हे भगवन्! हे माधव ! आपकी कृपा के बिना आपकी माया का ओर -
छोर पता नहीं किया जा सकता । चाहे कितने ही प्रयास कर लें । यद्यपि मैं
माया के बारे में चिंतन करता हूं, सुनता भी हूं, समझता भी हूं और
लोगों को समझाता भी हूं, लेकिन इसका रहस्य क्या हैं ? यह समझ में
नहीं आता । आपकी इस माया को समझे बिना उस ब्रह्म तत्व की प्राप्ति
नहीं होती जिसके अभाव में प्राणी इस संसार में भटकता रहता है। अनेक
प्रकार की भीषण विपदाएं जिसे सदैव पीड़ित करती रहती है। ब्रह्मामृत शीतल व
मधुर है। यदि यह रस इस मन को मिल जाए तो भला यह मृग- मरीचिका रूपी जल
अर्थात संसारिकता की ओर क्यों दौड़े ? यद्यपि भक्ति - ज्ञान आदि
अनेक साधन हैं और सब सत्य भी हैं, लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर
की कृपा के बिना भ्रम का निवारण नही होता ।।
करि उपाय पचि मारिय तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया।।
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै।
ब्रह्म पियूष मधुर सीतल जो पैर मन सो रस पावै।।
तौ कत मृगजल रूप बिषय कारन निसि बासर धावै।।
जेहि के भवन बिमल चिंतामनि सो कत कांच बटोरै।।
सपने परबस परै जागि देखत केहि जाइ निहोरै।।
ग्यान-भगति साधन अनेक सब सत्य झूठ कछू नाहीं ।
तुलसीदास हरिकृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मन माहीं ।।
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