Tuesday, 13 October 2015

धर्म के विषय में विचार

धर्म के विषय में सब विचार करते हैं। कोई अपने ही धर्म के विषय में, कोई अन्य के धर्म के बारे में, किसी के अधर्म को लेकर चर्चायें होती ही रहती हैं, कोई भी ऐसा नही है जो धर्म के विषय पर विचार न करता हो......
किन्तु वास्तव में धर्म है क्या? क्या कोई यह समझ पाया है???
धर्म मनुष्य को दूसरे मनुष्य के साथ... समस्त सृष्टी के साथ... सुख से जीने का ज्ञान देता है.... यही करण है कि किसी धर्म के स्थान पर मनुष्य को सदा ही शान्ति प्राप्त होती है!
क्या यह आपका अनुभव नही?
अर्थात धर्म मनुष्य के सारे संघर्षो का नाश करता है! पर यह किस प्रकार सम्भव है कि किसी मनुष्य को किसी अन्य व्यक्ति के साथ कोई संघर्ष न हो...
विचार करें... जहाँ प्रेम होता है क्या वहाँ संघर्ष भी होता है?
आप कहेंगे हाँ... अवश्य होता है...
किन्तु आप थोड़ा और विचार करेंगे तो ये जान जायेंगे कि जिस समय संघर्ष होता है, उस समय प्रेम का विस्मरण हो जाता है... और फिर इच्छायें जागती हैं, अंहकार जागता है, क्रोध जागता है... पर प्रेम...?
न... प्रेम नही जागता!
किन्तु जहाँ प्रेम जागता है वहाँ सारे संघर्ष, सारे विवाद, सारे झगड़े नष्ट हो जाते हैं!
यदि ऐसा ही प्रेम सारे विश्व के लिए जागे तो? केवल मनुष्य ही नहीं... पशु-पक्षी के लिए... घास के तिनके के लिए भी यदि ह्रदय में प्रेम हो...
तो क्या कोई क्रोध का कारण रह जाता है?
नहीं न...
एक व्यक्ति के ह्रदय में दूसरे व्यक्ति के लिए जो प्रेम का भाव होता है, वही प्रेम भाव समस्त सृष्टि के लिए हो तो उसे करुणा कहा जाता है...
करुणा अर्थात सारे विश्व का स्वीकार... सबके लिए केवल प्रेम और कुछ नहीं... कहीं किसी के लिए कोई विरोध नहीं... करुणा ही वास्तव में सारे धर्मो का सार है। धर्म यदि वृक्ष है तो करुणा ही उसका मूल, उसकी जड़ है।
पर बार-बार ऐसा समय आता है कि मनुष्य धर्म के मूल को ही भूल जाता है। कुछ नियमों, परम्पराओं को पकड़ कर बैठता है। और करुणा को.... करुणा को भुला ही देता है। और ये जगत भर जाता है संघर्षों से, इर्ष्याओं से, शोषण से, क्रोध से, बेर से.... अर्थात अधर्म से....
और तब परमात्मा को अवतार धारण करना पड़ता है। मनुष्यों को वास्तविक ज्ञान देने के लिए....
विचार अवश्य कीजियेगा!!!!

जय श्रीराधेकृष्ण

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