एक बार लक्ष्मीजी पृथ्वी पर आयीं। लोग बैठे थे। आलसी थे। कह
दिया, "माँ की जय हो।" लक्ष्मी जी ने उन सबके घर सुवर्ण से भर दिया। यह
देखकर पृथ्वी रोती रोती लक्ष्मीजी के पास आयी और बोलीः "आप मेरे बच्चों के
साथ अन्याय कर रही हो।"
"पगली कहीं की ! मुझे तू रोकने-टोकने आयी है? मैं तेरे बच्चों से अन्याय कर रही हूँ? वे 'माँ... माँ....' करते हैं और मैं एकदम उनका घर सोने से भर देती हूँ? उन्हें धन से सम्पन्न कर देती हूँ।"
"पगली कहीं की ! मुझे तू रोकने-टोकने आयी है? मैं तेरे बच्चों से अन्याय कर रही हूँ? वे 'माँ... माँ....' करते हैं और मैं एकदम उनका घर सोने से भर देती हूँ? उन्हें धन से सम्पन्न कर देती हूँ।"
"भगवती ! वे थोड़ा-सा माँगे और आप धन के ढेर लगा दोगी तो
उनमें छुपी हुई जो पुरुषार्थ की शक्ति है वह विकसित नहीं होगी। वे पराधीन
हो जायेंगे, भिखमंगे हो जायेंगे, स्वामी नहीं बन पायेंगे। पुरुषार्थ करने
की योग्यता नष्ट हो जायेगी। मैया! आप तो नारायण के चरणों में शोभा देती हैं
जो आत्मारामी हैं। ये लोग तो विषयारामी हैं। वे जो माँगें वह उन्हें देती
जाओगी तो मेरे उन बच्चों का सत्यानाश हो जायेगा।"
लक्ष्मीजी ने सुनी अनसुनी कर दिया। कुछ ही दिनों में घर घर
में सोने की थालियाँ, सोने के कटोरे, सोने के घड़े आदि सब सोना सोना हो
गया। लोगों ने सोचा कि हमारे घर में इतना सोना है, अब खेत में जाने की
जरूरत क्या है? हल जोतने की जरूरत क्या है? इतना सारा सोना है तो अब मजदूरी
कौन करे?
बारिश आयी लोगों ने हल न जोते। दाने न बोये। घर में जो अनाज
पड़ा था वह खाते रहे, आलसी होकर बैठे रहे। खेत सब जंगल हो गये। धान्य आदि
कुछ पका नहीं। बारिश गयी तो हाय हाय ! लोग आक्रन्द करने लगे। अनाज के बिना
छाती पर सोना रखते-रखते मर गये।
पृथ्वी रोती-रोती ब्रह्माजी के पास पहुँची और कहाः "ब्रह्मन !
लक्ष्मीजी को पृथ्वी पर आने का Stay Order (स्थगन आदेश) कर दीजिये, अन्यथा
मेरा सब चौपट हो जायेगा।"
ब्रह्माजी ने समाधि लगाकर सब हाल देखा। हाँ, उचित है। मूर्खों
को बिना परिश्रम कुछ मिलना नहीं चाहिए। हर चीज का दाम चुकाने से उसकी कद्र
होती है, उसका स्वाद भी आता है। बिना दाम चुकाये कोई चीज मिल जाती है तो
हममें छिपी हुई शक्ति विकसित नहीं हो पाती और हम पराश्रित हो जाते हैं।
बिना मेहनत के भोजन करते हो तो वह भी ठीक से नहीं पचता।
सुपाच्य भोजन भी बिना चबाये खा लिया तो वह कुपाच्य हो जाता है। परिश्रम इस
सृष्टि का नियम है। प्रकृति का यह नियम है कि जो चल से पैदा हुआ है उसको
ठीक रखने के लिए भी चल रखना पड़ता है।
प्रकृति का स्वभाव है चल। मन का स्वभाव है किसी न किसी का
चिन्तन करना. जिस किसी का चिन्तन करते हो तो भगवान बोलते हैं मेरा ही
चिन्तन कीजिए न ! जब किसी-न-किसी की उपासना करते हैं – पैसों की, पत्नी की,
पुत्र की, मकान की, दुकान की – तो भगवान कहते हैं मेरी ही उपासना कीजिये न
!
शरीर का जन्म ही कर्म से हुआ है। ज्ञानी हो चाहे अज्ञानी, यह शरीर एक क्षण भी क्रिया के बिना नहीं रह सकता।
कहते हैं कि बड़े-बड़े संत कुछ भी नहीं करते हैं। ऐसे ही चुप
बैठे रहते हैं समाधि में। ...तो वे समाधि भी तो करते ही हैं। कुछ भी नहीं
करेंगे तो मन मनोराज में चला जायेगा।
मनोराज हटाने के लिए प्रणव (ॐ) का जप करते हैं। बाद में जप
छोड़ने का भी जप करते हैं, जप छूट जाता है, कुछ न करने का क्षण आता है तब
खबरदारी रखते हैं कि मनोराज तो नहीं हो रहा है? तन्द्रा तो नहीं आ रही है?
नींद तो नहीं आ रही है? रसास्वाद तो नहीं आ रहा है?
संक्षेप में, आपको कुछ-न-कुछ करना ही होगा। पुरुषार्थ करना
होगा। आलस्य का नाम वेदान्त नहीं है। कर्म करो और उसमें सुख-बुद्धि न रखो।
कुछ पाने की इच्छा से या शत्रु को दुःख पहुँचाने की इच्छा से कर्म न करो।