एक-दो
वर्ष के बालक को, प्रेम से भरकर, जब उसका पिता, हवा में उछाल देता है तो
बालक खूब हँसता-खिलखिलाता है। ऊपर उछलने से, अपने पिता के हाथों से छूटने
से, आधार से दूर होने से, उसे पेट में गुदगुदी होती है और वह उस गुदगुदी का
भी आनन्द लेता है। भय? भय तो है ही नहीं। क्यों? उसका पिता उसे सँभालने के
लिये बाँहें पसारे खड़ा है। बालक गिरेगा तो पिता की बाँहों में ही ! पिता
भी उसे कोमलता से ही पकड़ेगा ताकि सुकुमार को कोई पीड़ा न हो जाये ! दोनों ही
खेल का आनन्द ले रहे हैं। दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को सुख दे रहे हैं।
दोनों का प्रेम और विश्वास अघटन को घटने नहीं देता।
बच्चा जब बड़ा और समझदार हो जाता है तो अब उसे पूर्ण विश्वास नहीं रहता कि उसका पिता आज भी उसे सँभालने योग्य है; आनन्द का स्थान अविश्वास और भय ले लेता है और यही तनिक सा मानसिक अविश्वास उन्हें इस खेल और आनन्द से वंचित कर देता है। बच्चे को विश्वास नहीं; अब उसे भय लगता है तो पिता भी उसे नहीं उछालता किन्तु जगत तो उछालेगा ही और अब स्वयं ही सँभलना है क्योंकि जगत की हर-संभव कोशिश यही है कि गिरो ताकि सीख ले सको कि जगत, विश्वास करने लायक नहीं। माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता।
समझदार और भक्त में यही भेद है कि समझदार प्रयत्न करता है कि गिरुँ तो कम से कम चोट लगे और भक्त छोटे बालक की तरह जीवन-पर्यंत अपने पिता के साथ, खेल का आनन्द लेता है। वह "बड़ा" नहीं होता, "समझदार" नहीं होता, अपना "विश्वास" नहीं खोता, अपने "पिता" को नहीं छोड़ता और पिता भी उसे जगत में रहते हुए भी "जगत के हवाले" नहीं होने देता। उसकी पुकार से पहले, वह उसे गोद में लेने के लिये हर क्षण प्रस्तुत है। भक्त को यह विदित है सो किसी भी परिस्थिति में वह श्रीहरि को स्वयं को बचाने के लिये नहीं पुकारता; वह तो यहीं हैं; मेरे पास ! गिरूँगा भी तो उनकी सुरक्षित गोद में ही !
जय जय श्री राधे !
बच्चा जब बड़ा और समझदार हो जाता है तो अब उसे पूर्ण विश्वास नहीं रहता कि उसका पिता आज भी उसे सँभालने योग्य है; आनन्द का स्थान अविश्वास और भय ले लेता है और यही तनिक सा मानसिक अविश्वास उन्हें इस खेल और आनन्द से वंचित कर देता है। बच्चे को विश्वास नहीं; अब उसे भय लगता है तो पिता भी उसे नहीं उछालता किन्तु जगत तो उछालेगा ही और अब स्वयं ही सँभलना है क्योंकि जगत की हर-संभव कोशिश यही है कि गिरो ताकि सीख ले सको कि जगत, विश्वास करने लायक नहीं। माता-पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता।
समझदार और भक्त में यही भेद है कि समझदार प्रयत्न करता है कि गिरुँ तो कम से कम चोट लगे और भक्त छोटे बालक की तरह जीवन-पर्यंत अपने पिता के साथ, खेल का आनन्द लेता है। वह "बड़ा" नहीं होता, "समझदार" नहीं होता, अपना "विश्वास" नहीं खोता, अपने "पिता" को नहीं छोड़ता और पिता भी उसे जगत में रहते हुए भी "जगत के हवाले" नहीं होने देता। उसकी पुकार से पहले, वह उसे गोद में लेने के लिये हर क्षण प्रस्तुत है। भक्त को यह विदित है सो किसी भी परिस्थिति में वह श्रीहरि को स्वयं को बचाने के लिये नहीं पुकारता; वह तो यहीं हैं; मेरे पास ! गिरूँगा भी तो उनकी सुरक्षित गोद में ही !
जय जय श्री राधे !
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