्रहण क्यों नहीं करते. . 
श्रीकृष्ण बोले- नारदजी, बिना अतिथि को भोजन कराए कैसे ग्रहण करूं. नारदजी ने सोचा कि प्रभु को अतिथि की प्रतीक्षा में विलंब हो रहा है. इसलिए बोले- प्रभु मैं स्वयं बुला लाता हूं आपके अतिथि को. . 
नारदजी भी अतिथिशाला की ओर चल पड़े. वहां पहुंचे तो देखा अर्जुन सो रहे हैं. उनके रोम- रोम से श्रीकृष्ण नाम की ध्वनि सुनकर देवी रूक्मिणी आनंद विभोर ताली बजा रही हैं. प्रभुनाम के रस में विभोर नारदजी ने वीणा बजानी शुरू कर दी. . 
सत्यभामाजी प्रभु के पास पहुंची. प्रभु तो प्रतीक्षा में बैठे हैं. 
सत्यभामाजी ने कहा- प्रभु भोग ठण्डा हो रहा है प्रारंभ तो करिए. भगवान ने फिर से वही बात कही- हम अतिथि के बिना भोजन नहीं कर सकते. . 
अब सत्यभामाजी अतिथि को बुलाने के लिए चलीं. वहां पहुंचकर सोए हुए अर्जुन के रोम-रोम द्वारा किए जा रहे श्रीकृष्ण नाम के कीर्तन, रूक्मिणीजी की ताली, नारदजी की वीणा सुनी तो वह भी भूल गईं कि आखिर किस लिए आई थीं. . 
सत्यभामाजी ने तो आनंद में भरकर नाचना शुरू कर दिया. 
प्रभु प्रतीक्षा में ही रहे. जो जाता वह लौट कर ही न आता. . प्रभु को अर्जुन की चिंता हुई सो वह स्वयं चले. प्रभु पहुंचे अतिथिशाला तो देखा कि स्वरलहरी चल रही है. . 
अर्जुन निद्रावस्था में कीर्तन कर रहे हैं, 
रूक्मिणी जाग्रत अवस्था में उनका साथ दे रही हैं, 
नारद जी ने संगीत छेड़ी है 
तो सत्यभामा नृत्य ही कर रही हैं. . 
यह देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये. प्रभु ने अर्जुन के चरण दबाना शुरू कर दिया. . प्रभु के नेत्रों से प्रेमाश्रुओ की कुछ बूंदें अर्जुन के चरणों पर पड़ी तो अर्जुन वेदना से छटपटा कर उठ बैठे. 
जो देखा उसे देखकर हतप्रभ तो होना ही था. घबराए अर्जुन ने पूछा- प्रभु यह क्या हो रहा है ! . 
भगवान बोले- अर्जुन तुमने मुझे रोम-रोम में बसा रखा है इसीलिए तो तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय हो. 
गोविन्द ने अर्जुन को गले से लगा लिया. अर्जुन के नेत्रों से अश्रु की धारा फूंट रही थी. . कुछ बूंदें सौभाग्य की, कुछ प्रेम की और कुछ उस अभिमान की जो भक्त को भगवान के लिए हो ही जाती है. ****************************** कुछ कथाएं तब उमड़ती है जब भक्त अपने आराध्य की भक्ति में लीन हो जाता है. 
वह कथाएं सभी दूसरी कथाओं से ज्यादा आनंद प्रदान करती है. . 
बोलिये भक्त की जय, भक्तवत्सल भगवान की जय। . जय जय श्री राधे"

