Friday, 23 October 2015

सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र।

" गीता ज्ञान "
सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र।
क्योंकि है फल , हरि हाथ में,यह गीता का मंत्र।।
जो "उन" सत्ता मान के , दें कर्मो को अंजाम।
वे ही कर पाते यहाँ ,सच में अच्छे काम।।
जो न मानते सूत्र ये , अरु गीता सिद्धांत।
उनसे मैले कर्म हों ,अरु मन - बुद्धि अशान्त।।
चूँकि महत्ता हो वहाँ , मन की " रोटीराम "।
सो वे वह -वह ही करें,जो करवाए मन काम।।
(भगवान कृष्ण ने गीता 2 /47 में कहा है )
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सन्गोऽस्त्व कर्मणि।।
अर्थ - जीव का अधिकार केवल नए कर्म करने  में है , उसके फलों में नहीं ।अतः हे अर्जुन तू कर्मफल का हेतु भी मत बन , और कर्म  करने में अनासक्त भी मत हो ।
व्याख्या - कर्म करना और किस कर्म का क्या?
फल मिलेगा , ये दोनों अलग - अलग विभाग हैं , कर्म करना तो मनुष्य के  अधीन है , लेकिन किस कर्म का क्या?
फल हो, यह होना प्रारब्ध यानी परमात्मा  के अधीन है ।
प्रारब्धानुसार यानी परमात्मा  के विधानानुसार मनुष्य को जो मिला है, उसे अपनी भूल अथवा अपनी ही अच्छाई मानकर उसमें ही सन्तोष कर लेना ही  मनुष्य के लिए लाभप्रद है ।

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