Tuesday, 27 October 2015

वह चोर है और दन्ड का भागी है

शास्त्रों में वर्णित है कि जो अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है, वह चोर है और दन्ड का भागी है। संभवत: हम इस बात को भी आचरण की अपेक्षा स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर गृह के मुख्य कक्ष में टँगवा देना उचित समझेंगे ताकि प्रियजनों/आगन्तुकों को हमारे चिंतन की क्षमता की जानकारी हो सके।
कभी चिंतन करें कि प्रभु ने वास्तव में हमें बनाया ही ऐसा है कि हम स्वभावत: विरक्त ही हैं, आसक्त नहीं। यह आसक्ति तो हमारे भ्रमित होने के कारण ही है। यह नश्वर देह तक श्रीहरि-कृपा से विरक्त है, आसक्त नहीं ! इस देह को पोषण देने हेतु हम जो अन्नादि ग्रहण करते हैं, वह तक रक्त-मज्जा-रसादि में परावर्तित होकर इस देह को पुष्ट करता है और उपयोग के बाद यह देह स्वत: ही अवशिष्ट पदार्थों को मल-मूत्र के रुप में देह से पृथक कर देती है परिणामस्वरुप यह देह पुष्ट और निरोगी बनी रहती है।
कल्पना करें कि यह देह भोजन को जिस रुप में ग्रहण किया है, वैसे ही पेट में संग्रह कर ले......जल भी पेट में ही संग्रहीत हो जावे तो? मुख ही संग्रह कर ले, गले से नीचे न उतरने दे तो? गले में संग्रहीत हो जाये, आँतों में पाचन के लिये न जाये तो? आँतें ही उसे पचाकर रस-रुप में परिणीत न करें तो? उस रस का यथायोग्य निस्तारण न करें तो? सब कुछ स्वत: ही हो रहा है, सब अपना कार्य पूरी क्षमता से कर रहे हैं बिना किसी लोभ-लालच के, बिना संग्रह की अभिलाषा के और परिणाम? स्वस्थ देह जिसके द्वारा यहाँ कुछ "विशेष कार्य" करना है। आज भरपेट भोजन मिला, कल का पता नहीं कि ऐसा सुस्वादु भोजन मिले न मिले तो क्या शरीर के आन्तरिक अंगों को संग्रह कर लेना चाहिये? कल की अनिश्चितता ही तो संग्रह की भावना को पुष्ट करती है। इसका एक ही अर्थ है कि हम "आज" में नहीं जीते। जिसने आज दिया है, वह कल भी देगा, यदि यह देह रही तो। इस नश्वर देह के अंग-प्रत्यंग तक हमें स्मरण कराते रहते हैं कि आवश्यकतानुसार उपभोग करो, शेष आगे बढ़ा दो और जब तक चेतना है तब तक यही करते रहो। जब कभी एक बेला अथवा एक दिन भी हमारा पेट "संग्रह" कर लेता है तो हम उसकी पीड़ा तक सहन नहीं कर पाते और येन-केन-प्रकारेण उस पीड़ा से छुटकारा पाने के लिये भागे-भागे फ़िरते हैं और जीवन व्यर्थ-निरर्थक प्रतीत होने लगता है और उससे छुटकारा पाने पर ही शांति मिलती है। हम सोचते हैं कि ऐसा क्या खाया-पिया, जिसके कारण यह पीड़ा भोगनी पड़ी। खूब चिंतन करके हम तय कर लेते हैं कि भविष्य में हम "अमुक" खाद्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करेंगे ताकि दोबारा कभी ऐसी पीड़ा न सहनी हो। यहीं चिंतन करना है कि जब देह का एक अंग संग्रह करे तो क्या होता है तो इस संपूर्ण देह का मन-बुद्धि-अहंकार के द्वारा प्रयोग करते हुए हम सांसारिक भोग-विलास की वस्तुओं को येन-केन-प्रकारेण संग्रह कर रहें हैं तो उसका कैसा भयंकर दुष्परिणाम होगा? हमें चिंतन करना है कि ऐसा क्या किया था जिसके कारण अब तक चौरासी के फ़ेर में भटक रहे हैं? किससे बचना है ताकि यह पीड़ा दोबारा न हो। क्या "संग्रह" करना है जो साथ जा सके ! जब संसार में आये तो मुठ्ठी बाँधे अर्थात कुछ न कुछ लाये अवश्य थे, भले ही दृष्य़मान न हो किन्तु गये तो खाली हाथ पसारे, जबकि संग्रह किया बहुत कुछ दृष्यमान !
पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनं। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयापारे पाहि मुरारे।
जय जय श्री राधे !

No comments:

Post a Comment