Thursday, 29 October 2015

माँ अपने बालक की बाल-लीलाओं का मधुर रस लेने के लिये

जिस प्रकार माँ अपने बालक की बाल-लीलाओं का मधुर रस लेने के लिये अपने घुटनों चलते बालक की दृष्टि से ओझल होकर किसी ओट में छिप जाती है, केवल यह देखने के लिये कि उसे, उसका कितना स्मरण है या बालक कहीं अपने खेल में ही इतना मग्न तो नहीं हो गया कि उसे अपनी माँ की सुधि ही नहीं है। बालक अपने खेल में मग्न है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, मायावी संसार को देखकर चकित है। प्रत्येक वस्तु-पदार्थ को वह जानना चाहता है, समझना चाहता है, स्पर्श करना चाहता है, उसके भोग का आनन्द लेना चाहता है। माँ ओट से देख रही है कि बालक को अभी उसकी सुधि नहीं है परन्तु वह तो वहीं रहेगी क्योंकि संभव है, बालक अपनी बाल-बुद्धि के कारण अपने को संकट में डाल ले। जैसे ही बालक पुकारेगा उसे ओट से निकल उसके समीप जाना ही है। बालक तो खेल में ऐसा रमा कि बहुत देर हो गयी, माँ ओट में खड़ी-खड़ी प्रतीक्षा कर रही है कि कब बालक, उसे पुकारे और वह दौड़कर उसे अपनी बाँहों में भर ले।
यही स्थिति हमारी और ठाकुरजी की है। कई बार वह अपनी स्मृति दिलवाने को अपने किसी प्रिय को भेजते हैं, संदेश भी भेजते हैं, अन्य रुप धरकर स्वयं भी आ जाते हैं परन्तु हाय रे अज्ञान, हाय हमारी मूढता, हम इन सबको अपने आनन्द में विक्षेप मानते हुए उस पर चिंतन ही नहीं करते, दृष्टिपात ही नहीं करते। जब अपने खेल से उकता जाते हैं, हारने लगते हैं, लगने लगता है कि कुछ भी हमारे वश में नहीं तो क्रन्दन करते हुए उसे उलाहना देने लगते हैं कि ठाकुरजी को हमारी सुधि ही नहीं है।
हे नाथ ! दास को उसके भरोसे मत छोड़ना। जिस प्रकार अपने मंदबुद्धि बालक का सारा भार उसके माता-पिता स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं, सब समय उसे अपनी आँखों के सामने रखते हैं। हे नाथ ! मुझ अधम को आप ऐसा ही समझो। हे स्वामी ! मेरे साथ बिडाल-शावक न्याय ही करिये, दास की क्षमता मर्कट-शावक न्याय के अनुरुप नहीं है। अब जब सुधि दिला दी है तो अब कोई ओट न करो प्रभु ! अब यह माया भरमाती नहीं है। भरमाये भी कैसे? जिसने मायापति को देख लिया, वह अब माया को क्यों देखे, क्या देखे?
शरण दीनबंधु शरण ! राधा शरण !
जय जय श्री राधे !

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