मनुष्य का ह्दय सुख की आशाओं से, सत्ता और समपत्ति की ईच्छाओं से घिरा रहता है सदा...
किन्तु समान्य रूप से मनुष्य अपने माता-पिता, सन्तानों, भाई-बहन या अपनी पत्नि के साथ उचित व्यवहार ही करता है सदा... कोई अन्यायें नही करता। वो सुख और समपत्ति को समान भागो में बांट कर भोगता है।
क्योकि वो यह जानता है कि उसके सुख का आधार है उसका परिवार... उसके सुख का कारण है उसका परिवार... मनुष्य यह भी जानता है कि उसका सुख सामाज से आता है।
किन्तु वो सामाज के साथ अन्यायें कर लेता है। सामाज का शोषण कर लेता है। क्योकि वो सामाज को अपने सुख का कारण नही मानता। वो सामाज को अपने सुख का साधन मानता है।
भेद है तो (कारण और साधन) में।
किन्तु मनुष्य को जब यह बोध हो जाता है कि सारा संसार परमात्मा का ही रूप है। प्रत्येक जीव परमात्मा का ही अंश है। अर्थात कोई पराया नही... सब अपने हैं , ये सारा संसार अपना ही है, अपना ही परिवार है। तो क्रोध का कोई कारण ही नही रह जाता... सारे संघर्ष, सारा वैर, सारे प्रतिशोध नष्ट हो जाते हैं।
अन्तर में परमात्मा और संसार में एकाकमता... यही धर्म का मूल सिद्धान्त है।
स्वंय विचार कीजिए!!!!
जय श्री कृष्ण
किन्तु समान्य रूप से मनुष्य अपने माता-पिता, सन्तानों, भाई-बहन या अपनी पत्नि के साथ उचित व्यवहार ही करता है सदा... कोई अन्यायें नही करता। वो सुख और समपत्ति को समान भागो में बांट कर भोगता है।
क्योकि वो यह जानता है कि उसके सुख का आधार है उसका परिवार... उसके सुख का कारण है उसका परिवार... मनुष्य यह भी जानता है कि उसका सुख सामाज से आता है।
किन्तु वो सामाज के साथ अन्यायें कर लेता है। सामाज का शोषण कर लेता है। क्योकि वो सामाज को अपने सुख का कारण नही मानता। वो सामाज को अपने सुख का साधन मानता है।
भेद है तो (कारण और साधन) में।
किन्तु मनुष्य को जब यह बोध हो जाता है कि सारा संसार परमात्मा का ही रूप है। प्रत्येक जीव परमात्मा का ही अंश है। अर्थात कोई पराया नही... सब अपने हैं , ये सारा संसार अपना ही है, अपना ही परिवार है। तो क्रोध का कोई कारण ही नही रह जाता... सारे संघर्ष, सारा वैर, सारे प्रतिशोध नष्ट हो जाते हैं।
अन्तर में परमात्मा और संसार में एकाकमता... यही धर्म का मूल सिद्धान्त है।
स्वंय विचार कीजिए!!!!
जय श्री कृष्ण
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