Saturday, 10 October 2015

सिर्फ भगवान को ही चाहने से भगवान मिलते हैं।

भगवान के दर्शन :
एक दिन एक सेठ ने सूफी संत फरीद से कहा, 'मैं घंटों पूजा-पाठ करता हूं, लाखों रुपये दान-पुण्य में खर्च करता हूं। गरीबों को खाना खिलाता हूं, फिर भी मुझे भगवान के दर्शन नहीं होते। आप मार्गदर्शन कीजिए।'
फरीद ने कहा, 'यह तो बहुत आसान है। आओ मेरे साथ। मौका मिला तो आज ही भगवान के दर्शन करा दूंगा।' फरीद सेठ को नदी तट पर ले गए, फिर उन्होंने सेठ को डुबकी लगाने को कहा। जैसे ही सेठ ने डुबकी मारी, फरीद सेठ के ऊपर सवार हो गए। संत फरीद काफी तंदुरुस्त थे। उनका वजन सेठ संभाल नहीं पा रहा था। वह बाहर निकलने की कोशिश करता लेकिन और दब जाता था। सेठ तड़पने लगा। उसने सोचा, अब जान नहीं बचेगी। चले थे भगवान के दर्शन करने, अब यह जिंदगी भी गई। सेठ था तो कमजोर, लेकिन मौत नजदीक देख कर उसने गजब का जोर लगाया और एक झटके में ऊपर आ गया। उसने फरीद से कहा, 'तू फकीर नहीं कसाई है। तू मुझे भगवान के दर्शन कराने लाया था या मारने?'
फरीद ने पूछा, 'यह बताओ कि जब मैं तुम्हें पानी में दबा रहा था तो क्या हुआ?' सेठ बोला, 'होना क्या था। जान निकलने लगी थी। पहले बहुत विचार उठे मन में कि हे, भगवान कैसे बचूं, कैसे निकलूं बाहर। जब प्रयत्न सफल नहीं हुए तो धीरे-धीरे विचार भी खो गए। फिर तो एक ही सवाल आया था कि किसी तरह बाहर निकल जाऊं। फिर विचार भी खो गए, बस भाव रह गया बाहर निकलने का।'
फरीद ने कहा, 'परमात्मा तक पहुंचने का यह अंतिम मार्ग ही सबसे सरल है। जिस दिन केवल परमात्मा को पाने का भाव बचा रह जाएगा और विचार तथा प्रयास खत्म हो जाएंगे, उसी दिन ईश्वर तुम्हें दर्शन दे देंगे। आदमी केवल सोचता है, विचार करता है, सवाल करता है लेकिन उसके भीतर भाव उत्पन्न नहीं होता, इसलिए उसे संपूर्ण सफलता नहीं मिलती।' सेठ ने फरीद का भाव अच्छी तरह समझ लिया।
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Friday, 9 October 2015

भगवान को ही बांधने की रहती है, भगवान से बंधने की नहीं

हम जीवों की कोशिश केवल भगवान को ही, बांधने की रहती है , भगवान से बंधने की नहीं,
सभी अपनी गेंद भगवान के पाले में ही डाल के रखते हैं , और कहते हैं कि , चूँकि तूने जनम दिया है ,  इसलिए हमारी खुशहाली का जिम्मा भी तेरा ही है ,
जबकि भगवान के प्रतिनिधि यानी सच्चे संत , उन्हें खुशहाली के जो सूत्र बताते हैं ,  उनको कोई अमल में लाना नहीं चाहता , क्योंकि सभी व्यक्ति यह अच्छी तरह जानते हैं कि ,  अगर एक बार भगवान के हो गए तो ,  हमें जो यह उल्टे - सीधे , नैतिक और अनैतिक  काम करने की आदत पडी हुई है , वह छोडनी पडेगी ,
विडम्बना यह है कि , भगवान बंधते तो हैं , परं बंधते हैं सत्कर्मों से , सरलता से , और सहृदयता से,
लेकिन जैसे ही इनकी जिक्र आती है ,  हम भगवान से भगवान के सामने ही यह कह देते हैं कि,
हे प्रभु ! यह तो किताबों में ही अच्छा लगता है ,  हकीकत में ऐसे बनकर जीवन नहीं जिया जा सकता ,
अगर ईमानदारी से व्यवसाय या नौकरी किया तो , बच्चों की पढाई - लिखाई व दवा - दारू तो , बहुत दूर की बात है , खाने के ही लाले पड जाऐंगे ,  इन सद्गुणों का जिम्मा तो दे दो आप , उन सन्तों को , हमें तो आपने गृहस्थी बनाया है सो , हमारी जिम्मेदारी आपकी ,
बिना यह पूछे कि ,  हम आपकी बात मान रहे हैं , या नहीं ,  आपके बताये रास्ते पर चल रहे हैं या नहीं ,  हमारे लिए तो आपको अगर भेदभाव भी करना पडे , तो करिये , संबिधान भी बदलना पडे तो बदलिए ,
नए धर्म शास्त्रों की रचना करनी पडे , तो करिए ,  हमको इससे कोई मतलब नहीं ,
हाँ ! कभी - कभी मंदिर में जाकर घन्टा हिला आया करेंगे,  भगवान भी शायद यह सब सुनकर , मुस्करा ही रह जाते होंगे ।

जय जय श्री राधे