Sunday, 18 October 2015

उपदेश - अर्जुन के हृदय का सब सन्देह मिट गया



भीष्म पितामह के इस विश्वास की दृढ़ता और सचाई की कसौटी में उत्साह देने के लिये उनके साथी बने। जब महाभारत में दोनों दलों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गईं और सम्बन्धियों और मित्रों को लड़ने के लिये और मरने के लिये तैयार देखकर अर्जुन के मन में विषाद हुआ कि लड़ाई न लड़ें, तब भगवान् कृष्ण ने उनको यह ऊँचा उपदेश दिया जो भगवद्गीता के नाम से जगत् को पावन कर रहा है।
Grandfather Bheeshma became KR^shNa's companion to deepen his faith in the Lord, and to test whether all these things are true.  When, in the MahAbhArata war, the two armies faced each other, and the war was to begging where warriors were going to destroy relatives and friends, then Prince aRjjuna was affected by depression, and then BhagavAn gave the Prince the highest advice possible, which is known as Bhagavad-GeetA.



यह उसी उपदेश का फल था कि अर्जुन के हृदय का सब सन्देह मिट गया और वे लड़ने के लिये खड़े हो गए और उन्होंने विजय प्राप्त की। अर्जुन और कृष्ण के इस सम्बन्ध को और उसको लोकोत्तम फल को भगवान् वेदव्यास ने गीता के नीचे लिखे श्लोक में कूजे में मिश्री के समान भर दिया है-
    यत्र योगेश्वर: कृष्ण: यत्र पार्थो धनुर्धर:।   तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हों, जहाँ गाण्डीवधारी अर्जुन हों, जहाँ मष्तिष्क-बल, हृदय-बल और बाहु-बल एकत्र हों- वहाँ लक्ष्मी है, वहाँ विजय है, वहाँ विभूति है और निश्चित नीति है।

जब मन विचलित होता है तब हम ईश्वर को भूल कर इधर उधर भागते है क्योकि हम उस वक्त ईश्वर पर नहीं बल्कि अपने आस पास मौजूद लोगों पर भरोसा करने लगते हैं किन्तु यह भूल जातें है की उन लोगों का भरोसा और सहारा भी ईश्वर पर ही निर्भर करता है ।
जिसका स्वाभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्या और संतान की कामना से भुत, पितृ और प्रजापतियो की उपासना करते है, क्युको इन लोगो का स्वाभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है ।
वेदों का तात्‍पर्य श्रीकृष्ण में ही है । यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही है । योग श्रीकृष्ण के लिए ही किये जाते हैं और समस्‍त कर्मो की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण ही है । ज्ञान से ब्रह्मस्‍वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है । तपस्‍या श्रीकृष्ण की प्रसन्‍नता के लिये ही की जाती है । श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मो का अनुष्‍ठान होता है और सब गतियां श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं । श्रीमद भागवतमहापुराण
( प्रथम स्‍कन्‍ध )  2 श्लो 28-29
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् |
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ||
जिसके हृदयमें श्रीहरी हों, जो स्वयं मंगलायातन हैं, एवं उनका वास हो उनके सदैव एवं सभी कार्य निर्विघ्न और मंगलकारी होते हैं |

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