प्रत्येक मनुष्य के जीवन में ऐसा क्षण अवश्य आता है। जब सारे सपने, सारी
आशायें, सारे द्रश्य... आदि ध्वस हो जाते हैं। जीवन के सारे आयोजन ही बिखर
जाते हैं।
(जब एक ओर धर्म होता है और दूसरी ओर सुख)
जब धर्म का वहन(पालन) ही संकट हो और धर्म का त्याग ही सुख हो.... इसी को "धर्म संकट" कहते हैं!
आप विचार कीजिए!
कभी किसी सज्जन के विरुद्ध सत्य बोलने का अवसर प्राप्त हो जाता है। कभी ठीक दरिद्रता के समय सरलता से चोरी करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है। कभी किसी शक्तिशाली राजनेता या राजा के कर्मचारी का अधर्म प्रकट हो जाता है। सबके जीवन में ऐसी घटना बनती ही रहती हैं।
अधिकतर लोग ऐसे ही किसी क्षण को "धर्म संकट" के रूप में जान ही नहीं पाते... हमे किसी भी प्रकार के संघर्ष का अनुभव ही नहीं होता... हम तो सहजता से सुख की ओर खींचे चले जाते हैं। जैसे मक्खी गुड़ की ओर खींची चली जाती है।
वास्तव में "धर्म संकट" का क्षण... ईश्वर के निकट जाने का क्षण होता है। यदि हम संघर्षों से भयभीत न हों और सुख की ओर आकर्षित न हों। अपने धर्म पर दृढ़(डटें) रहें। तो ईश्वर का साक्षात्कार दूर नहीं.... जैसे पवन से युद्ध करने वाला पत्ता यदि पेड़ से गिरता है। तो भी आकाश की ओर उठता है। और पवन से झुकने वाली घास वहीँ भूमि पर रह जाती है।
अर्थात "धर्म संकट" से यदि हम संकट को ही टाल दें... तो सुख तो मिलता है, और जीवन भी बढ़ता है। किन्तु...
क्या चरित्र नहीं टूटता???
क्या आत्मा दरिद्र नहीं हो जाती???
क्या ईश्वर से अंतर नहीं हो जाता???
स्वंय विचार कीजिए!!!!
जय श्री कृष्ण
(जब एक ओर धर्म होता है और दूसरी ओर सुख)
जब धर्म का वहन(पालन) ही संकट हो और धर्म का त्याग ही सुख हो.... इसी को "धर्म संकट" कहते हैं!
आप विचार कीजिए!
कभी किसी सज्जन के विरुद्ध सत्य बोलने का अवसर प्राप्त हो जाता है। कभी ठीक दरिद्रता के समय सरलता से चोरी करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है। कभी किसी शक्तिशाली राजनेता या राजा के कर्मचारी का अधर्म प्रकट हो जाता है। सबके जीवन में ऐसी घटना बनती ही रहती हैं।
अधिकतर लोग ऐसे ही किसी क्षण को "धर्म संकट" के रूप में जान ही नहीं पाते... हमे किसी भी प्रकार के संघर्ष का अनुभव ही नहीं होता... हम तो सहजता से सुख की ओर खींचे चले जाते हैं। जैसे मक्खी गुड़ की ओर खींची चली जाती है।
वास्तव में "धर्म संकट" का क्षण... ईश्वर के निकट जाने का क्षण होता है। यदि हम संघर्षों से भयभीत न हों और सुख की ओर आकर्षित न हों। अपने धर्म पर दृढ़(डटें) रहें। तो ईश्वर का साक्षात्कार दूर नहीं.... जैसे पवन से युद्ध करने वाला पत्ता यदि पेड़ से गिरता है। तो भी आकाश की ओर उठता है। और पवन से झुकने वाली घास वहीँ भूमि पर रह जाती है।
अर्थात "धर्म संकट" से यदि हम संकट को ही टाल दें... तो सुख तो मिलता है, और जीवन भी बढ़ता है। किन्तु...
क्या चरित्र नहीं टूटता???
क्या आत्मा दरिद्र नहीं हो जाती???
क्या ईश्वर से अंतर नहीं हो जाता???
स्वंय विचार कीजिए!!!!
जय श्री कृष्ण
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